प्रस्तुत पुस्तक के लेखक डा० कृष्ण मुरारी त्रिपाठी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1979 में नैदानिक मनोविज्ञान में परास्नातक एवं 1982 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के योग-केन्द्र से योग में डिप्लोमा करके 1984 में कबीरमठ के स्वामी विद्यानन्द जी से 3 मास-पर्यन्त योग की अनेकानेक कानेक गहन क्रियाओं की जानकारी प्राप्त की। 1987 में विश्वविख्यात आयुर्वेदविद एवं योग-वैज्ञानिक प्रो० राम हर्ष सिंह जी (पद्मश्री) के मार्गदर्शन में शोधकार्य सम्पन्न कर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। 1988 में लेखक आधुनिक्र क्रियायोगी आचार्य शैलेन्द्र शर्मा जी (सम्प्रति गोवर्धनवासी) से पारम्परिक क्रियायोग परम्परा में दीक्षित हुए ।
1989 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नियुक्ति के बाद लेखक 1990 से 1999 तक लगातार भारतीय योग परिषद के मानित सचिव रहे। 1994 से 1999 के मध्य लेखक को तीन बार व्याख्यान हेतु यूरोपीय देशों द्वारा आमन्त्रित किया गया। 2006 से लेखक विश्वविद्यालय के योग केन्द्र के कार्यक्रम-समन्वयक तथा पाठ्य-परिषद एवं संचालक परिषद के सदस्य-सचिव नामित हुए। योग, आयुर्वेद एवं भारतीय मनोविज्ञान की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके चालीस से अधिक लेख तथा पुस्तकों में सात अध्याय प्रकाशित हो चुके हैं। देश के सभी प्रतिष्ठित संस्थानों में लेखक के व्याख्यान हो चुके हैं। वे पांच राष्ट्रीय एवं तीन अन्तर्राष्ट्रीय योग सम्मेलनों के आयोजनकर्ता भी रहे हैं।
2006 से 2015 तक डा० त्रिपाठी निरन्तर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में योग विषय के पाठ्यक्रम विकास हेतु सन्नद्ध रहे। 2015 में अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस आयोजन के तत्वावधान में एवं योग के वैज्ञानिक विकास पर विचारार्थ यू०जी०सी०, नयी दिल्ली, द्वारा बनायी गयी प्रवर/सुविज्ञ समिति हेतु डा० कृष्ण मुरारी त्रिपाठी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा एक सहभागी सदस्य के तौर पर नामित किये गये।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की 32 वर्षों तक निरन्तर सक्रिय सेवा के बाद जनवरी 2019 में डा० कृष्ण मुरारी त्रिपाठी, सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी डा० त्रिपाठी ने वैदिक विज्ञान केन्द्र के वैदिक आयुर्विज्ञान, मनोविज्ञान एवं योग विज्ञान प्रभाग' द्वारा विकसित 'बैचलर आफ वैदिक योग विज्ञान आनर्स' (बी०वी०वाइ०वी० आनर्स) पाठ्यक्रम की योजना, जो कि अक्टूबर, 2020 को आहूत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय विद्वत्परिषद द्वारा पारित भी किया जा चुका है, अपना सक्रिय सहयोग प्रस्तुत किया। सम्प्रति डा० त्रिपाठी वैदिक योग विज्ञान में परास्नातक पाठ्यक्रम के प्रारूपण में सहयोगरत हैं।
योग वैदिक एवं सैन्धव-सरस्वती सभ्यता कालीन पुरातन विद्या है। हिरण्यगर्भ इसके आदि उपदेष्टा माने जाते हैं। वासुदेव श्रीकृष्ण ने आर्ष योग विद्या को व्यापकता एवं विस्तार प्रदान किया और महर्षि पतंजलि ने योग विद्या को व्यवस्थित स्वरूप दे दिया। श्रमण आदि भारतीय सभी परम्पराओं एवं पंथों ने योग साधनाओं के विकास में अपने-अपने सार्थक अवदान प्रस्तुत किये।
आधुनिक भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने योग विधियों की सर्वांग स्वास्थ्यपरक संभावनाओं को आधुनिक विश्व पटल पर प्रतिस्थापित कर दिया है, तथापि यह सर्वथा समीक्षणीय है कि आधुनिक कालीन लोकप्रिय योग विधा अपने पुरातन मूल स्वरूप से नितांत भिन्न प्रतीत होती है, पुरातन काल से सतत विवर्तनशील योग प्रणाली में विविध कालखंडों के मध्य वे कौन से निराले संस्करण एवं अभिवर्द्धन हुए थे, जिन्होंने योग विधा को उसका वर्तमान अपूर्व स्वरूप प्रदान किया, यह सब पंथ निरपेक्ष भाव से अनुशीलनीय है और उसी दिशा में लेखक का यह प्रयास सुधी योगविदों के समक्ष प्रस्तुत है।
