प्रायः ढाई वर्ष हुए, 'राजस्थानी' की फ़ाइलें उलटते-पुलटते जनवरी, १६४० के अंकमें श्री अगरचंद नाहटा का 'बीसलदेव रासो' की हस्तलिखित प्रतियाँ शीर्षक लेख पढ़ा। उसमें नाहटाजी ने ग्रन्थ की एक दर्जन से अधिक प्राचीन प्रतियों का संक्षिप्त उल्लेख किया था। उस लेख को पढ़ने के अनन्तर ग्रन्थ के पाठ-निर्णय और पाठ-संपादन का विचार उत्पन्न हुआ। किन्तु प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए नाहटा जी से परिचय न होने के कारण मैंने श्रद्धेय डॉ० धीरेन्द्र वर्मा जी से इसकी चर्चा की, तो उन्होंने नाहटा जी को लिखा। श्रद्धेय डाक्टर साहब के पत्र का उत्तर देते हुए नाहटा जी ने ग्रन्य की प्रतियाँ इकट्ठी करके देना स्वीकार किया। इस देश में जहाँ प्रायः लोग प्रतियाँ दिखाना तक नहीं चाहते, उन्हें इकट्ठी करके उपयोग के लिए अन्य को देना बड़ी भारी उदारता का कार्य है। नाहटा जी का नाम उनकी इसी उदारता के नते ही इस ग्रंथ के एक सम्पादक के रूप में जा रहा है, अन्यथा शेष समस्त कार्य मेरा किया हुआ है, और उसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व मुझ पर ही है। नाहटा जी ने अर्थ के अंश को अंतिम रूप में देख कर उसमें लगभग एक दर्जन स्थलों पर सुधार के सुझाव भी दिए, जिन्हें ग्रहण कर लिया गया है। यह उनकी अतिरिक्त कृपा थी।
केवल आभार-निवेदन शेष है। श्रद्धेय डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा ने उपर्युक्त प्रकार से इस कार्य में मेरी सहायता की है, इसलिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। उक्त सहायता के बिना यह कार्य एक प्रकार से असंभव ही था। नाहटा जी के पूर्व भी मुझे अर्थ-निर्णय में प्रायः एक दर्जन स्थलों पर श्री नरोत्तमदास जी स्वामी तथा लगभग इतने ही स्थलों पर अपने पूर्ववर्ती छात्र और अब विश्वविद्यालय के सहयोगी श्री जगदीश प्रसाद गुप्त से भी सहायता मिली थी। इन सज्जनों का भी मैं आभारी हूँ। अब भी प्रायः एक दर्जन स्थल शेष हैं, जिनके अर्थों के सम्बन्ध में पूर्ण निश्चय नहीं हो सका है। प्राचीन ग्रन्थों के सम्बन्ध में इस प्रकार की कठिनाइयाँ रह जाना स्वाभाविक है। जो विद्वान् इस विषय में अपने सुझाव देंगे उनका भी मैं आभारी हूँगा। ग्रन्थ के अन्त में दी हुई अनु क्रमणिका मेरे छात्र श्री मिथिलेश कांत, एम्०ए० ने बनाई है। इसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।
ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ कुछ छपाई की भूलें रह गई हैं। पाठक कृपया उन्हें दिये हुए शुद्धि-पत्र को देख कर ठीक कर लें।
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