संशोधन किसी भी देश के लिए आवश्यक है, खास करके जब हमें किसी भी दिशा में आगे बढ़ना है, किसी भी विषय पर पूर्णता लानी है तो खोज करनी पड़ेगी।
समुद्र के किनारे पर बैठकर मोती प्राप्त नहीं होते, उसके लिए सागर के अन्तराल में डुबकी लगानी पड़ती है। विविध विषयों को ध्यान में रखकर एक संशोधनात्मक पुस्तिका तैयार करने का प्रयत्न किया गया है।
त्रयोदश विचार : नामक पुस्तक का प्रथम अध्याय उस वैदिक वाङ्मय से प्रारम्भ होती है जहाँ मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी जीव चराचर जगत् की व्यवस्था के लिए भी उस 'परब्रह्म' परमात्मा ने सबको पैदा किया, कहीं-कहीं पर तो वेद के ऋषि वैदिक परम्परा के उन गहन मंत्रों को सुनने चिन्तन, मनन करने के लिए स्वयं पक्षी का रूप भी धारण कर लेते हैं।
उद्भिज, स्वदेज, अंडज, जरायुज की यह सृष्टि बहुत ही आनन्द देने वाली है, सभी प्रातःकाल होते ही अपने-अपने कार्यों में विलीन होते दीखते हैं, मधुमक्खी से चीटी तक, तितलियों से लेकर हाथी और हंस तक स्वयं का रहन-सहन भोजन व्यवस्था स्वयं करने लग जाते हैं। जब इन जीवों के निकट जाकर देखें तो पता चलता है कि मनुष्य की बहुत ही क्रियाओं को ये भली भाँति पहचानते हैं।
सबको रहने के लिए स्थान चाहिए, उत्तुंग भवन हो या साँप का बिल, रहना ही तो है कहाँ कलर करने की जरूरत है, मृतिका ही सर्वोत्तम है, क्योंकि मृत्यु के बाद मृतिका ही अपने में समाविष्ट करती है इस देह को। यों देखा जाय तो मनुष्य ने रहने के लिए उच्च भवनों की कारीगरी की, मगर क्या इससे कम वह चिड़िया है? जो बुनकर अपना घोंसला बनाती है जिसमें कितनी ही वर्षात् क्यों न हो एक बूँद पानी घोंसले के अन्दर नहीं जाता। कहाँ की इन्जिनियरिंग ऐसी होगी जो उस पक्षी को भी फेल कर सके कहीं नहीं। यह विचार दिया उस जगत नियन्ता ने, यह बात इस द्वितीय अध्याय में देखी जा सकती है।
स्मृतिकारों की बहुत सुन्दर सारगर्भित परम्परा तृतीय अध्याय में देखने को मिलती है। जहाँ अनेक वचन, संवाद सत्यता की प्रतिमूर्ति दीखते हैं। विष्णु स्मृति में ब्रह्मरात्री से अहोरात्र तक की चर्चा की गयी है।
चौथे अध्याय में संस्कृत वाङ्मय की चर्चा देखने को मिलती है, जहाँ भारतीयता संसार के सर्वोत्कृष्ट सभ्यताओं में गिनी जाती है। हमारा यह वाङ्मय प्रत्येक क्षेत्र में भरपूर दिखता है इसी कारण महाभारतकार ने लिखा है-
"यन्नभारते तन्नभारते"
काव्य, नाटक, चम्पू, इतिहास, कथायें भरी पड़ी हैं प्रकीर्ण ग्रंथों के भण्डार भरे हैं।
पाँचवे अध्याय में आचार्य शंकर की विशेषता काव्य के तत्त्व, पृथ्वी में आने वाले भूकम्प की चर्चा, आयुर्वेद तथा ज्यौतिषशास्त्र का महत्व उत्तम कोटि का है। यह भी देखने में आया है कि वैदिक काल से वर्तमान समय तक के संस्कृत भाषा से सम्बन्ध रखने वाले तमाम भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने इस भाषा की गहराई में जाकर छिपे हुये रहस्यों को "सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय" के लिए उपयुक्त समझकर इस देववाणी भाषा को कोई आँच नहीं आने दी। इतिहास साक्षी है कि नालंदा विश्वविद्यालयके पुस्तकालय को जब अग्नि के हवाले कर दिया उनकी सोच क्या रही होगी, यह स्वयं ही समझ सकते हैं।
अन्त में यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि देववाणी की उपासना करने तथा 'शब्द' का सतत् चिन्तन करने में लाभ ही होता है हानि नहीं।
सभी को सुख देने का संकल्प भारत की लगभग प्रत्येक भाषा में रचे ग्रंथों के आंतरिक विषयों को देखकर जाना जा सकता है।
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