अलग-अलग महाद्वीपों के कई देशों में घूमने के मौके मुझे मिले हैं। ऐलप्स जैसे पहाड़ों की घाटियों और मेकॉग, अमेज़न, नील, सिंबासी, राईन, मिसिसिप्पी, न्याग्रा, बोल्गा, टेम्स आदि नदी तटों पर मैंने बहुत समय बिताया है। विदेशी शहरों, नगरों और गाँवों ने मुझे मोहित किया है। अविस्मरणीय यायावरी की यादों के हिस्से बनकर वे आज भी मन में हैं।
लेकिन अपने देश के विभिन्न भागों की घुमक्कड़ी का अनुभव इन सबसे अलग है। भारत के गाँव-गिरावों, हिमालय की पहाड़ी श्रृंखलाओं, घाटियों और नदी-तटों की सैर से मिली अनुभूतियाँ मुझे और कहीं से नहीं मिलीं। हिमालय मात्र एक भव्य पर्वत नहीं, एक महान् संस्कृति का अभिन्न अंग भी है। वह दर्शन, काव्य, संगीत, चित्रकला, शिल्पकला आदि क्षेत्रों में सृजनात्मक रचनाओं के लिए प्रेरणा देनेवाला प्रकृति का अनुपम वरदान है। भगवद्गीता में कृष्ण ने कहा-'पहाड़ों में में हिमालय'।
ये यात्राएँ हमारी विविध और समृद्ध सांस्कृतिक स्रोतों की खोज थीं। मुझे हेमवत भूमि में कई बार जाने का सौभाग्य मिला। कतिपय यात्राओं में मेरी पत्नी उषा और 'मातृभूमि' के कुछ सहयोगी हमसफर थे। प्रस्तुत रचना का उद्देश्य अपनी यात्राओं के अनुभवों को पाठकों के साथ बाँटना है। सच, इस पुण्य भूमि ने अंदर जो भाव-संसार जगा दिया है उसे शब्दों में बांधना कठिन है।
भगीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडार, नंदाकिनी आदि नदियों और उनके संगम से जन्म लेनेवाली गंगा और मोहिनी नदी यमुना का उद्गम हिमालय की हिमानियों में है। मन्वंतरों में उनके तट आबाद हो गए। उन सबने मिल कर एक महान् संस्कृति को जन्म दिया। भौगोलिक भिन्नताओं, रहन-सहन की विविधताओं, वर्ग-जाति की पृथकताओं और भाषा-ऋतु के भेदों ने इस महान् संस्कृति के प्रवाह में रुकावट नहीं डाली। संस्कृति का ऐसा अविराम प्रवाह भला दुनिया में और कहाँ देखा जा सकता है?
हिमालय की चोटियों, घाटियों, उनमें स्थित जमनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ आदि चार धाम, नदियों आदि से जुड़ी दंतकथाएँ, मिथक, लोक कथाएँ, लोक गीत, नृत्य, शिल्पकला आदि भारत के स्वत्व के अंग हैं। हिमालय, शिव-पार्वती का आवास है और यमुना-तट, कृष्ण का कीड़ास्थल।
राम, सीता, कृष्ण, राधा, शिव, पार्वती आदि पौराणिक ऐतिहासिक पात्र, मात्र इस प्रदेश में सिमटनेवाले नहीं हैं। हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी गाथाएँ लहराती हैं। पुराणों, इतिहासों, मिथकों और लोक गीतों में हमारे विविध दर्शनों, विचारधाराओं, सृजनात्मक सिद्धियों और जीवन तक का ताना बाना रचा-बसा हुआ है। विस्तृत भारतीय उपमहाद्वीप की विरुद्धताओं और विविधताओं का अतिक्रमण करते हुए पीढ़ियों से वे जनमानस में जड़ जमाए हुए हैं। इस आपसदारी के प्रभाव से हिमालय की यात्रा के दौरान मिली जानकारियों और अनुभवों की धन्यता से केरल और अन्य प्रांतों के मिथकों, लोक कथाओं और दंत कथाओं की याद ताजा हुई थी।
