शरीर की पूर्णता-अपूर्णता का प्रश्न किसी-न-किसी स्तर पर मन और जीवन की पूर्णता के प्रश्न से भी जुड़ जाता है! यह उपन्यास शुरू से लेकर आखिर तक इसी सवाल से जूझता है कि क्या सौन्दर्य के प्रचलित मानदंडों और समाज की रूढ़ दृष्टि के अनुसार एक अधूरे शरीर को उन सब इच्छाओं को पालने का अधिकार है जो स्वस्थ और सम्पूर्ण देहवाले व्यक्तियों के लिए स्वाभाविक होती हैं! उपन्यास की नायिका विदेशी भूमि पर अपना सहज और अल्पाकांक्षी जीवन जी रहे होती है कि अचानक उसे मालूम होता है, उसे स्तन-कैंसर है और यह बीमारी अन्तत: उसके शरीर से उसके सबसे प्रिय अंग को छीन ले जाती है! लेकिन मन! तमाम चोटों के बावजूद मन कब अधूरा होता है, वह फिर-फिर पूरा होकर मनुष्य से, जीवन से अपना हिस्सा माँगता है, अपना सुख! उषा प्रियम्वदा बारीक और सुथरे मनोभावों कि कथाकार रही हैं, उनके पात्र न कभी ऊँचा बोलते हैं, कभी बहुत शोर मचाते हैं, फिर भी जिन्दगी और अनुभूति की उन गलियों को आलोकित कर जाते हैं, जहाँ से गुजरना हर किसी के लिए उद्घाटनकारी होता हैं!
यह उपन्यास भी इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है! इसमें उन्होंने बहुत नई-सी दिखनेवाली कथाभूमि पर, बहुत सहज ढ़ग से मानव-मन चिरन्तन लालसाओं, कामनाओं, निराशाओं और उदासियों का अत्यन्त कुशल और सम्रग अंकन किया है!
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