प्रस्तुत पुस्तक योग विद्या की विकास यात्रा के लेखक डॉ० कृष्ण मुरारी त्रिपाठी के सुदीर्घ श्रमसाध्य शोधपूर्ण चिंतन की परिणति है. जिसकी विषय वस्तु को 'योग विद्या की विकास यात्रा (ऐतिहासिक सिंहावलोकन)' शीर्षक युक्त लेख के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सर्वचर्चित पत्रिका 'प्रज्ञा' के अंक-66 भाग-2 वर्ष 2020-21 में मेरे और लेखक के संयुक्त प्रयास से प्रकाशित किया जा चुका है।
प्रज्ञा में प्रकाशित उक्त लेख की विषयवस्तु को व्यापकता प्रदान करने हेतु इस बात की भी अपेक्षा थी कि उक्त लेख में, विवेचना के केन्द्प्रज्ञा में प्रकाशित उक्त लेख की विषयवस्तु को व्यापकता प्रदान करने हेतु इस बात की भी अपेक्षा थी कि उक्त लेख में, विवेचना के केन्द्रीय विषय 'योग साधना' की मूल वैदिक अवधारणा तथा उसके बोधगम्य एवं व्यावहारिक आशय को भी स्पष्ट कर दिया जाये। साथ ही साथ विभिन्न कालखंडों में योग विद्या में हुए संस्करणों एवं अभिवर्द्धनों के औचित्य एवं अनौचित्य भी समालोचनीय थे। इन सभी विचारों के साथ योग विद्या की विकास यात्रा (ऐतिहासिक सिंहावलोकन)' संबंधी उक्त सभी विषयवस्तु को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इस पुस्तक में योग के विद्यार्थियों के लाभार्थ योग क्षेत्र की विविध चिंतनधाराओं एवं पंथों के प्रतिपादनों का संक्षिप्त परिचय एवं अन्यान्य अपेक्षित सूचनाएँ भी विभिन्न तालिकाओं एवं सूचियों के माध्यम से प्रस्तुत की जा रही है।
मैं सर्वप्रथम माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के प्रति आत्मीय कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनकी प्रेरणा और सहयोग से वैदिक विज्ञान केन्द्र का संचालन हो रहा है। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय जी जो विश्वविद्यालय के संस्थापक भारतरत्न महामना पं० मदन मोहन मालवीय जी के पौत्र है आपका स्नेह व आशीर्वाद इस केन्द्र को निरन्तर प्राप्त होता रहता है। इस विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति और वैदिक विज्ञान केन्द्र के संरक्षक प्रो. सुधीर कुमार जैन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनका केन्द्र को हर प्रकार से सहयोग प्राप्त होता रहता है। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो० अरुण कुमार सिंह के प्रति विशेष आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इस केन्द्र को सुदृढ़ और उपयोगी बनाने में सदैव अपना महत्वपूर्ण सुझाव और सहयोग दिया है। हम संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय के संकाय प्रमुख प्रो. कमलेश झा के प्रति विशेष आभार प्रकट करता हूँ जिनका सतत सहयोग प्राप्त होता रहा है। मैं अपने गुरु प्रो. हृदय रंजन शर्मा के प्रति कृतज्ञ हूँ। मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उपकुलसचिव (विकास) डॉ० आनन्द विक्रम सिंह के प्रति केन्द्र को हर प्रकार से सहयोग और सुझाव प्रदान करने के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।
मैं डॉ. दया शंकर त्रिपाठी जिन्होंने विशेष रुचि लेकर इस पुस्तक का संशोधन व संपादन कर इसे उत्कृष्ट बनाया है, को विशेष रूप से बधाई देता हूँ। मैं वित्तीय एवं अन्य सहयोग प्रदान करने हेतु धर्मार्थ कार्य विभाग, उत्तर प्रदेश शासन के प्रति विशेष रूप से आभार प्रकट करता हूँ। मैं मे० पिल्ग्रिम्स पब्लिशिंग, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी के अधिष्ठाता श्री रामानन्द तिवारी को पुस्तक समय से प्रकाशित करने के लिए साधुवाद देता हूँ।
भारतीय इतिहास एवं दर्शन बाल्यकाल से ही निरन्तर मेरे रुचिकर विषय रहे हैं। मैंने पिताजी के सुझाव पर मनोविज्ञान में परास्नातक किया था। पिताजी के आशीर्वाद से मनोविज्ञान, विशेषकर भारतीय मनोविज्ञान के क्षेत्र में मैंने कुछ न कुछ संज्ञेय सार्थक कार्य भी किये। आगे चलकर योग विधा के मानसोपचारक पक्षों पर शोधकार्य के कारण योग विधा के अनुशीलन में रुचि लेते समय तो कभी यह मेरी कल्पना में भी नहीं था कि योग विधा ही मेरा सेवा एवं आजीविका का क्षेत्र बन जायेगा।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 1981-82 के दौरान मेरे योगविद्या के आरम्भिक प्रशिक्षण काल में, योग केन्द्र के संस्थापक सुप्रसिद्ध धातुकीविद् प्रो. टी.