हममें से जिन लोगों ने गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी की बातें प्रत्यक्ष रूप से सुनी हैं, वे समझ सकते हैं कि उन्हें लिपिबद्ध करना सरल नहीं है। उनकी बातचीत में एक विशेष लय है, लिखित रूप में उसे उसी लय के साथ प्रस्तुत करना कठिन है। गुरुजी मूलतः मौखिक परम्परा के व्यक्ति रहे हैं। मौखिक परम्परा के व्यक्ति को लिपिबद्ध करने में यह मुश्किल आना स्वाभाविक है।
उनकी बातों को लिपिबद्ध करने में दसरी दिक्कत उन्हें विभिन्न विषयों में विभक्त न कर पाना है। गुरुजी भारतीय ग्राम-व्यवस्थाओं एवं भारतीय समाज-व्यवस्थाओं की बातें किया करते थे। बातें करते-करते वे बहुत सहजता से व्यवस्थाओं के विभिन्न पहलुओं पर आसानी से आते-जाते रहते थे। शिक्षा के सम्बन्ध में बातें होते-होते कब वे शिल्प-कला के विस्तार में चली जातीं, कब वहाँ से होते-होते स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रवेश कर जातीं, और कब वहाँ से हमारी कलाओं, कारीगिरी, आदि से होते हुए टेक्नोलॉजी के सभ्यतागत पहलुओं पर पहुँच जातीं, पता ही नहीं चलता था। उनके इस तरह से बातचीत करने पर हमारी सभ्यता, हमारी व्यवस्थाओं के एक-दूसरे से इतनी मजबूती से जुड़ाव, उनके एक-दूसरे पर इतने अधिक निर्भर होने की बात तो पता चलती है, पर ये बातें लिपिबद्ध करने में उतनी ही मुश्किल जान पडती हैं।
इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, उनकी बातों को लिपिबद्ध करने के चरण में उन्हें विभिन्न तरह से प्रस्तुत करने के बारे में सोचा गया। एक तरह के प्रस्तुतिकरण में उनकी बातों को, खासकर उनकी कुछ जगहों पर हुई लम्बी बातचीत को बिना किसी विशेष सम्पादन के उनकी उसी लय को यथासम्भव बरकरार रखते हए, उन्हीं की भाषा में, उन्हीं के शब्द-विन्यासों के साथ प्रस्तुत करने की योजना बनी। इस प्रस्तुतिकरण के तहत गुरुजी की दो-तीन जगहों पर हुई (तीन-चार-पाँच दिनों की) लम्बी बातचीतों को लिपिबद्ध करके "भारत कथा' नाम की इस शृंखला के रूप में लगभग ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है।
महात्मा गाँधी की पुस्तक 'हिन्द स्वराज' की सौवीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में दिनांक 14 से 20 मई, 2009 को 'सिद्ध', मसूरी में सात दिवसीय गोष्ठी का आयोजन किया गया था। गोष्ठी में पहले दो दिन माननीय श्री सामदोंग रिनपोछे जी की बातचीत के बाद, अगले लगभग दो-ढाई दिन 'हिन्द स्वराज' और उसकी वर्तमान समय में प्रासंगिकता पर चर्चा हुई थी। उसके बाद लगभग ढाई-तीन दिनों के नौ सत्रों में गुरुजी श्री रवीन्द्र शर्मा जी की बातचीत रही। बैठक में आदरणीय रिनपोछे जी के अतिरिक्त कई अन्य विद्वतजन उपस्थित थे। गुरुजी की किसी सभा में इतनी लम्बी चलने वाली यह पहली बातचीत थी। इस दृष्टि से भी उनकी यह बातचीत महत्वपूर्ण हो जाती है। पुस्तक-शृंखला के प्रथम सोपान 'मसूरी संवाद, 2009' में तीन दिनों की उनकी इस बातचीत को लिपिबद्ध किया गया है।
यह मेरा सौभाग्य ही था कि गुरुजी के साथ मैं भी उस गोष्ठी में पूरे समय के लिए शामिल हो सका। यही वह बैठक थी, जहाँ पहली बार गुरुजी को एक साथ इतने लम्बे समय तक सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। तब तक गुरुजी से परिचय और सम्बन्ध स्थापित हुए मुझे लगभग सात वर्ष हो चुके थे। इसके पहले भी उनकी बातों को सुनने का अवसर मिला था, पर इस बार सुनने के बाद, उनके साथ ज़्यादा समय बिताने और उनकी बातों को समझने, लिपिबद्ध करने का निश्चय दृढ़ हो गया। इसके बाद दो-चार बार श्री पवन कुमार गुप्ता जी से इस सम्बन्ध में बातचीत भी हुई और लगभग दो वर्ष उपरान्त, सन् 2011 में मैं अपनी नौकरी-चाकरी छोड़कर पूरी तरह से गुरुजी के साथ समय बिताने के लिए निकल पड़ा।
गुरुजी की बातों के प्रस्तुतिकरण की इस शृंखला में उनकी दो-तीन अन्य लम्बी चर्चाओं को इसी प्रारूप में प्रस्तुत करने की योजना है।
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