शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानमाचरेत् ।
लक्षं विहाय दातव्यं कोटि त्यक्त्वा हरिं भजेत् ।।
अर्थात् सौ काम छोड़कर भोजन करना चाहिए, हजार काम छोड़कर स्नान करना चाहिए, लाख काम छोड़कर दान करना चाहिए और करोड़ काम छोड़कर भगवान् का स्मरण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि करोड़ काम बिगड़ते हों तो बिगड़ने दो, पर भगवान् का स्मरण-ध्यान-चिन्तन-मनन नहीं छोड़ना चाहिए। अतः भगवान् का स्मरण करना सबसे मुख्य रहा। विचार करो क्या आपने करोड़ काम छोड़कर भगवान् का स्मरण किया है? क्या अपने आपको ध्रुव, प्रह्लाद, नरसी, मीरा, महाराज अम्बरीष जैसा बना पाये हो? नहीं न, तो बनने-बनाने का प्रयास करो, यही मानव जीवन की सार्थकता है।
भाग्य उदय जन्मों का होता, तब होता सत्संग महान। गरल सुधा बनकर कर देता जीवन को अमरत्व प्रदान ।। वक्ता श्रोता पा जाते हैं दर्शन करके पद निर्वान। तरना चाहो भव सिन्धु से सुनो भागवत भक्ति ज्ञान।।
श्रीमद्भागवत महापुराण में मानव जीवन के कल्याणकारी मार्ग का ही दर्शन है। मानव जीवन सहज में प्राप्त नहीं होता। मानव जीवन तो जब पूर्ण पूर्णेश्वर श्रीहरि की कृपा प्राप्त होती है तब या 'जन्मान्तरे भवेत् पुण्यं' जन्म-जन्मान्तर के पुण्यों का उदय होता है, तभी प्राप्त होता है। कहा भी है- "बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रंथन सब गावा" सम्पूर्ण चराचर योनियों में मानव शरीर से उत्तम कोई योनि नहीं-'नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तैही।।' इस मानव योनि को तो प्राप्त करने के लिए देवता भी लालायित रहते हैं कि हमें मानव जन्म मिले। इसीलिए देवताओं ने 'श्रीमद्भागवत महापुराण' में मानव शरीर का अति सुन्दर वर्णन गाया है-
अहो अमीषां किमकारि शोभन, प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः । वैर्जन्म लब्धं नृषु भारता जिरे, मुकुन्दसेवौपयिक स्पृहा हि नः ।।
'अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है। उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्री हरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्य के लिए तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं। तो यह मानव जीवन भोगों व काम सुख के लिए नहीं, योग तपस्या, साधना व भगवद्भक्ति के लिए है। आपका शुभाशुभ कर्म ही लौकिक व अलौकिक आनन्दों का दाता है। कहा भी है-
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते। सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ।।
प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता है और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण मंगलों का आश्रय व इहलौकिक-पारलौकिक भोगों की प्राप्ति श्रीकृष्ण चरणारविन्दों में ही है- "श्रीकृष्ण कहने का मजा जिसकी जुवाँ पर आ गया। वह धन्य जीवन हो गया चारों पदारथ पा गया।।" 'सुखी मीन जे नीर अगाधा, जिमि हरि सरन न एकउ बाधा।'
जिस प्रकार एक मत्स्य अगाध जल में परम सुख को प्राप्त करता है, उसी प्रकार यह मानव भी श्रीकृष्ण चरणों का अवलम्बन लेकर व्रजगोपियों, व्रजवासियों की तरह मानव जीवन के परम लक्ष्य श्रीकृष्ण साक्षात्कार का लाभ प्राप्त कर लेता है। मानव जीवन भोग के लिए नहीं, यह तो योग-तपस्या-साधना-श्रीकृष्ण भक्ति के लिए ही है। मानव हर क्षण शान्ति व आनन्द की खोज में भटक रहा है, पर शान्ति व आनन्द से मिलन नहीं होता। हो भी कैसे, क्योंकि अभी तक शान्ति व आनन्द के सगुण स्वरूप परमात्मा श्रीकृष्ण से सम्बन्ध ही नहीं बन पाया है? अतः शान्ति व आनन्द चाहते हो तो गोविन्द से नाता जोड़ लो। आपका सम्बन्ध श्यामसुन्दर से हो जावे, आपका रमण वासुदेव में हो, आप भागवत के उस रहस्य को समझें, जिस रहस्य को महाराज परीक्षित्, देवर्षि नारद, श्रीशुकदेव बाबा, ब्रह्माजी, वेद-
व्यासजी आदि ने जाना है। भागवत के बारे में तो कहा है-
श्लोकार्द्ध श्लोकपादं वा नित्यं भागवतं पठेत् । यः पुमान् सोऽपि संसारान्मुच्यते किमुताखिलात् ।।
आधा श्लोक या चौथाई श्लोक का भी नित्य जो मनुष्य पाठ करता है, उसकी भी संसार से मुक्ति हो जाती है; फिर सम्पूर्ण पाठ करने वाले की तो बात ही क्या है।
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रया। संयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
अर्थात् समस्त संग्रहों का अन्त विनाश है, लौकिक उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोगों का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। अतः संसार की नश्वरता को जानकर, मरण से पूर्व ही जीवन के सर्वोच्च साधन "श्रीकृष्ण प्राप्ति का साधन करो, श्रीकृष्ण में खो जाओ।" यह तभी सम्भव है, जब जीवन में भागवत धर्म का प्रवेश हो।
'यह भागवत धर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानों से सुनने, वाणी से उच्चारण करने, चित्त से स्मरण करने, हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करने से ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है-चाहे वह भगवान् का एवं सारे संसार का बोही ही क्यों न हो।' अतः धरा पर मानव का जन्म लेने वाले एवं मृत्यु का क्षण (काल) निकट आने वाले के लिए श्रीमद्भागवत का श्रवण-पठन-सेवन ही सर्वोपरि कल्याण का मार्ग है।
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