रामकाव्य-परम्परा आज भी संसार के एक बड़े भाग को प्रभावित, प्रेरित और अनुप्राणित कर रही है। भारतीय जीवन-शैली का तो यह प्राणतत्व ही है। शीर्षष्य दार्शनिक से लेकर एक सामान्य शिशु तक और महान् राजनीतिज्ञ से लेकर दर-दर की ठोकर खाने वाले भिक्षुक तक इस महान् शक्तिशाली परम्परा से अपने उपयोग की सामग्री इच्छा करते ही प्राप्त कर लेता है।
राम द्वारा आचरित एवं अनुसरित कर्तव्य एवं आदर्श आज भी भारतीय मन को कर्तव्य की प्रेरणा, विपत्ति में धैर्य और हर्षोत्साह में संयम प्रदान कर रहे हैं। जो लोग नवीन मूल्य और जीवन-शैली का उत्साह लेकर आते हैं, वे भी राम को ही दोषी सिद्ध कर अपनी मनस्विता को सफल एवं कृतकार्य समझते हैं। राम के मूल्यांकन के मानदण्ड बदल सकते हैं, राम को हमारे देश की संस्कृति से विस्थापित नहीं किया जा सकता। ऐसा प्रयास करने वाले थक गये और फिर राम को ही अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने का प्रयास करने लगे।
मैने स्वयं कई ऐसे लोगों को देखा है, जो राम का विरोध करते-करते जीवन के उत्तरार्द्ध में राममय हो गये। मंदिरों में राम के पूजा-पाठ की परम्परा के विरोधी विवेकानन्द बाद में उसके प्रबल समर्थक हो गये। फिर तो उन्होंने इस बात के लिये बुद्ध तक की निन्दा की, जिन्होंने मूर्तिपूजा आदि अनुष्ठानों का विरोध किया था। उन्होंने कहा कि दुःखों से आक्रान्त स्त्री-पुरुष मंदिरों में जाकर अपने दुःखों को भूल जाते थे जिसे बुद्ध ने छीन लिया। फल यह हुआ कि जहाँ से बौद्ध धर्म का विकास हुआ था वहीं उसे अपनी स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होना पड़ा।
यद्यपि विवेकानन्द बुद्ध के महान् भक्त थे, तथापि राम की परम्परा के लिए विवेकानन्द को बुद्ध की भी निन जगत् के उद्धार के लिये पुत्र और पत्नी का त्याग किया।
रजनीश का भी यह मानना था कि तुम जहाँ झुक गये वहीं परमात्मा।
मंदिर का आकार सदा इस बात की घोषणा करता है कि ऊर्ध्व गमन में ही हमारे जीवन की सार्थकता है। मंदिर में जल रही दीपशिखा भी इसी बात को प्रतीकित कर रही है। राम बड़े प्यारे हैं। शूर्पणखा उन पर मुग्ध हो गयी तो आश्चर्य क्या है।
तार्किक और भावात्मक रूप से राम से प्रभावित मेरा मन 'रामचरितमानस' के मार्मिक अंशों को पढ़कर और भी प्रभावित हो गया। फिर आचार्य रामचन्द्रशुक्ल द्वारा प्रणीत संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित समीक्षा ग्रन्थ 'तुलसीदास' ने जैसे आग में धी का काम किया। मेरी आस्था भड़क उठी रामकाव्य के प्रति।
'हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता के अनुसार रामकाव्य भी अनन्त है।
यद्यपि मेरी इस पुस्तक की प्रशंसा संदेहास्पद है तथापि इसे मैंने अपने बल पर अकेले ही पूरा नहीं कर लिया है। इसमें अनेक गुरुजनों, विद्वानों, सहृदयों की महती कृपा है। इस अवसर पर उनमें से कुछ का स्मरण इस पुस्तक की ओर अपने अन्तःकरण की पवित्रता के लिए आवश्यक समझती हूँ यद्यपि धन्यवाद देकर किसी के ऋण से मुक्त होना नहीं चाहती। इस संदर्भ में सर्वप्रथम वैदुष्य, वर्चस्विता तथा साधुत्व के संगम स्वरूप अपने प्रातः स्मरणीय ब्रह्मलीन गुरुदेव डॉ. रामखेलावन राय (पूर्व विश्वविद्यालय प्राचार्य एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष, पटना विश्वविद्यालय) का सहज स्मरण हो रहा है। जिन्होंने पुस्तक के लिए अमोध प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान किया, सर्वथा तिमिराच्छन्न पथ को सम्यक तथा आलोकित करने को ध्वांतहर प्रकाश विकीर्ण किया और मेरे कंटकाकीर्ण मार्ग की सारी कठिनाइयों को निराकृत करते हुए प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं की अहेतु की कृपा का प्रसाद है। उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए उपयुक्त शब्द उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, किन्तु पूर्ण विश्वास है कि दिव्य लोक के वासी गुरुदेव मेरे शब्दातीत हृदयगत भावों को. सारे व्यवधानों को अतिक्रान्त करते हुए, अवश्य पढ़ रहे होंगे। मैं उनके चरणों में समग्र श्रद्धा-भक्ति के साथ नतमस्तक हूँ।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist