सामाजिक चेतना में ही साहित्य जीवित रह सकता है, फल-फूल सकता है और अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता है। साहित्य अपने उद्देश्य में तभी सफल होगा, जब वह आम जन की बातें करे, उनके प्रति समाज को झकझोरे और उनके हितों का संवर्द्धन करे । साहित्य समाज का वह परिधान है, जो जनसाधारण के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने-बाने से बुना जाता है। इसमें विशाल मानव जाति की आवाज सुनाई देती है ।
अंग्रेजी समालोचक मैथ्यू ऑर्नल्ड साहित्य को मानव जीवन की व्याख्या मानते हैं। मानव जीवन से ही साहित्य को शक्ति और ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश, मानव को गति देने की शक्ति के साथ-साथ उसमें संघर्ष और बेचैनी पैदा करने की क्षमता हो। यशस्वी कथाकार मुंशी प्रेमचन्द साहित्य को राजनीति का पिछलग्गू न मानते हुए उसे मानव जीवन के आगे चलने वाली मशाल मानते हैं । उदय प्रकाश प्रेमचन्द की इस मान्यता पर पूर्णरूपेण खरे उतरते हैं ।
'साहित्य समाज का दर्पण है' वास्तव में आज का साहित्य इस वाक्य को पूर्णरूपेण सार्थक कर रहा है। उदय प्रकाश कृत 'मोहन दास' कहानी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिसका कथानक देश में लम्बित पड़े तीन करोड़ अस्सी लाख मुकदमों में से एक मुकदमें पर आधारित है। इस पुस्तक में उदय प्रकाश की इसी कहानी का 'कथ्य और शिल्प' की दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय 'उदय प्रकाश का व्यक्तित्व और सृजन' के अन्तर्गत रचनाकार के जन्म, पारिवारिक परिचय, शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ कथाकार के जीवन संघर्ष का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। अध्याय के द्वितीय खण्ड में रचनाकार के कविता-संग्रह, कहानी-संग्रह, समाचार पत्रों में प्रकाशित लेखों के अतिरिक्त अनूदित कृतियों का तथ्यात्मक परिचय प्रस्तुत किया गया है।
द्वितीय अध्याय 'उदय प्रकाश की कथा-यात्रा' में कथाकार के सन् 1967 ई० से लेकर सन् 2005 ई० तक की कथात्मक यात्रा का संक्षिप्त परिचय देते हुए 'टेपचू', 'तिरिछ' 'दिल्ली की दीवार' और 'मैंगोसिल' का कथ्यगत विश्लेषण किया गया है। उदय प्रकाश की ये कहानियाँ कथ्यात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
पुस्तक के तृतीय अध्याय 'मोहन दास कहानी का कथ्य' के अन्तर्गत कहानी का कथ्यगत मूल्यांकन करते समय समकालीन घटनाओं यथा-महाराष्ट्र और झाँसी के किसानों की दयनीय स्थिति, मुंबई में स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार, बाराबंकी में स्वयंसेवी संस्थाओं की लापरवाही आदि के माध्यम से 'मोहन दास' कहानी को विस्तृत फलक पर दिखाने का प्रयास किया गया है।
पुस्तक के चतुर्थ अध्याय में कहानी का शिल्पगत वैशिष्ट्य विश्लेषित करते समय कथा-संगठन, पात्र संरचना, संवाद-योजना, वातावरण निर्माण प्रक्रिया और भाषा-शैली का समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है।
पंचम अध्याय 'उपसंहार' में सम्पूर्ण अध्ययन और विवेचन से प्राप्त निष्पत्तियों की विवेचना की गयी है। परिशिष्ट में उदय प्रकाश की कहानियों का काल-क्रमानुसार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन, 'मोहन दास' कहानी का अन्य भाषाओं मे अनुवाद, उदय प्रकाश की साहित्यिक सेवा के लिए प्रदान किये गये पुरस्कार / सम्मान (कथाक्रम सम्मान-पत्र, पहल सम्मान-पत्र, वनमाली सम्मान पत्र) के अतिरिक्त ई-मेल से प्राप्त किया गया साक्षात्कार है ।
