कुछ लिखनेके पहले उन श्रद्धेय महानुभावोंको मैं कदापि नहीं भूल सकता हूँ, जिन्होंने इस ग्रन्थके अनुवादकी आशातीत सफलताके लिए अनेक कष्टोंको सहकर परिश्रम किया है और उपयोगी सलाह देते रहे हैं। यदि उनकी सलाह न होती तो ऐसे क्लिष्ट अन्थका अनुवाद होना प्रायः असम्भव ही था; वे महानुभाव हैं- श्रद्धेय वयोवृद्ध पू० पं० चण्डिप्रसाद शुक्लजी और मान्यवर श्रद्धेय पं० श्रीकृष्ण पन्तजी ।
सिद्धान्तलेशसंग्रहके प्रणेता पण्डित अप्पय्यदीक्षित उन महान् पण्डितोंमें थे, जिनका नाम आज तक विद्वत्समुदायमें बड़े गौरव और श्रद्धासे लिया जाता है, इन्होंने अपनी लेखनीसे ऐसे-ऐसे अनेक अन्थ लिख डाले हैं, जिन्हें देखकर सरस विद्वानोंका मस्तक अपने-आप उनके चरणोंमें झुक जाता है।
इतिहासज्ञोंने ई० १५२० से १५९३ तक इनका जीवनकाल निश्चित किया है। पं० अप्पय्यदीक्षितका जन्म काञ्चीके आस-पास 'अडपप्पल' गाँवमें हुआ था, अभी तक उनके कुछ वंशज उस प्रान्तमें विद्यमान हैं। अप्पय्य-दीक्षितके पितामहका नाम आचार्यदीक्षित था, क्योंकि उन्होंने न्यायरक्षामणि ग्रन्थमै । पितामहका नामग्रहण करके नमस्कार किया है। इनका वक्षःस्थलाचार्य मी दूसरा * नाम था। ये अपने सायके प्रौढ़ विद्वान् और दानी थे। उन्होंने बड़े-बड़े अनेक यज्ञ किये थे ।
अप्यय्यदीक्षित के पिताका नाम 'रङ्गराजाध्वरी' था। ये मी अनेक शास्त्रोंमें अप्रतिम पंण्डित थे । अप्पय्यदीक्षितने इन्हींसे सब शास्त्र पढ़े थे, इस विषयका स्वयं दीक्षितजीने ही अनेक स्थानोंमें स्पष्टीकरण किया है । ।
अनेक प्रमाणोंसे दीक्षितजीका नाम 'अप्प' दीक्षित ही मालूम होता है, परन्तु आन्ध्र, कर्णाटक आदि देशोंकी भाषासरणिसे इनके 'अप्पय या अप्पय्य' ऐसे भिन्न नाम मी व्यवहारमें प्रचलित हैं। ये विजयनगर के अधीश्वर चिन्न बोंम्म, नरसिंहदेव और वेंकटपतिरावके समकालिक थे, इसमें अनेक प्रमाण मिलते हैं। सिद्धान्तकौमुदीके विख्यात रचयिता भट्टोजीदीक्षितने भीं सिद्धान्त-कौमुदीकी रचनाके बाद दक्षिणमें जाकर अप्पय दीक्षितजीसे पढ़ा था, उसके बाद उन्होंने तत्त्वकौस्तुभनामका अन्थ लिखा था, जिसमें अपने गुरु अप्पयदीक्षितको ही प्रणाम किया है।
अप्पयदीक्षितने अपने जीवनकालमें सौसे अधिक अन्थ लिखे थे, ऐसा प्रमाण मिलता है, क्योंकि उनके नामके आगे 'चतुरधिकशतप्रबन्धनिर्वाहका- चार्य' अर्थात् एक सौ चार अन्ोंके निर्माण करनेवाले आचार्य, यह उपाधि लगी हुई कहीं-कहीं पर मिलती है।
अस्तु जो कुछ हो, परन्तु इतना तो निर्विवाद सिद्ध होता है कि दीक्षित-जीका सब शास्त्रोंमें अप्रतिहत पाण्डित्य और उनकी प्रतिपादनशैली विलक्षण ही थी। ये परम आस्तिक थे। इनका गोत्र भारद्वाज था। ये ७२ वर्षकी दीर्घ आयु तक जीवित रहे। शायद इतनी बड़ी आयुवाले पण्डित संसारमै अल्प ही हुए हैं।
इतिहासप्रेमियोंके लिए इतनी ही सामग्री छोड़कर अब अन्य प्रकृतो-पयोगी विचार करते हैं-
सिद्धान्तलेशसंङ्गह वेदान्तदर्शनका एक बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है, क्योंकि इसके यथावत् अध्ययन करनेपर अद्वैतवेदान्तशास्त्रका ऐसा कोई मी मत अज्ञात नहीं रह जाता है, जो इसमें न आया हो। इस अन्थमें अन्धकारने जिन-जिन मतोंका सङ्ग्रह किया है, उनका आगे जाकर दिग्दर्शन करायेंगे । इसके पहले यह बतलानेकी चेष्टा करते हैं कि दर्शनशब्दका क्या अर्थ है, वे कितने हैं, और उनकी क्या आवश्यकता है।
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