लेखक परिचय
अजय तिवारी
जन्म : 6 मई 1955, इलाहाबाद मूलनिवास : ग्राम जगजीवन पट्टी, जौनपुर शिक्षा : हाईस्कूल इलाहाबाद, एम.ए., पी-एच. डी. दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली प्रकाशन : 'प्रगतिशील कविता के सौन्दर्य-मूल्य', 'नागार्जुन की कविता', 'समकालीन कविता और कुलीनतावाद', 'साहित्य का वर्तमान', 'पश्चिम का काव्य-विचार', 'आलोचना और संस्कृति', 'राजनीति और संस्कृति', 'व्यवस्था का आत्मसंघर्ष', 'आधुनिकता पर पुनर्विचार', 'हिन्दी कविता आधी शताब्दी', 'जनवादा की समस्या और साहित्य' (आलोचना) ।
सम्पादन : 'केदारनाथ अग्रवाल', 'कवि-मित्रों से दूर' (केदारनाथ अग्रवाल से बातचीत), 'आज के सवाल और मार्क्सवाद' (रामविलास शर्मा के संवाद), 'तुलसीदास : पुनर्मूल्यांकन', 'जन-इतिहास का नज़रिया' (रामविलास शर्मा से बातचीत), 'रामविलास शर्मा संकलित निबन्ध'।
सम्मान : 'केशव-स्मृति सम्मान' (भिलाई, 1997), 'देवीशंकर अवस्थी सम्मान' (नयी दिल्ली, 2002), 'डॉ. भगवतशरण उपाध्याय सम्मान' (बलिया, 2005)
भूमिका
राहित्य रूपों का आविर्भाव और अवसान ही नहीं, साहित्यिक कृतियों का शिल्प भी समाज और इतिहास की परिस्थितियों पर निर्भर होता है। काव्यशिल्प, कथाशिल्प, मूर्तिशिल्प जैसी पदावली कलात्मक अभिव्यक्ति में रूपरचना या स्थापत्य का महत्त्व स्पष्ट करती है। बेनेदेतो क्रोचे भी अभिव्यंजना के लिए अनुभूति को पर्याप्त मानते थे लेकिन वह अनुभूति कला तभी बनती थी, जब उसे भाषा मिल जाती थी, यानी शब्द, नाद, रंग, आकृति, भंगिमा या मुद्राओं का माध्यम। रूपविजित वस्तु ही कला बनती है। इसलिए दोनों की परस्पर निर्भर सत्ता है। अनुभूति वस्तु है, जैसे जल। रूप शिल्प है, जैसे कुआँ, बावड़ी, नदी, नहर, तालाब, झरना। शिल्प वस्तु से निर्मित होता है, उसे नियन्त्रित भी करता है। एक ही वस्तु अलग-अलग शिल्प से विभिन्न अस्तित्व ग्रहण करती है। वहीं जल कुआँ, नदी, झरने का रूप लेता है; वही अनुभूति काव्य, संगीत, स्थापत्य का रूप लेती है। यह समझना भूल है कि वस्तु का जन्म शिल्प से होता है। पहाड़ को तोड़कर पानी ही झरने का रूप लेता है। जिस अनुभूति को भाषा नहीं मिलती, वह भी अस्तित्ववान है और अभिव्यंजना है। इसलिए शिल्प निष्क्रिय और गौण नहीं है, फिर भी निर्णायक महत्त्व अन्ततः वस्तु का ही होता है। और, यह निर्विवाद है कि वस्तु का अटूट सम्बन्ध समाज और इतिहास से होता है। आज इस बात पर जोर देना आवश्यक है क्योंकि पैकेजिंग, एडवर्टाइजिंग, प्रेजेंटेशन, जेस्वर वगैरह प्रदर्शन और आडम्बर के वातावरण में वस्तु का महत्त्व उपेक्षणीय और गौण हो जाता है, बचता है केवल शिल्प। हमारे पारम्परिक समाज में साथ-साथ रहते हुए जो लोग पूरा जीवन बिता देते थे, उन्हें कभी 'आई लव यू' कहते नहीं सुना गया। लेकिन अमरीकी जीवन-शैली में दिन भर 'आई लव यू-आई मिस यू' की माला जपनेवाले