मैं मूल रूप से हिंदी का लेखक हूँ पर मैंने विधि का अध्ययन, नौकरी एवं वकालत अंग्रेजी भाषा में की। शायद जीविका के लिए। मन के इसी मलाल को दूर करने के लिए मैंने भारत के संविधान पर हिंदी में पुस्तक लिखी पर वह पूर्णतः मौलिक नहीं हो पाई, क्योंकि संविधान के अनुच्छेदों का अधिकृत हिंदी स्वरूप तो भारत सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय द्वारा मान्य है। भारत में समान नागरिक संहिता विषय प्रायः निर्वाचन के समय उछलकर सामने आता है तथा जनता इस विषय में जानने के लिए उत्सुक रहती है। पर इस महत्त्वपूर्ण विषय पर उपलब्ध पुस्तकें बहुत कम हैं। अतः मैंने इस विषय पर मौलिक शोध कार्य हिंदी में करने का निश्चय किया तथा समान नागरिकता के संवैधानिक, वैधिक तथा सामाजिक पहलुओं पर विशद विश्लेषण करने का निश्चय किया। मैंने पाया कि संविधान परिषद् में प्रस्तावित अनुच्छेद-35 के अंतर्गत वाद-विवाद अति महत्त्वपूर्ण है, जिसमें दोनों पक्षों के सदस्यों ने अपने शोधपूर्ण एवं विद्वतापूर्ण पक्ष रखे। उस स्तर की बहस अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होती। अतः उसका अधिकृत हिंदी अनुवाद प्राप्त करके उसको वैसे का वैसा रख दिया।
यद्यपि संविधान परिषद् का हिंदी प्रारूप प्राप्त करने में अति कठिनाई का सामना करना पड़ा। समान नागरिक संहिता के विकास का इतिहास सन् 1781 के अधिनियम से प्रारंभ किया गया, जब भारत के प्रथम गवर्नर जनरल वॉरन हेस्टिंग्ज को भारतीयों के सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान करने का निर्देश दिया गया। मैकाले ने भी यही नीति अपनाई तथा भारत में विधि के संहिताकरण की शुरुआत की, जिसका मैंने अध्याय-2 में संक्षिप्त में विवरण दिया। अध्याय 3 में भारतीय संविधान परिषद् में समान नागरिक संहिता पर वाद-विवाद को अत्यन्त श्रम करके हिन्दी में दिया गया है। अध्याय 4 में समान नागरिक संहिता से संबंधित प्रिवी कौंसिल द्वारा रशीद अहमद मामले में मुसलिम स्वीय विधि की स्वीकृति, भारतीय संविधान सभा में स्वीकृत प्रारूप का अर्थ तथा सन् 1971 में केरल उच्च न्यायालय के क्रांतिकारी न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर द्वारा प्रिवी कौंसिल के निर्णय से हटकर निर्णय, शाहबानो मुकदमा (1985) से 2019 तक मुसलिम महिला (विवाह की सुरक्षा का अधिकार) अधिनियम, 2019 को प्रस्तुत किया।
इसके पश्चात् समान नागरिक संहिता के विभिन्न आयामों की परख की, जिसमें स्वतंत्रता के पूर्व एवं स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदू और मुसलमानों के लिए पृथक-पृथक वैयक्तिक कानून तथा जो सभी धर्मों और संप्रदायों के लिए प्रयोज्य है। इसी अध्याय-5 में समान नागरिक संहिता के सबसे जटिल विषय उत्तराधिकार में साम्य बैठाने की कोशिश की पर यह तो समय ही बताएगा कि मेरा यह प्रयास किस सीमा तक सफल होगा। अभिरक्षा तथा दत्तक संबंधी कानूनों में अधिक मतभेद नहीं है।
अध्याय-6 में सरल एवं ग्राह्य शैली में समान नागरिक संहिता पर एक विद्यार्थी के दृष्टिकोण से लाभ और हानि का विश्लेषण किया गया है। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार संबंधी अभिसमय एवं प्रसंविदाएँ' के अंतर्गत समान नागरिक संहिता लागू करना भारत का अंतरराष्ट्रीय दायित्व है। साथ-साथ मूल अधिकारों तथा नीति-निदेशक तत्त्वों दोनों में साम्य स्थापित करने के लिए चेष्टा की गई है। कृषि भूमि संबंधी कानूनों में कई प्रदेशों में दशकों से नियम उत्तराधिकार हिंदू और मुसलमानों में समान रूप से लागू होते आ रहे हैं। पर जनजाति समुदाय या आदिवासियों को उत्तराधिकार में छूट सभी द्वारा स्वीकृत है।
अध्याय-7 में उच्चतम न्यायालय द्वारा तीन तलाक संबंधी प्रावधानों का क्रमिक विकास उच्चतम न्यायालय को भविष्यदृष्टा एवं साहसी दर्शाता है जिसकी परिणति सन् 2018 में शायरा बानो बनाम भारत संघ मामला में हुई। यह निर्णय न्याय क्षेत्र में एक पड़ाव है, क्योंकि इसमें बहु-विवाह के विभिन्न आयामों पर खुलकर विमर्श हुआ है तथा यह निर्णय वस्तुतः भारत में उत्तरोत्तर विकास एवं राजनैतिक पिछड़ेपन को प्रतिबिंबित करता है। अतः उच्चतम न्यायालय के प्रासंगिक उपखंडों को जैसे है, वैसे ही अध्याय-7 में लिए गए हैं।
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