डॉ. उमा निलोक मानवीय भावनाओं की कुशल चितेरी हैं। कविता हो या कहानी या फिर पटकथा या गीत, वे किसी कोमल मनोभाव को पकड़ती हैं और अपनी दक्ष लेखनी द्वारा उसे एक मुकम्मल रचना में तब्दील कर देती हैं - एक ऐसी रचना, जो दिल को छू लेती है और सोचने पर विवश कर देती है। इस संग्रह में संकलित उनकी कहानियाँ इसी तरह की मर्मस्पर्शी कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ पढ़कर पाठकों को लगता है कि इनके पात्र यहीं कहीं ईर्द-गिर्द घूमते नज़र आते हैं। हरेक कहानी सत्य घटना पर आधारित प्रतीत होती है। इन्हीं विशेषता के कारण लेखिका की यह कृति काफी चर्चित रही है।
डॉ. उमा त्रिलोक बहुमुखी प्रतिभा की धनी रचनाकार हैं। वे कवि भी हैं, कहानीकार भी चितकार भी हैं और संगीत व कथक नृत्य में प्रशिक्षित भी। आकाशवाणी व टेलीविज़न पर निरंतर प्रसारित होती रहने वाली उमा की 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें 5 कविता-संग्रह हैं जिनमें से कुछ 5 भारतीय और 2 विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। शिक्षा-प्रबंधन में डॉक्टरेट उमा लंबे अरसे तक एक पोस्ट ग्रेजुएट यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्राचार्य रह चुकी हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों व गोष्ठियों में शोध-पत्र प्रस्तुत कर चुकी हैं और इस समय भी नारी-उत्थान के विषयों से संबद्ध यूनाइटेड नेशंस के साउथ-ईस्ट एशिया शोध संस्थान द्वारा आयोजित शोध कार्य में संलग्न हैं।
कहानी की बदकिस्मती है कि पढ़ी मनोरंजन के लिए जाती है और आलोचित शिल्प के आधार पर होती है। मनोरंजन उसकी सफलता और शिल्प उसकी सार्थकता है। उमा जी की कहानियों में मनोरंजन के लिए रूमानियत है तो आलोचक के लिए रूहानियत की सार्थकता है।
उमा जी को मैं उनकी किताब 'अमृता इमरोज़' के मार्फत मिला था - उस किताब में मैंने रूमानियत और रूहानियत को एक साथ परिभाषित होते पढ़ा था, जिसका ज़िक्र मैं अपने लोकसभा चैनल के साक्षात्कार में भी कर चुका हूँ।
उनकी कहानियाँ 'मेरे-तेरे और उसकी ज़िन्दगी की तस्वीरों से भरी रहती हैं। उनके किरदार दिमाग़ की दहलीज़ से दबे पाँव कब दिल में उतर जाते हैं पता ही नहीं चलता। मंज़रकशी भी लाजवाब होती है और भावनाओं का उछाल और किनारा ढूँढती लहरें कभी पाठक को सपनों की दुनिया में और कभी यथार्थ के इतना क़रीव ले आती हैं कि दिल दहल जाता है।
मानवीय सम्वेदना को और रिश्तों के वजूद को कहानी की कैद में लाकर अतीत के घरातल पर दिए गए ट्रीटमैन्ट से पाठक कहानी पढ़ता- पढ़ता कहानी जीने लगता है। ""तारा... तुम?"" तारा उत्तम सिंह की महज़ हाज़िरी से ही कहानी वजूद में आती है तारा उत्तम सिंह की खामोशी के नीचे गहरे उदास गलियारों में ब्रिजेश आज भी मौजूद है - यह है उमा जी का रूहानियत का 'टच' देने का अपना अन्दाज़ ।
खुशियों भरे रिश्तों को हम रेशम से बुनते हैं और फिर तार-तार होते देखते हैं। लोहे का ट्रंक अरुणा को कबाड़ लग रहा है। जबकि वही ट्रंक ब्रिजेश के लिए संकु का सबब है। इसमें दफन है ब्रिजेश का अतीत। अरुणा अनभिज्ञ है इस बात से कि उसने जितना भी ब्रिजेश को पाया है तो केवल इस ट्रंक के मार्फत ही पाया है।
कहानी का कहानीपन तभी उजागर होता है अगर पाठक अन्त तक कहानी से जुड़ा रहे जो उमा जी की कहानियों में अमूमन पाया गया है। जैसे कि 'तारा-तुम' में बेटे आलोक का अफेयर अरुणा की नापसन्द और ब्रिजेश के बेटे के हक़ में वकालत और आलोक के भविष्य का फैसला पाठकों के ऊपर छोड़ दिया !
'उसका सच' प्रतिभा की उलझन और आई.सी.यू. का दृश्य - वक्ते रुखसत - एक सच के बोझ को साथ न ले जाने की कशमकश - कहूँ या न कहूँ- अशोक के भ्रम और सौरभ के वजूद में दरार न आ जाए - आहत हुई पर बाँझ होने का कलंक न लगा कड़वाहट और अपनी असुरक्षा से वचती रही लेकिन अब बोझ कि सौरभ किसका बीज अंश है - बता देना चाहती है दुविधा में है क्या बताए कि सौरभ किसका बेटा है - इलाज, देखभाल डॉक्टरों और नसों के सम्वाद-लेकिन प्रतिभा के ज़हन का अपराध-बोध बाहर आने के लिए बेताब है - लेकिन यह तो प्रतिभा को भी पता नहीं कि उसका वेग 'उसका' नहीं, तो फिर किसका है। किस पिशाच का है? किस वहशी का है? जिसका वेग है शायद उसको भी मालूम न होगा, क्योंकि सौरभ एक गैंगरेप का नतीजा था।
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