यह मेरी प्रथम प्रकाशित रचना है। हिन्दी साहित्य की उच्च कक्षाओं के अध्ययन में कथा साहित्य के लिए मेरी विशेष अभिरुचि रही। इसमें भी कहानी की तुलना में उपन्यास के प्रति अधिक आकर्षण था। उपन्यास रचना के उच्चतम स्तर पर समसामयिकता के रचनाबोध के साथ एक दृष्टि की माँग अनिवार्यतः की जाती है। किसी भी युग का उच्चतम साहित्य वही होता है, जो उस युग के मूल्यों की प्रक्रिया को सर्जनात्मक स्तर पर गतिशील कर सकें। जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों का स्तर अपने समकालीन उपन्यासकारों की अपेक्षा अधिक ऊँचा लगने का कारण यह है कि उनमें रचना की एक दृष्टि है। आधुनिक युग वस्तुतः संक्रान्ति का युग है, प्रायः समस्त स्थापित मूल्यों के विघटन एवं नवीन मूल्यों के स्थापन प्रयत्नों का युग है। आधुनिक उपन्यास साहित्य के संदर्भ में अज्ञेय का उपन्यास साहित्य यदि एक ओर भारतीय जनजीवन, उसकी चेतना, विषमताओं आदि के यथार्थ चित्रण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तो दूसरी ओर अपनी शैली, शिल्प एवं मानव मन की शाश्वत अनुभूतियों के कलात्मक अभिव्यक्तिकरण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः अज्ञेय का उपन्यास साहित्य आधुनिक युग का वास्तविक एवं पूर्ण प्रतिबिंब है, चाहे तो भाव विधान की दृष्टि से और चाहे शिल्पविधि की दृष्टि से अज्ञेय का समस्त उपन्यास साहित्य आधुनिक उपन्यास साहित्य में एक सीमा स्तम्भ है। प्रस्तुत पुस्तक हमारे शोधकार्य का एक हिस्सा है। इसमें अज्ञेय की उपन्यास विषयक अवधारणाओं, चिंतन और उपन्यास रचना की प्रक्रिया को समझने का विनम्र प्रयास है। प्रस्तुत शोधकार्य आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय के अंतर्गत अज्ञेय जी के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनके जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षेप में परिचय दिया गया है। द्वितीय अध्याय में अज्ञेय के समस्त उपन्यास साहित्य का सामान्य परिचय देते हुए उनके कथ्य पर विचार किया गया है। उनका उपन्यास साहित्य विशाल तो नहीं लेकिन प्रौढ़ता की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में वह अपना पृथक स्थान रखता है। इतना ही नहीं मनोवैज्ञानिक उपन्यास के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों का परिचय 'शेखरः एक जीवनी' से अवश्य हो जाता है। आधुनिक उपन्यास साहित्य के क्षेत्र में अज्ञेय के योगदान को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उनके समस्त उपन्यास साहित्य के कथ्य पर विस्तार से विचार किया जाय। तृतीय अध्याय के अंतर्गत अज्ञेय के उपन्यास साहित्य के वस्तु विधान का विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। वस्तु चयन के आधार एवं क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए प्रत्येक उपन्यास का सामान्य परिचय देते हुए उनके स्वरूप गठन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है। चतुर्थ अध्याय में अज्ञेय के उपन्यासों में चरित्र विधान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उपन्यास कला की दृष्टि से उनका विश्लेषण किया गया है। उनके उपन्यासों में प्रयुक्त चरित्र-चित्रण की विभिन्न पद्धतियों का निरूपण करते हुए पात्रों का स्वरूप विश्लेषण किया गया है। पंचम् अध्याय के अंतर्गत अज्ञेय के उपन्यासों में प्रयुक्त कथोपकथन का विकासक्रम स्पष्ट करते हुए ये कथोपकथन वस्तु विधान और चरित्र-चित्रण में कहाँ तक और कैसे उपयोगी सिद्ध हुए हैं उस पर गंभीरता से विचार किया गया है। षष्ठम् अध्याय के अंतर्गत अज्ञेय के समस्त उपन्यासों में निरूपित देशकाल एवं वातावरण की समीक्षा करते हुए शिल्पविधि के एक आवश्यक अंग के रूप में समय एवं स्थल की योजना पर गहराई से विचार किया गया है। सप्तम् अध्याय के अंतर्गत अज्ञेय की भाषा एवं रूपविधान की चर्चा करते हुए भाषा का स्वरूप, रूप विधान की विभिन्न शैलियों का विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। उनकी भाषा में प्रयुक्त तत्सम्, तद्भव एवं स्थानीय शब्दों, लोकोक्तियों मुहावरों आदि के आधार पर उनके अभिव्यक्ति कौशल को स्पष्ट करने का यहाँ प्रयास किया गया है। विवरण शैली, आत्मकथात्मक शैली, पूर्वदीप्ति या प्रत्यावर्तन शैली, कथाकाल विपर्यय शैली आदि के द्वारा उनके शिल्पगत सौष्ठव को उभारने का प्रयत्न किया गया है। अष्टम् अध्याय उपसंहार में अज्ञेय के समस्त उपन्यास साहित्य के आकलन स्वरूप समीक्षात्मक निष्कर्ष दिये गये हैं, जिनके फलस्वरूप आधुनिक उपन्यास साहित्य के क्षेत्र में एक सफल मनोवैज्ञानिक उपन्याकार के रूप में अज्ञेय का स्थान सुनिश्चित किया गया है। यह शोधकार्य मोडासा कॉलेज के पूर्व विभागाध्यक्ष एवं आचार्य श्री, श्रद्धेय डॉ० नरेन्द्र भाई परीख साहब के मार्गदर्शन में संपन्न हुआ है। अतः उनके प्रति मैं अन्तःकरण पूर्वक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। साथ ही आर्ट्स कॉलेज पाटन के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ० आर०पी० शाह की भी मैं ऋणी हूँ जिन्होंने मुझे बहुमूल्य परामर्श देकर अनुगृहीत किया है। मेरे परिवार जनों ने भी गृहस्थ धर्म निभाते हुए मुझे इस सारस्वत-साधना में जो प्रोत्साहन एवं हार्दिक सहयोग दिया है, उसके बिना यह शोधकार्य की परिणति असंभव थी। इसके लिए मैं क्या कहूँ ? वे सब तो मेरे अपने ही हैं। उनके श्री चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है।
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