आदिकाल का समय राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक हर दृष्टि से उथल-पुथल का समय था। राजनीतिक स्तर पर जहां एक तरफ भारत पर निरंतर विदेशी आक्रमण हो रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में आंतरिक कलह काफी बढ़ गए थे। धार्मिक स्तर पर इस समय तक आते-आते बौद्ध और जैन धर्म में भी काफी बदलाव हुए और हीनयान, महायान, वज्रयान, सहजयान जैसी कई धर्म की शाखाएं निकल गई थी। निरंतर होते इन युद्धों और धार्मिक बदलावों के कारण आम जन-जीवन में भी परिवर्तन हुए। सामान्य जन जहां युद्ध के दुष्परिणामों से त्रस्त थीं तो वहीं धार्मिक स्तर पर पनप रहे विभिन्न शाखाओं के भी प्रति उनके मन में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। अतः आदिकालीन समय-साहित्य को समझने के लिए उस समय के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थिति को समझना अति आवश्यक है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में आदिकाल सदा से विद्वानों के बीच विवाद का विषय रहा है। चाहे इसके नामकरण की बात हो या काल-विभाजन की, आदिकाल को लेकर इतिहासकारों व विद्वानों के मध्य पर्याप्त मतभेद मिलते हैं क्योंकि आदिकाल के इतिहास का समुचित पर्यालोचन करने में इतिहासकारों व विद्वानों को कठिनाई होती है। इसके पीछे का कारण यह है कि इस समय के कुछ ग्रंथ अप्राप्य हैं तो कुछ रचनाओं पर प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता का सवाल लगा हुआ है, वहीं कुछ ग्रंथों में ऐतिहासिक सामंजस्य का अभाव है। साथ ही इस युग में धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि सभी क्षेत्रों में परस्पर विरोधी तत्व दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में किसी एक विशेष तत्व को ध्यान में रखकर इसका नाम निर्धारित कर देना उचित नहीं। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा हैं कि शायद ही भारतवर्ष के साहित्य के इतिहास में इतने विरोधों और स्वतोव्याघातों का युग कभी आया होगा। इस काल में एक तरफ तो संस्कृत के ऐसे बड़े-बड़े कवि उत्पन्न हुए, जिनकी रचनाएं अलंकृत काव्य-परम्परा की चरम सीमा पर पहुंच गई थीं और दूसरी ओर अपभ्रंश के कवि हुए, जो अत्यन्त सहज-सरल भाषा में, अत्यन्त संक्षिप्त शब्दों में, अपने मार्मिक मनोभाव प्रकट करते थे। संक्षेप में इतना जान लेना यहां पर्याप्त है कि यह काल भारतीय विचारों के मंथन का काल है और इसीलिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
आदिकाल में राष्ट्रीय एकता का अभाव था। यही कारण है कि इस काल में वीरता का वर्णन तो बार-बार हुआ है, परन्तु उस वर्णन में स्वदेश अभिमान एवं राष्ट्रीयता की भावना का अभाव है। उस समय देश खंड-खंड राज्यों में विभक्त था और इन छोटे-छोटे राज्यों के शासक परस्पर कलह और संघर्ष में रत्त रहते थे। ये राजा दस-बीस गांवों के छोटे से राज्य को ही राष्ट्र समझते थे। चूंकि इस समय के कवि राजाश्रय में जीवन यापन करते थे इसलिए कवि भी अपने राजा के अलावा शेष राजाओं को नीचा दिखाने के लिए काव्य रचते थे और अपने राजा की झूठी सच्ची बातों को बढ़ा-चढ़ा कर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट घोषित करने में कोई संकोच महसूस नहीं करते थे। कवि जनता से अलग रहने के कारण सामंती वैभव एवं ऐश्वर्य का वर्णन अधिक मात्रा में करते थे। अतः इस काल के कवि भी सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। इस काल में प्रजा अपने राजा के अधिकार क्षेत्र को ही देश मानती थी और उसके प्रति अपनी पूरी आस्था और निष्ठा रखती थी, साथ ही पड़ोसी राज्य को वे शत्रु राष्ट्र समझते थे। अतः इस युग में सम्पूर्ण भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने की भावना का अभाव था। परिणामतः विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संगठित होकर युद्ध करने में भी वे विफल हुए। पड़ोसी राज्य पर विदेशी आक्रमण होने पर ये रंचमात्र भी विचलित नहीं होते थे। इसी संकुचित राष्ट्रीयता के कारण धीरे-धीरे सभी देशी साम्राज्य विदेशी आक्रांताओं द्वारा पराजित हो गए।
इस पुस्तक के लेखन में अनेक पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं एवं प्रतिवेदनों से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता ली गई है, अतः उन सभी विद्वान लेखकों, सहायक ग्रन्थों तथा पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और मूल स्रोतों के व्यास्थापकों का मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूं और अन्त में, मैं मुरारी लाल एंड संस के प्रकाशक श्री राजीव गर्ग जी का धन्यवाद करता हूं जिन्होंने अल्प समय में इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव कराया।
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