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श्रीविद्या पूजारत्न (नवरात्र विधान सहित): Srividya Puja Ratna (Including Navaratri Rituals)

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Specifications
Publisher: Pathak Publisher And Distributors
Author Edited By Rajendra Ranjan Chaturvedi
Language: Sanskrit and Hindi
Pages: 280
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 370 gm
Edition: 2025
ISBN: 9789391952990
HBM157
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Book Description
पुस्तक परिचय

"श्रीविद्यापूजारत्न" ग्रन्थ तो है, किंतु ग्रन्थ से पहले वह उपासना की एक परम्परा है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज ने अपने 'तांत्रिकसाहित्य' में श्रीविद्यापूजारत्न के रचयिता के रूप में दो नामों का उल्लेख किया है- सत्यानंद स्वामी और साम्राज्यदीक्षित किन्तु श्रीमत्कामराजदीक्षित द्वारा रचित श्रीमहात्रिपुरसुन्दरीनीराजनम् में गुरुवन्दना के संदर्भ में सत्यानंदस्वामिन् 'तव चरणे नमताम्' तथा आरती के अंत में 'चरणांबुज सम्राजः परिहृत भवखेदे' आया है। इससे प्रकट होता है कि सत्यानंद स्वामी ही साम्राज्यदीक्षित थे। उनके शिष्य थे महान् उपासक कामराजदीक्षित, जिनके माध्यम से यह परम्परा मथुरा में आयी। राजेंद्ररंजन चतुर्वेदी ने इस परंपरा के नवरात्र विधान को हिन्दी में रूपांतरित किया है। वास्तव में तो महासाम्राज्यशालिनी, करुणामृतसागरा राजराजेश्वरी की कृपा के बल से ही ऐसा संभव हुआ है। हृदय में निवास करने वाली वह शक्ति, जो मनुष्य को नयी रचना के लिए प्रवृत्त करती है, आगमशास्त्र में ललिता के नाम से नमस्कृत है। वही सच्चिदानंद महाशिव की सिसृक्षा है। वही कल्पलता और वही कामधेनु है. वही सौंदर्य माधुर्य की निर्झरिणी है और वही आनंद का महासिन्धु है।

मैं तो मानता हूँ कि सिद्धाश्रम भूमि की रज का ही प्रभाव है कि राजेंद्ररंजन में जन्म-जन्मांतर के संस्कार जगे और बचपन से ही श्रीविद्या-उपासना संबंधी प्रकाशन और अध्ययन अनुसंधान में लीन रहने लगा। 'महात्रिपुरसुंदरीनीराजनम्' की प्रूफरीडिंग स्व. वनमालीशास्त्री करते थे और प्रेस से प्रूफ लाने-लेजाने की सेवा राजेंद्र करता था, उस समय इसकी अवस्था दस-गयारह वर्ष की थी। तब से लेकर आज तक श्रीविद्या संबंधी कितने ही प्रकाशनों में लगा रहा और अभी भी श्रीविद्या विश्वविद्या अनुसंधान परियोजना के काम में लगा है। इसकी पुस्तक 'श्रीविद्याकल्पलता' देश देशांतर में पहुँची। बड़े-बड़े मनीषी उपासकों की प्रशंसा और स्नेह पाया। यह सब राजराजेश्वरी की कृपा है।

लेखक परिचय

डा. राजेंद्ररंजन चतुर्वेदी लोकवार्ता और मिथकशास्त्र के अध्येता के रूप में जाने-माने जाते हैं। 1970 में पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से जनपद-आन्दोलन की दीक्षा लेकर वे लोकजीवन के सर्वेक्षण कार्य में जुटे रहे, लोकवार्ता के आन्दोलन से निरन्तर जुड़े रहने के कारण वे देश के शीर्षस्थ लोकवार्ताविदों के संपर्क में आये। आचार्य विद्यानिवासमिश्र की प्रेरणा और निर्देशन में उन्होंने डीलिट के लिये लोकवार्ता और परिवेशविज्ञान पर अनुसंधान किया! वत्सलनिधि ट्रस्ट द्वारा आयोजित लेखक-शिविर में आप वरेण्यसाहित्यकार श्री सच्चिदानन्द वात्स्यायन अज्ञेय के सांनिध्य में रहे! उनके शोधपत्र हिन्दी की बड़ी से बड़ी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, नवभारतटाइम्स के एकदा स्तंभ के लिये उन्होंने 90 कहानियां लिखी थीं, आकाशवाणी पर वे कई सालों तक कार्यक्रम-परामर्श समिति और राष्ट्रीय पुरस्कारों की जूरी के सदस्य रहे।

श्री चतुर्वेदी 1993 में इन्दिरागांधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र से जुड़ गये, उन्होंने आचार्या कपिला वात्स्यायन की निरन्तर प्रेरणा से संपूर्णता के सिद्धान्त का अध्ययन किया और इन्दिरागांधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र की उस मौलिक अनुसंधान-पद्धति को समझा, जिसमें प्रकृति, जीवन और संस्कृति अविच्छिन्न हैं! उन्होंने जनपद-संपदा के अन्तर्गत लोकपरंपरा संबंधी पहली अनुसंधान परियोजना : धरती और बीजः पूरी की। कलाकोश डिवीजन के अन्तर्गत आपने वृन्दावन के उपासकों के रसदेश पर एक बड़ी शोध-परियोजना पूरी की है, जो अब प्रकाशित हो चुकी है! इस समय वे जनपद-संपदा के अन्तर्गत भारतीय लोकसंस्कृति तथा लोक की अवधारणा पर कार्य कर रहे हैं!

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