दिल्ली से शुरू होनेवाली यात्रा में पुराणों में वर्णित, मय रचित इंद्रप्रस्थ की महिमा याद आई। मय से नई दिल्ली के शिल्पी लूटियन्स, बेकर, आदि की ओर आते समय मुग़ल बादशाहों के योगदान के बारे में सोचा। मुगल इतिहास के बयान के दौरान सम्राट शाहजहां का बेटा दारा शिकोह और बेटी जहाँनारा ने मन में टीस भर दी। इतिहास की धड़कनों ने यात्रा के अनुभवों को मंद्र ध्वनि में संगत दिया।
मैंने कई बार हरिद्वार और ऋषिकेश की यात्रा की है। इस पुण्यभूमि में पैदा होनेवाली भाव तरंगें हमें देश के विभिन्न भागों में पहुंचा देती हैं। हरिद्वार के तीर्थ हर की पौड़ी से सृजन के धनी भर्तृहरि, उनके भाई वररुचि, पत्नी पंचमी, और उनके बच्चे 'परयी के जने बारह कुल', निला नदी, वेद भूमि तृत्ताला आदि जुड़े हुए हैं।
हरिद्वार के प्रसंग में व्यापार तंत्रों के अधिग्रहण में फंस कर गंगा आदि नदियों के प्रदूषण और विनाश की व्याकुलताएँ हमें ग्रस लेती हैं। पर्यावरण विनाश, पेय जल पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा, बांधों से पैदा होनेवाली समस्याएँ वन कटाई के दुष्परिणाम आदि हमारी व्यथा बन जाती हैं।
गंगा तट के ऋषिकेश पर राम-लक्ष्मण के पैर पड़े थे। मसूरी के गाथाकार रस्किन बॉन्ड को याद किए बिना दून घाटी और मसूरी से गुज़रना मुश्किल है। देवप्रयाग और ऋषिकेश के बीच स्थित वशिष्ठ गुफा का दर्शन अनूठा अनुभव प्रदान करता है। केरल के चैतन्यानंद स्वामी वशिष्ठ गुफा के प्रमुख हैं।
यमुना नदी जमनोत्री मंदिर का पुण्य है। यह पुण्य प्रवाहिनी, राधा-कृष्ण परिकल्पना से संबंधित मुग्ध भावों और मनमोहक कथाओं की याद दिलाती है। गंगोत्री की पृष्ठभूमि में गंगा की कहानियों खिल उठती हैं। इसी प्रसंग में भौम तापन के फलस्वरूप हिमानियों का पिघलना और अन्य दुष्परिणाम भी यात्रा के अनुभवों में शामिल होते हैं। गढ़वाल के बांधों की पृष्ठभूमि में विकास के नानाथर्थों पर सवालिया निशान लग जाते हैं।
देव प्रयाग, रुद्र प्रयाग, सोन प्रयाग, कर्ण प्रयाग, नंद प्रयाग, विष्णु प्रयाग, केशव प्रयाग आदि पुण्य तीथों ने अविस्मरणीय दृश्यानुभव प्रदान किए। ये सात नदी संगम सप्त प्रयाग के रूप में जाने जाते हैं। केदारनाथ से निकलनेवाली मंदाकिनी और बदरीनाथ से बह आनेवाली अलकनंदा का संगम स्थल रुद्र प्रयाग का संगीत हमें एक अलग दुनिया में पहुँचा देता है। नाद रूप शिव, नाद रूपिणी पराशक्ति और संगीतज्ञ नारद से संबंधित खोजों के लिए रुद्र प्रयाग कारण बन गया। अगस्त्य मुनि और गुप्तकाशी ने स्थानीय इतिहास के साथ वैयक्तिक स्मृतियों को भी जगा दिया।
केदार धाम हिमाच्छादित गिरि-श्रृंगों की पृष्ठभूमि में मंदाकिनी घाटी के सामने खड़ा है। कहते हैं, महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने इस शिव मंदिर का निर्माण किया था। यहाँ पहुँचने पर तांत्रिक विद्या का उल्लेख किए बिना नहीं रहा जा सकता। भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ में है।