आर. अनन्तरमन साहब द्वारा प्रस्तुत योग विद्या की ऐतिहासिक विवेचना, ईसा सदी के पूर्व में ही जैन एवं बौद्ध मतों के कुछ उल्लेखों तक आते आते दम तोड़ देती थी। तदन्तर पुनः उनके द्वारा योग-विद्या स्वामी विवेकानन्द जी के विचारों एवं कृत्यों के उल्लेख के साथ 'समकालीन योग' के नाम से पुनर्जीवन प्राप्त करती थी। ईसा सदी के पूर्व तक योग विद्या के विकास को लेकर अनन्तरमन साहब के 'योग विद्या एवं योग विधि' नामक लेख द्वारा प्रदत्त योग विद्या सम्बन्धी सूचनायें मात्र योग विधा की भगवदगीतोक्त ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं राजयोग मार्गों को ही अन्तर्भूत करती थीं, किन्तु दूसरी ओर उन्हीं के द्वारा संचालित अभ्यासपरक योग की कक्षायें आसन एवं प्राणायाम के अभ्यासों और उनके स्वास्थ्यपरक अनुप्रयोगों पर केन्द्रित हुआ करती थीं। भारतवर्ष के अग्रगण्य धातुकीविद वैज्ञानिक होते हुए भी प्रो० टी.आर. अनन्तरमन साहब द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में योग केन्द्र की संस्थापना जैसा योगानुराग एवं योगविद्या के विकास में अभिरुचि भी अति श्लाघनीय ही थी।
अपने योग प्रशिक्षण काल में, योग विद्या की कक्षाओं में, सैद्धान्तिक एवं अभ्यासपरक पक्षों की मध्यवर्ती उक्त खाई मेरे लिये सतत सार्थक पृच्छा का विषय बनी रही। योग की आरम्भिक प्रशिक्षण कक्षाओं में ही तत्कालीन एक अन्य आचार्य, शारीरिक शिक्षाविद डॉ. जे.के. पाठक द्वारा उक्त खाई को पाटने के सन्दर्भ में मुझे कतिपय ऐतिहासिक सूत्र हाथ लगे। योग विद्या के ऐतिहासिक विकास के सन्दर्भ में मेरी सार्थक पृच्छाओं को लक्ष्य कर उन्होंने श्रद्धेय प्रो० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की 'नाथ पन्थ' एवं 'कबीर' तथा दिनकर जी की संस्कृति के चार अध्याय' देखने को कहा। उक्त ग्रन्थों को देखने के बाद लेखक की 'योग विद्या के ऐतिहासिक विकास' की अनुशीलन यात्रा प्रारम्भ हो गयी। मेरे छात्र जीवन में स्नातक शिक्षाकाल से ही मेरे प्रति पुत्रवत स्नेह रखने वाले हिन्दू विश्वविद्यालय के आधुनिक इतिहास के प्राध्यापक प्रो० जगन्नाथ प्रसाद मिश्र जी से भी मुझे प्रायः मूल्यवान सुझाव मिला करते थे।
बीसवीं ई० सदी के अन्तिम दशक में मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के योग केन्द्र में सह-निदेशक पद पर नियुक्त होकर योग की नियमित कक्षायें लेने लगा। तब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का 'योग केन्द्र' योग प्रशिक्षण के क्षेत्र में, अन्तर्राष्ट्रीय प्रख्याति का केन्द्र बना हुआ था, जिससे योग केन्द्र में अनेकानेक भारतीयेत्तर देशों से आये योग के विद्यार्थी मेरे सम्पर्क में आने लगे और उनसे ज्ञानादान-प्रदान क्रम भी चलने लगा। मेरे इन अधिकांश भारतीयेत्तर विद्यार्थियों की उत्सुकता योग विद्या के इतिहास को लेकर ही हुआ करती थी। योग के क्षेत्र में मेरी दृष्टि को समीक्षात्मक विशदता एवं सूक्ष्मता प्रदान करने में इन भारतीयेत्तर छात्र-जनों का अप्रतिम योगदान रहा। किसी भी ज्ञान का विकास तीक्ष्ण एवं उष्ण पृच्छाओं के लौहपथ पर ही अग्रगमन करता है।
भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का अध्ययन तो प्रारम्भ से ही मेरा रुचिकर विषय रहा है और प्रत्येक भारतीय युवा को भारतीय इतिहास संस्कृति में स्वल्प रुचि अवश्य रखनी चाहिये। मेरी रुचि को लक्ष्य कर एक दिन मेरे सुहृद मित्र डॉ० अमरेश कुमार राय, ह-ग्रन्थालयी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, मुझे ढूँढ़ते हुए आये और सयाजी राव केन्द्रीय ग्रन्थालय से निर्गत करा के ज्यार्ज फ्यूरिस्टीन रचित एक ग्रन्थ पकड़ा गये। अब मेरे समक्ष योग इतिहास के और भी अभिनव आयाम उद्घाटित होने लगे। ज्यार्ज फ्यूरिस्टीन साहब के ग्रन्थ में विपुल सामग्री का संकलन तो था किन्तु वहाँ ऐतिहासिक सातत्यता एवं प्रासंगिकताओं का प्रायः अभाव था। योग विद्या की ऐतिहासिक मीमांसा अब मेरे लिये एक मिशन से अधिक मेरे अनुशीलन का मादक विषय बन गयी।
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