क्या लिखा हुआ लिखने वाले से बड़ा होता है? कला-साहित्य-संस्कृति की बहसों में ये बात अक्सर होती है। इसे परखने के लिए ही अपने नाम की जगह मैंने एक तखल्लुस 'आस्तीन का अजगर' के साथ ब्लॉग 'अखाड़े का उदास मुगदर' शुरू किया था। कुछ ऐसे लोगों ने उसे पसंद किया जो साहित्यिक हस्तियों से जुड़े मुबाहिसों में उलझे और अटके नहीं थे।
हिंदी की ब्लॉग दुनिया में कहीं-कहीं ज़िक्र हुआ और कई अखबारों में जगह मिली।
मुझे इस बात की बेइंतहा खुशी और फ़ख है कि ये कहानियां लोगों को सिर्फ इसलिए पसंद नहीं आई कि मेरा पदनाम फलां और उपनाम फलां है या मेरे विचारों का एक ख़ास रंग है। उन कहानियों की अपनी जिंदगी और यात्रा रही, लिखे जाने के पहले और पढ़े जाने के बाद भी। लिखने वाले से आजाद और अलग।
हालांकि मुझे अभी भी यह यक़ीन नहीं कि ये सचमुच कहानियां हैं, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर कहीं ख़त्म नहीं होतीं। और वे आगे पाठक के मानस में भी चलती रह सकती हैं, और वे उसे जहां चाहे, उधर ले जा सकते हैं। कई तो सिर्फ एक वाक्य हैं, जिनके न आगे का पता है, न पीछे का। चिंदियों और कतरनों की तरह।
शायद पाठक उन वाक्यों को अपने अनुभव और कल्पना से लिख सकता है, ठीक उसी तरह जैसे अपनी गतिशीलता में लिखा गया एक वाक्य भी आपको पन्ने की तरह पलटकर पढ़ता है। हर गतिशील और जिंदा वाक्य में एक कहानी होती है। जिन्हें अपने अंत की बहुत परवाह नहीं होती।
खुशी है कि एक बेपरवाही का अंत कुछ दोस्तों के कहे इस संग्रह के रूप में हो रहा है।
जिन लोगों की पुचकार और लताड़ के बिना ये मुमकिन नहीं था, उनमें विनोद वर्मा, नासिरूद्दीन हैदर खान, राजीव सिंह परिहार के नाम चश्मदीद गवाह के हलफनामे में पढ़े जा सकते हैं।
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