एक जीवन में पाँच-सात जोड़े बदल लेते हैं। वस्तु और अभिव्यक्ति के बीच काफी पेचीदा सम्बन्ध है। प्रदर्शन अक्सर भावहीनता का परिणाम होता है। रीतिवाद में भी 'हाव-भाव' होता था; बाज़ारवाद में 'हाव' रह गया है, 'भाव' केवल मोलभाव की चीत बन गया है। पहले भी शिल्प और अनुभूति के परस्पर सम्बन्ध को मानने में उतनी समस्या नहीं थी, जितनी शिल्प के उपकरणों को समाज सापेक्ष मानने में थी। चरित्र, भाषा, मिथक, भंगिमा शिल्प के जितने उपकरण हैं, वे रचनाकार के अनुभव का हिस्सा है। यानी, उसके जगतज्ञान और ज्ञानजगत का, उसके चिन्तन-मनन, कल्पना-अनुभूति का मिला-जुला परिणाम। कला का सामर्थ्य इन सबकी समृद्धि और परस्परता पर निर्भर है। इस पर अलग से बहस करने की जरूरत शायद नहीं है कि अनुभव के विभिन्न घटक समाज और इतिहास की वर्तमान अवस्था में रचनाकार की स्थिति से जन्म लेते हैं। कला के माध्यम का, उस माध्यम के भीतर शैली का और उस शैली के भीतर रचना के शिल्प का चुनाव अनुभव की प्रकृति पर ही निर्भर है। आदिमानव के गुफाचित्र और धूसर स्वप्निल रंगों की रोमांटिक चित्रकला दोनों दो विलकुल भिन्न दुनिया का परिचय देते हैं। 'विशुद्ध रूप' का उदाहरण प्रतीत होनेवाले गुफाचित्र, जैसा क्लाइव बेल कहते हैं, वास्तव में रूपरचना का परिणाम न होकर सीमित साधनोंवाले आदिम मनुष्य के जीवन संघर्ष से उत्पन्न स्वप्न-चित्र हैं। उनमें प्रकृति पर निर्भर जीवन जीनेवाले मनुष्य की सीमाएँ, उस प्रकृति से उसका संघर्ष, उस पर प्रकृति का आधिपत्य और प्रकृति को अधीन बनाने की उसकी काल्पनिक प्रक्रियाएँ बड़े सजीव रूप में अंकित हैं। परवर्ती मनुष्य आदिम अनुभव के उन रूपों का उपयोग एक स्मृति के तौर पर जरूर करता है लेकिन वह उन अनुभवों का भोक्ता नहीं है इसलिए वैसे रूपों को खुद जन्म नहीं दे सकता। उनसे अलग, रोमांटिक युग की चित्रकला एक गम्भीर भावात्मक वायुमंडल बनाती है, जिसमें यथार्थ जीवन कुछ कोहरे में रहता है, उस पर कल्पना का रंग दिखता है। भव्य रोमांटिक चित्रों से पिकासो के चित्रों की तुलना की जाय तो केवल 'शैली' का नहीं, उसमें निहित अनुभव-वस्तु का फर्क भी स्पष्ट होगा। इससे पता चलता है कि शिल्प का उत्स ही सामाजिक-ऐतिहासिक नहीं होता, उसका प्रभाव भी ऐतिहासिक और भावात्मक होता है। इससे अलग सौन्दर्यात्मक प्रभाव कोई रहस्यमय वस्तु नहीं है। यों भी, बाजारवाद एक तरफ सारी पवित्रता, रहस्यमयता को नफा-नुकसान के तराजू में रखकर बिकाऊ माल बना देता है और दूसरी तरफ भय, आशंका को नये रहस्यवाद और चमत्कारवाद में बदलकर अनिश्चय का मनोविज्ञान उत्पन्न करता है। प्रगतिशील साहित्य के बाद समकालीन स्त्री-साहित्य, विशेषतः दलित साहित्य ने शिल्प और सौन्दर्य के प्रचलित मानदंडों पर बहस खड़ी की है। उसका शिल्प पूर्ववर्ती लेखन से अलग है।
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