पिछले कुछ वर्षों से अक्सर में अपने दोस्तों और पाठकों से कहा करता हूं - मैं कुछ-कुछ उस कुम्हार की तरह हूं जिसने धोखे से या किसी ज़रूरतवश, कभी कोई एक कमीज़ सिल डाली, और अब सब लोग उसे दर्जी कहते हैं। ग्राहक अब उसके पास घडे-सुराही खरीदने नहीं, बल्कि कमीज़-पैंट सिलवाने आते हैं।'
मेरी स्थिति उस कुम्हार जैसी ही है। बचपन से, जब से मैं कुछ जानने-समझने लायक़ हुआ, चित्र और कविता ही बाहरी संसार और समाज के साथ मेरे संबंध और संवाद का जरिया थे। बाहरी संसार ही नहीं, शायद मैं अपने भीतर की दुनिया को भी इन्हीं दो माध्यमों के द्वारा जान-समझ पाता था। उस छोटी उम्र में मैंने खूब चित्र बनाए और खूब कविताएं लिखीं। (अभी भी, खाली समय में, मैं यही दोनों काम करता रहता हूं।) मूलतः मैं कवि ही हूं।
जहां तक कहानी की बात है, तो पहली कहानी मैंने तब लिखी, जब मैं कॉलेज में फर्स्ट इयर का छात्र था। वे बहुत कठिन दिन थे। चार साल पहले, श्वासनली में कैंसर से मां की मृत्यु हो चुकी थी, मैं घर छोड़कर आगे की पढ़ाई करने पास के ही एक शहर में चला आया था। उन दिनों मैं बहुत अकेला और असुरक्षित रह गया था। आने वाले दिनों या भविष्य की ओर देखते हुए डर लगता था। मेरी पहली कहानी-'बिजली का बल्ब और मौत का फासला, जो कॉलेज मैगजीन में छपी, उसी अकेलेपन, असुरक्षा और भविष्य के डर से उपजी कहानी थी। आश्चर्य की बात यह कि वह कहानी कॉलेज में बहुत लोकप्रिय हुई और उसने कुछ ऐसे दोस्त बनाए, जो आज लगभग चालीस वर्ष बीत जाने के बाद भी मेरे दोस्त हैं। तब से मुझे लगातार यह लगता रहा है कि हमारे समय के वे सारे लोग, जो बिल्कुल साधारण, मामूली लोग हैं, जो किसी सत्ता, राजनीतिक व्यवस्था और किसी औपचारिक संस्था या संगठन के लोग नहीं हैं और अपनी बिल्कुल मामूली जिंदगी के सुख-दुख, हंसी-खुशी, रोग-शोक, राग-विराग, हार-जीत के बीच सांस लेते हुए अपना साधारण जीवन गुज़ार रहे हैं-उन सबके भीतर भी वही, मेरी कहानियों के पात्रों जैसा अकेलापन, लाचारी, असुरक्षा और डर मौजूद है।
संक्षेप में कहूं तो यह, कि मैं स्वयं और मेरी रचनाओं के ज़्यादातर पाठक, अपने समय, समाज और यथार्थ के हाशिए के लोग हैं। समय और समाज की जो केंद्रीय सत्ताएं हैं, यानी इस व्यवस्था की जो धुरी है, उसकी परिधि और उसके भी बाहर के लोगबाग। एक तरह के 'सबऑल्टर्न जीवन और अनुभव के लोग।
लेकिन यह भी एक सच है कि हाशिया हमेशा से केंद्र से बड़ा होता आया है। बड़ा, वृहत्तर और व्यापक। संसार के हाशिए में बहुत बड़ी जनसंख्या निवास करती है और अपना जीवन बिताती है। मेरी कहानियों की लोकप्रियता और शक्ति का मुख्य आधार शायद यही तथ्य है। मेरी कहानियां जब छपती है तो पाठकों के बहुत सारे पत्र और कई फोन आते हैं। ये पत्र उन लोगों के होते हैं, जो अपने समय के यथार्थ और उसकी तमाम सत्ताओं का दबाव अपने रोज़मर्रा के जीवन में अनुभव कर रहे होते हैं। हर रोज जन्म लेती और फिर मिटती उम्मीदों, अन्याय और विपत्तियों के सामने कभी जीतती, कभी हारती कोशिशों, अपने चारों ओर मौजूद विद्रूप से घबराकर किसी स्वप्न की ओर भागते और फिर वहां भी किसी दुस्वप्न में जागकर वापस जीवन और यथार्थ की ओर दौड़ते हुए लोग। बेरोजगार युवा, अतीत की 'एब्सर्ड' स्मृतियों में डूबे अकेले बूढ़े, भरपूर शिक्षा, योग्यता और प्रतिभा के बावजूद इस भ्रष्टतंत्र के द्वारा नौकरियों से वंचित, भीतर किसी बेचैनी, सामाजिक परिवर्तन की किसी धुंधली-सी उम्मीद में किसी नशे, अध्यात्म या फिर किसी राजनीतिक सामाजिक संगठन से जुड़े बर्बाद-व्याकुल युवा। कुछ ऐसे लोग भी, जो अपने समय और यथार्थ को ठीक-ठीक जानना और समझना चाहते हैं और उनके भीतर अब तक के तैयारशुदा जवाबों और इतिहास के हवालों के प्रति कोई गहरा विश्वास नहीं बचा है। यहां पर पॉल वेलेरी का एक कथन याद आता है कि मनुष्य के विचारों का समूचा इतिहास और कुछ नहीं, अनगिनत दुःस्वप्नों का छोटा-मोटा खेल भर है। ऐसे छोटे और मामूली खेल, जिनकी परिणतियां बहुत बड़ी होती हैं। जब कि इसके ठीक उलट, हम नींद में छोटी और मामूली परिणतियों वाले लेकिन बड़े और डरावने दुःस्वप्नों में से होकर गुज़रते हैं। मेरी कहानियों में ऐसे दुःस्वप्नों-स्वप्नों, जागरण और जीवन के अनगिनत खेल हैं, जिन्हें मेरे समय के पाठकों की बहुत बड़ी संख्या ने बहुत पसंद किया है। आलोचक अपनी किताबी भाषा में जिसे 'फैंटेसी' कहते हैं, वह मेरी कहानी में किसी भी जीवन के दुःस्वप्न और जागरण की परिणतियों का विवरण है।
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