पिंडार नदी और अलकनंदा का संगम कर्ण प्रयाग भी रुद्र प्रयाग की तरह विख्यात तीर्थ है। मेरे लिए कर्ण महाभारत का सबसे पसंदीदा पात्र है। उसके जीवन के कई प्रसंग मन में टीस भर देते हैं। कर्ण के प्रसंग में मैंने तीन अध्याय जोड़े हैं। द्रौपदी की अवहेलना 'हे सूतपुत्र, मैं तुम्हारा वरण नहीं करूंगी' कुंती का विलाप 'बेटा कर्ण, तू सूतपुत्र नहीं, सूर्यपुत्र है' और भीष्म की गवाही कि 'कर्ण तुम अर्धरथी नहीं, महारथी हो' उन अध्यायों के शीर्षक हैं जो कर्ण की दुःख-गाथा की सूचनाएँ देते हैं। 'कृष्ण ने चिता जलाईः कर्ण अमर हो गया' वाला अध्याय उसके जीवन के दुखांत को सूचित करता है। देर तक कर्ण प्रयाग के तट पर बैठे रहने पर मन में उठनेवाली कर्ण स्मृतियों ने तकदीर का शिकार बननेवाले उस कॉतेय के बारे में लिखने की प्रेरणा दी थी। दरअसल कर्ण भाव सबमें विद्यमान है।
बदरीधाम पहुँचने पर यात्री दल चतुरधाम दर्शन की पूर्णता का अनुभव करने लगे। मंदिर के मुख्य पुजारी (रावल जी), केरल के पय्यन्नूरवाले बदरीप्रसाद जी सबके आदर के पात्र हैं। सरस्वती और अलकनंदा का संगम बदरी के केशवप्रयाग में गणपति ने महर्षि व्यास से महाभारत कथा का श्रुतलेखन किया था।
बदरीनाथ से लौटते समय विष्णुप्रयाग के तट पर ज्योतिर्मठ अथवा जोशी मठ पहुँचे। जोशी मठ शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों में एक है। वहाँ शंकर दर्शन मन में जागा। कौसानी की यात्रा के दौरान कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण आदिबद्री, बैजनाथ आदि मंदिरों के दर्शन का मौक़ा मिला। कौसानी के अनासक्ति आश्रम में हम गांधीजी की प्रासंगिकता की चर्चा किए बिना नहीं रह सके। प्रकृति रमणीय कौसानी विख्यात हिन्दी कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्मस्थान भी है। यहीं यात्रा विवरण पर अस्थाई पर्दा डाला जाता है।
महीने भर की यात्रा के दौरान प्राकृतिक सुषमा से संपन्न नैनीताल, ग़ज़लों के लिए प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर लखनऊ, सरयू नदी के किनारे जैन, बौद्ध, हिन्दू संस्कृतियों की धड़कनों के साथ बाबरी मस्जिद की बरबादी की भी गवाह बननेवाली अयोध्या, पुण्य ग्रंथों का प्रकाशन केंद्र गोरखपुर, हिमालय की चोटियों की सुंदरता को सोख लेनेवाला नेपाल का पोखरा, महात्मा बुद्ध के जन्म से अनुगृहीत लुंबिनी, बहुत खून-खराबा देखनेवाला काठमांडू, गंगा के किनारे काशी विश्वनाथ की उपस्थिति का पुण्य पानेवाली नगरी काशी, गंगा-यमुना-सरस्वती के त्रिवेणी संगम की पवित्रता से धन्य होनेवाला इलाहाबाद, महात्मा गौतम बुद्ध के ज्ञानोदय का गवाह बुद्धगया, बिहार की राजधानी पौराणिक शहर पाटलीपुत्र उर्फ पटना आदि प्रदेशों से होकर हम वापस लौटे। इस यात्रा विवरण को पूरा करने के लिए इन्हें भी इसमें शामिल करना चाहिए लेकिन विस्तार के भय से जान-बूझकर इनका विवरण छोड़ता है।
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