'तार सप्तक' की भूमिका प्रस्तुत करते समय इन पंक्तियों के लेखक में जो उत्साह था, उस में संवेदना की तीव्रता के साथ निस्सन्देह अनुभव-हीनता का साहस भी रहा होगा।
संवेदना की तीव्रता अब कम हो गयी है, ऐसा हम नहीं मानना चाहते; किन्तु इस में सन्देह नहीं कि अनुभव ने नये कवियों का संकलन प्रस्तुत करते समय दुविधा में पड़ना सिखा दिया है। यह नहीं कि 'तीसरा सप्तक' के कवियों की संगृहीत रचनाओं के बारे में हम उस से कम आश्वस्त, या उनकी सम्भावनाओं के बारे में कम आशामय हैं जितना उस, समय 'तार सप्तक' के कवियों के बारे में थे। बल्कि एक सीमा तक इस से उलटा हीं सच होगा। हम समझते हैं कि 'तीसरा सप्तक' के कवि अपने-अपने विकास-क्रम में अधिक परिपक्व और मँजे हुए रूप में ही पाठकों के सम्मुख आ रहे हैं। भविष्य में इन में से कौन कितना और आगे बढ़ेगा, यह या तो ज्योतिषियों का क्षेत्र है या स्वयं उन के अध्यवसाय का। 'तीसरा सप्तक' के कवि भी एक ही मंजिल तक पहुँचे हों, या एक ही दिशा में चले हों, या अपनी अलग दिशा में भी एक-सी गति से चले हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। निस्सन्देह 'तार सप्तक' में भी यह स्पष्ट कर दिया गया था कि संगृहीत कवि सब अपनी-अपनी अलग राह का अन्वेषण कर रहे हैं।
दुविधा और संकोच का कारण दूसरा है। 'तार सप्तक' के कवि अपनी रचना के ही प्रारम्भिक युग में नहीं, एक प्रवृत्ति की प्रारम्भिक अवस्था में सामने आये थे। पाठक के सम्मुख उन के कृतित्व की माप-खोज करने के लिए बने बनाये मापदण्ड नहीं थे। उनकी तुलना भी पूर्ववर्ती या समवर्ती दिग्गजों से नहीं की जा सकती थी क्योंकि तुलना के कोई आधार ही अभी नहीं बने थे। इसलिए जहाँ उन की स्थिति झारखण्ड की झाड़ी पर प्रत्याशित फूले हुए वन-कुसुम की-सी अकेली थी, वहाँ उन्हें यह भी सुविधा थी कि उनके यत्किंचित् अवदान की माप झारखण्ड के ही सन्दर्भ में हो सकती थी दूर के उद्यानों से कोई प्रयोजन नहीं था।
अब वह परिस्थिति नहीं है। 'द्विवेदी काल' के श्री मैथिलीशरण गुप्त या छायावादी युग के श्री 'निराला' जैसा कोई शलाका-पुरुष नयी कविता ने नहीं दिया है (न उसे अभी इतना समय ही मिला है); फिर भी तुलना के लिए और नहीं तो पहले दोनों सप्तकों के कवि तो हैं ही; और परम्पराओं की कुछ लीकें भी बन गयी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में 'नयी कविता' ग्राह्य हो गयी है, सम्पादक-गण (चाहे आतंकित हो कर ही !) उसे अधिकाधिक छापने लगे हैं, और उस की अपनी भी अनेक पत्रिकाएँ और संकलन-पुस्तिकाएँ निकलने लगी हैं, उधर उस की आलोचना भी छपने लगी है, और धुरन्धर आलोचकों ने उस के अस्तित्व की चर्चा करना गवारा किया है-चाहे अधिकतर भर्त्सना का निमित्त बना कर ही।
और कृतिकारों का अनुधावन करने वाली, स्वल्प पूँजी बाली 'प्रतिभाएँ' भी अनेक हो गयी हैं।
कहना न होगा कि इन सब कारणों से 'नयी कविता' का अपने पाठक के और स्वयं अपने प्रति उत्तरदायित्व बढ़ गया है। यह मान कर भी कि शास्त्रीय आलोचकों से उसे सहानुभूतिपूर्ण तो क्या, पूर्वग्रह-रहित अध्ययन भी नहीं मिला है, यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं आलोचक तटस्थ और निर्मम भाव से उसका परीक्षण करें। दूसरे शब्दों में परिस्थिति की माँग यह है कि कविगण स्वयं एक-दूसरे के आलोचक बन कर सामने आयें।
पूर्वग्रह से मुक्त होना हर समय कठिन है। फिर अपने ही समय की उस की प्रवृत्ति के विषय में, जिस से आलोचक स्वयं सम्बद्ध है, तटस्थ होना और भी कठिन है। फिर जब समीक्षक एक ओर यह भी अनुभव करे कि वह प्रवृत्ति विरोधी वातावरण से घिरी हुई है और सहानुभूति ही नहीं, समर्थन और वकालत भी माँगती है, तब उस की कठिनाई की कल्पना की जा सकती है।
लेकिन फिर भी नयी कविता अगर इस काल की प्रतिनिधि और उत्तरदायी रचना-प्रवृत्ति है, और समकालीन वास्तविकता को ठीक-ठीक प्रतिविम्बित करना चाहती है, तो उसे स्वयं आगे बढ़कर यह त्रिगुण दायित्व ओढ़ लेना होगा। कृतिकार के रूप में नये कवि को साथ-साथ वकील और जज दोनों होना होगा (और सम्पादक होने पर साथ-साथ अभियोक्ता भी !)।