मानव जीवन-यात्रा पूर्ण करने हेतु कोई न कोई रास्ता अवश्य चुनता है और उन्हीं रास्तों पर पग रखता हुआ वह मंजिल की ओर अग्रसर होता है। प्रायः मौन ही रहने वाले ये पथ पथिक को अपने दुःख-दर्द का आभास तक नहीं होने देते, अपितु उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। पूज्य पिता-पितामह एवं माता श्रीमती मिथिलेश सिंह कुछ ऐसे ही हैं, जिनके सहारे मैं जीवन पथ पर अग्रसर हूँ। इनका अवलम्बन मेरे लिए सदैव संजीवनी है ।
यात्रा करते समय रास्ते में वृक्ष, नदी, तालाब, झरने आदि मिलते हैं, जिनसे पथिक अपनी भूख प्यास और ताप मिटाते हैं। आचार्य चतुष्टय (लखनऊ विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग के प्रो० प्रेमशंकर तिवारी, वरिष्ठ आचार्य प्रो० कैलाश देवी सिंह, प्रो० हरिशंकर मिश्र और प्रो० कालीचरन स्नेही) और अन्य विभागीय गुरूजन उन्हीं वृक्षों, तालाबों, नदियों और झरनों की भाँति हैं जिन्होंने हमारी ज्ञान-पिपासा को शान्त ही नहीं किया अपितु उसे बनाये रहते हुए शोध-प्रबन्ध पूर्ण करने में निरन्तर सहायता प्रदान की। इन सबके प्रति आभार व्यक्त करना कोरी कल्पना ही है। मैं सभी गुरूजनों की अनुकम्पा एवं सत्प्रेरणा के प्रति सतत् श्रद्धानत् हूँ जिनका शुभाशीष ही मेरा सम्बल है।
विशेषतः वरिष्ठ आचार्य प्रो० कैलाश देवी सिंह के बारे में शब्दों के माध्यम से कुछ भी कहना सूर्य को चिराग दिखाना है जिन्होंने अपनी वात्सल्यमयी ममता एवं स्नेहास्प्रेरणा से निरन्तर कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करती रहीं है। आपने सदैव ही अपनी ज्ञान-ज्योति से मेरी अज्ञानता को दूर किया है।
इसी क्रम में मैं गुरूवर प्रो० हरिशंकर मिश्र का स्मरण करते हुए उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का साहस तो नहीं कर सकता अपितु सदैव श्रद्धानत् हूँ जिनकी अनुकम्पा, सप्रेरणा और मार्गदर्शन मेरे विश्वविद्यालयी जीवन में प्रवेश से लेकर आज तक सम्बल बना हुआ है और कर्मक्षेत्र में अग्रसर होने के लिये सदैव प्रोत्साहित करता है ।
मैं प्रो० कालीचरन स्नेही जी का अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने अपनी छत्रछाया एवं ज्ञान-ज्योति प्रकीर्ण कर पुत्रवत् मार्गदर्शन प्रदान किया । श्रद्धेय गुरू का अपनापन और स्नेहिल व्यवहार हमेशा मुझे प्रोत्साहित करता रहा है।
रचनाकार उदय प्रकाश और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कुमकुम प्रकाश का भी आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने अत्यधिक व्यस्त रहते हुए भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार अपने बारे में सूचनाएँ प्रदान की। इनकी छत्रछाया में कई बार रहने का अवसर प्राप्त हुआ जो जीवन के यादगार पलों के रूप में उम्रभर संचित रहेगा। यात्रा में कुछ राहगीर ऐसे मिल जाते हैं जिसके सहयोग से आने वाली विपत्तियों को आसानी से पार किया जा सकता है। अनिल, आलोक और शशांक इस शोध-प्रबन्ध रूपी सफर में ऐसे ही सहयात्री रहे, जो हताशा और निराशा के क्षणों में प्रोत्साहित करते रहे। इनके अतिरिक्त राजेश कुमार, रवि कुमार सिंह, सच्चिदानन्द, रविशंकर, और पंकज कुमार को विशेष रूप से धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने न केवल उदय प्रकाश पर प्राचीन और नवीन सामग्री उपलब्ध करायी, बल्कि रचनाकार की कहानियों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए अध्ययन को नवीन दृष्टि दी।
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