| Specifications |
| Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur | |
| Author Mahesh Singh | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 231 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 420 gm | |
| Edition: 2024 | |
| ISBN: 9788196728953 | |
| HBM363 |
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भूमण्डलीकरण, संस्कृति और सिनेमा का अंतर्सम्बन्ध बहुत गहरे तक जुड़ा हुआ है। यह तीनों, शुरू से ही एक दूसरे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुतास्सिर करते रहे हैं। भूमण्डलीकरण की तो अवधारणा ही विश्वग्राम और बाजार के उदार होने की है। संस्कृति का सम्बन्ध भी स्थानीयता के स्तर पर सामूहिकता का रहा है। जहाँ तक सिनेमा की बात है तो सिनेमा ने आज से ही नहीं, बल्कि अपने कदीम दौर से ही वैश्विक दृष्टि को लेकर अपनी यात्रा की शुरुआत किया था। इस रूप में हम यह पाते हैं कि यह तीनों क्षेत्र मानव समाज से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। लेकिन इन तीनों क्षेत्रों का जब विश्लेषण किया जाता है तो आश्चर्यजनक तथ्य निकलकर सामने आते हैं। सतही तौर पर सभी मानव कल्याण की बात करते हैं, लेकिन इसमें से संस्कृति को यदि छोड़ दिया जाये तो भूमण्डलीकरण और सिनेमा का सम्बन्ध व्यवसाय से जुड़ जाता है। जिसकी पूरी व्यवस्था पूँजी पर निर्भर करती है और यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि पूँजी का सामाजिक सरोकार कितना होता है। नतीजतन संस्कृति भी भूमण्डलीकरण के प्रभाव से बच नहीं पायी। अब तो इसकी भी खरीद फरोख्त की जा रही है। यह अलग बात है कि आज के इस आभासी संस्कृति से मनुष्य को ज़ेहनी सुकून नहीं मिलता, लेकिन मन के पुरसुकून हो जाने का भ्रम जरुर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भूमण्डलीकरण ने मनुष्य को अपनी मायाजाल में इस हद तक फाँस लिया है कि उसे भ्रम ही शास्वत लगने लगता है। इस भ्रम को शास्वत कर देना ही भूमंडलीकरण का लक्ष्य है, जिसे नव-साम्राज्यवाद की संज्ञा दी जा सकती है।
भूमण्डलीकरण के प्रभाव से भारतीय सिनेमा भी बच नहीं पाया। हालाँकि जिस तरह सूचना और संचार के अन्य क्षेत्रों का निगमीकरण हुआ है उस तरह से भारतीय सिनेमा पर उसका असर नुमाया नहीं हुआ है। यह जरुर है कि कुछ बड़े राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय निगम भारतीय फिल्मों के निर्माण और वितरण में रुचि लेने लगे हैं। इस तरह से इक्कीसवीं सदी के सिनेमा ने जहाँ एक तरफ विषय-वस्तु और तकनीकी के स्तर पर नये-नये आयाम स्थापित किया है, वहीं रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को दरकिनार कर दिया है। हालाँकि यह बात भारत के सभी सिनेमा पर पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में तमिल और मलयालम सिनेमा ने समाज की बुनियादी समस्याओं को लेकर कई अच्छी फिल्में दी हैं। हिंदी सिनेमा जरूर इसकी चपेट में है।
प्रस्तुत किताब इन्हीं मुद्दों को अलग-अलग नजरिये से देखने का प्रयास करते हुए अपनी बात रखती है। जब हम भारतीय सिनेमा की बात करते हैं तो इसका मतलब भारत में बनने वाली सभी भाषाओं की फिल्मों से है, इसलिए हमारी कोशिश रही है कि सभी भाषाओं की फिल्मों से सम्बन्धित लेख शामिल किए जाएँ, काफी हद तक इसमें सफलता भी मिली है। यह बात सच है कि दुनिया में कुछ भी मुकम्मल नहीं होता, तो हम भला कैसे हो सकते थे। हमें इस बात का खेद है कि तेलुगु, कन्नड़ और पूर्वोत्तर के सिनेमा पर कोई लेख शामिल नहीं कर पाए। बावजूद इसके, इस किताब में जो भी लेख शामिल हैं उसके लेखकों ने पूरी मेहनत और ईमानदारी से शोधपरक और तथ्यात्मक रूप से अपनी बात रखने की कोशिश की है। उनके इस प्रयास के लिए तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
जहाँ तक किताब के प्रकाशन की बात है, तो इसकी कोई पूर्व योजना तो नहीं थी, लेकिन परिवर्तन पत्रिका के सिनेमा विशेषांक पर मिली पाठकों की सार्थक प्रतिक्रिया ने इसे मूर्त करने में मदद की। यही कारण है कि इस किताब में शामिल कई लेख उस विशेषांक से लिए गए हैं। दूसरी पहल चिंतन प्रकाशन, कानपुर के श्री कुँवर सिंह खंगार जी की रही है। उन्होंने न सिर्फ सकारात्मक पहल की बल्कि धैर्य के साथ मुझे बार-बार कुम्भकर्णी नींद से जगाया भी। असल में किताब का प्रकाशन वे 2020 में ही करना चाह रहे थे लेकिन मेरी आलसी प्रवृत्ति के कारण 2024 में संभव हो पाया। इसके लिए उनका मैं सदैव आभारी रहूँगा। डॉ. मोबिन जहोरोद्दीन (मोबिन भाई), डॉ. अनूप कुमार और डॉ. शैलेन्द्र कुमार शुक्ल का जो सहयोग है उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, इसके लिए शुक्रिया और आभार जैसे शब्द हल्के पड़ जायेंगे। बाकी गिरिडीह आने के बाद डॉ. बलभद्र जी का सानिध्य इस किताब को मूर्त रूप देने में निरंतर रहा है।
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