'तीसरा सप्तक' के सम्पादन की कठिनाई के मूल में यही परिस्थिति है। 'तार सप्तक' एक नयी प्रवृत्ति का पैरवीकार माँगता था, इस से अधिक विशेष कुछ नहीं। 'तीसरा सप्तक' तक पहुँचते न पहुँचते प्रवृत्ति की पैरवी अनावश्यक हो गयी है, और कवियों की पैरवी का तो सवाल ही क्या है ? इस बात का अधिक महत्त्व हो गया है कि संकलित रचनाओं का मूल्यांकन सम्पादक स्वयं न भी करे तो कम-से-कम पाठक की इस में सहायता अवश्य करे।
नयी कविता की प्रयोगशीलता का पहला आयाम भाषा से सम्बन्ध रखता है। निस्सन्देह जिसे अब 'नयी कविता' की संज्ञा दी जाती है, वह भाषा-सन्बन्धी प्रयोगशीलता को बाद की सीमा तक नहीं ले गयी है बल्कि ऐसा करने को अनुचित भी मानती रही है। यह मार्ग 'प्रपद्यवादी' ने अपनाया जिस ने घोषणा की कि 'चीज़ों का एक मात्र सही नाम होता है' और वह (प्रपद्यवादी कवि) 'प्रयुक्त प्रत्येक शब्द और छन्द का स्वयं निर्माता है।'
'नयी कविता' के कवि को इतना मानने में कोई कठिनाई न होती कि कोई शब्द किसी दूसरे शब्द का सम्पूर्ण पर्याय नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ के अलावा अलग-अलग लक्षणाएँ और व्यंजनाएँ होती हैं-अलग संस्कार और ध्वनियाँ। किन्तु 'प्रत्येक वस्तु का अपना एक नाम होता है,' इस कथन को उस सीमा तक ले जाया जा सकता है जहाँ कि भाषा का एक नया रहस्यवाद जन्म ले ले और अल्लाह के निन्यानवे नामों से परे उस के अनिर्वचनीय सौवें नाम की तरह हम प्रत्येक वस्तु के सौवें नाम की खोज में डूब जावें। भाषा-सम्बन्धी यह निन्यानवे का फेर प्रेषणीयता का और इस लिए भाषा का ही बहुत बड़ा शत्रु हो सकता है। शब्द अपने-आप में सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं हैं; किसी शब्द का कोई स्वयम्भूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिस में अर्थ की प्रतिपत्ति की गयी है। 'एकमात्र उपयुक्त शब्द' की खोज करते समय हमें शब्दों की यह तदर्थता नहीं भूलनी होगी: वह 'एकमात्र' इसी अर्थ में है कि हमने (प्रेषण को स्पष्ट, सम्यक् और निर्भम बनाने के लिए) नियत कर दिया है कि शब्द रूपी अमुक एक संकेत का एकमात्र अभिप्रेत क्या होगा।
यहाँ यह मान लें कि शब्द के प्रति यह नयी, और कह लीजिए मानववादी दृष्टि है; क्योंकि जो व्यक्ति शब्द का व्यवहार कर के शब्द से यह प्रार्थना कर सकता था कि 'अनजाने उस में बसे देवता के प्रति कोई अपराध हो गया हो तो देवता क्षमा करें' वह इस निरूपण को स्वीकार नहीं कर सकता- नहीं मान सकता कि शब्द में बसने वाला देवता कोई दूसरा नहीं है, स्वयं मानव ही है जिसने उस का अर्थ निश्चित किया है। यह ठीक है कि शब्द को जो संस्कार इतिहास की गति में मिल गये हैं उन्हें 'मानव के दिये हुए' कहना इस अर्थ में सही नहीं है कि उन में मानव का संकल्प नहीं था फिर भी वे मानव-द्वारा व्यवहार के प्रसंग में ही शब्द को मिले हैं और मानव से अलग अस्तित्व नहीं रख या पा सकते थे।
किन्तु 'एकमात्र सही नाम' वाली स्थापना को इस तरह मर्यादित करने का यह अर्थ नहीं है कि किसी भी शब्द का सर्वत्र, सर्वदा सभी के द्वारा ठीक एक ही रूप में व्यवहार होता है बल्कि यह तो तभी होता जबकि वास्तव में 'एक चीज का एक ही नाम' होता और एक काम की एक चीज़ होती ! 'प्रत्येक शब्द का प्रत्येक समर्थ उपयोक्ता उसे नया संस्कार देता है।' इसी के द्वारा पुराना शब्द नया होता है- यही उस का कल्प है। इसी प्रकार शब्द 'वैयक्तिक प्रयोग' भी होता है और प्रेषण का माध्यम भी बना रहता है, दुरूह भी होता है और बोधगम्य भी, पुराना परिचित भी रहता है और स्फूर्तिप्रद अप्रत्याशित भी।
नये कवि की उपलब्धि और देन की कसौटी इसी आधार पर होनी चाहिए।
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