किसी अंचल-विशेष की 'लोक-चित्र-शैली' का तात्पर्य उस चित्र परम्परा से होता है, जो उस अंचल के सामान्य नर-नारियों द्वारा पर्व, तिथि, त्यौहारों, व्रतों और संस्कारों के अवसर पर समान रूप से प्रयुक्त की जाती है। इन अवसरों पर, उस अंचल में निवास करने वाले नर-नारी, अपनी प्रचलित परम्परा के अनुसार लोकचित्र शैली के उपादानों, उपकरणों, रंगों और साधनों का उपयोग करते हुए घट, पट, पट्ट, पत्रों, भित्तियों और भूमि आदि पर तत्सम्बन्धी-चित्र बनाते हुए उन्हें प्रदर्शित करते या पूजते हैं।
बुन्देलखण्ड अंचल की भी अपनी एक निजी लोक-चित्र परम्परा है जो थोड़े बहुत अन्तर से समूचे बुन्देलखण्ड प्रान्त में प्रचलित है। चूँकि सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से बुन्देलखण्ड भारत के प्राचीनतम भू-भागों में से एक है, अतः निर्णायक रूप से इस परम्परा के 'मूल-उद्गम' का इतिहास नहीं लिखा जा सकता। दूसरे शब्दों में यह बताना मुश्किल है कि बुन्देलखण्डी नर-नारियों में यह लोक-चित्र परम्परा किस काल या किस घटना से शुरू हुई और इसका प्रवर्त्तक कौन रहा होगा।
दतिया नगर से छह-सात किलोमीटर दूर पूर्व में 'लरायटे के पहाड़' पर दो तीन दुर्गम-गुफाएँ हैं। इनमें से पहाड़ के पूर्वीय-शिखर पर एक प्राकृतिक-गुहा में, ऊपरी चट्टान पर गेरू के रंग की कुछ ज्यामितिक आकृतियाँ बनी हैं जो सैकड़ों वर्षों के मौसमी-दबावों के कारण धुंधली सी पड़ गईं हैं और समझ में नहीं आती। चूँकि पुराविदों द्वारा इनका काल-निर्धारण कम से कम हो बाई लाख वर्ष पूर्व किया गया है, अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि दी बाई लाख वर्ष पूर्व जब यहाँ मनुष्य रहता होगा, तब इसी प्रकार की रेखाकृतियों बनाता रहा होगा। बाद में जब वह मैदान में उतरा होगा तो उसने आधुनिक (या वर्तमान) लोक-चित्रकला का 'बीजारोपण किया होगा।
लेकिन यह एक अनुमान मात्र है। जब तक पूर्णरूप से पर्यात शोध कार्य नहीं कर लिया जाता, तब तक निश्चयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि भारत की 'पौराणिक मान्यता' और आधुनिक पुराविदों की मान्यता में जमीन आसमान का अन्तर है। पौराणिक मान्यता के अनुसार वर्तमान मानव सभ्यता लगभग चार अरब वर्ष पुरानी है, और वर्तमान पुराविद् इतने लम्बे काल को मात्र सृष्टि का आरंभ काल मानते हैं। उनके अनुसार बुन्देलखण्ड में मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव सिर्फ दो ढाई लाख वर्ष पूर्व हुआ था। अतः इस विवाद को तूल देकर हम अपने 'मूल उद्देश्य' से नहीं भटकना चाहते और सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि बुन्देलखण्ड में प्रचलित 'लोकचित्र परम्परा' अपने लोक जीवन के समानान्तर विकसित होकर वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। चूंकि यह परम्परा लोक जीवन के 'पौराणिक और लौकिक धार्मिक विश्वासों से जुड़ी हुई है, अतः इसका इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितने पुराने इसके धार्मिक विश्वास और क्रियाकलाप हैं।'
बुन्देलखण्डी लोक-चित्र शैली के दो रूप देखने को मिलते हैं। पहला रूप सामान्य है जो बुन्देलखण्ड की 'गृहस्थ-नारियों' में प्रचलित है। इस रूप का प्रयोग 'गृहणियाँ' वर्षभर के तिथि-त्यौहारों, पर्वी, व्रतों, उपवासों, बोलमाँ-बदमाँ, कुलदेवता के पूजन, धार्मिक संस्कारों और देवी-देवताओं की पूजा आदि में करती हैं। इसी के अन्तर्गत 'दतिया का साँझी महोत्सव का चित्रांकन' भी परिगणित है जो केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। यह महोत्सव, मालवा-निमाड़ आदि के साँझी लेखन से भिन्न है।
लोकचित्र शैली का दूसरा रूप 'व्यावसायिक' है जिसकी आनुवंशिक परम्परा वर्दिया कुम्हारों, बुलकियों, कमनीगरों, कमंगलों तथा पिछड़ी जाति के 'चतेऊरियों' में प्रचलित है। मिट्टी के बर्तनों पर 'लिखना' बनाना, पूजा के लिए मिट्टी की कच्ची तथा विसर्जनीय प्रतिमाएँ बनाना, विवाह के अवसर पर 'चतेउर' लिखना, पूजा के 'पना' बनाना, विवाह के लिए 'रगवारी', वेसन की गौर, 'बाबाजू', सुअटा की गौर, सावनी आदि की मटकियाँ बनाना और बुन्देली स्थापत्य के अनुसार 'द्वार शिल्प' बनाना-इस व्यावसायिक परम्परा का आनुवंशिक कार्य है।
इन दोनों चित्र शैलियों में उद्देश्य की समानता होते हुए भी पर्याप्त भिन्नता है। फिरभी इन दोनों में जिन 'चित्र-भेंदों' या चित्र-प्रकारों का प्रचलन पाया जाता है, उनमें से अधिकांश का समर्थन हमारे प्राचीन शास्त्र ग्रन्थ करते है। इन दोनों ही शैलियों में पट चित्र, पट्ट चित्र, भित्ति चित्र, घट चित्र, पर्ण चित्र, भूमि चित्र, वेदिका चित्र, जल चित्र, प्रतीक चित्र एवं, प्रतिमा-चित्र-इन दशों चित्र-भेंदों का प्रचलन पाया जाता है। ये दश-चित्र भेद उन माध्यमों पर आधारित है जिन्हें हम 'चित्राधार' कहते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ये चित्र-भेद हूबहू बिलकुल वैसे ही हैं जिनका उल्लेख प्राचीन-चित्र शास्त्रों-विष्णु धर्मोत्तर के चित्रसूत्र, नग्नजित के चित्र लक्षण, भोजदेव के समरांगण सूत्रधार, मानसोल्लास, अपराजितपृच्छा, अभिलाषित चिन्तामणि, शिल्परत्न, रूपमण्डन, हयशीर्ष, पंच-रात्र इत्यादि ग्रन्थों में किया गया है।
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