लोक यायावर देवेंद्र सत्यार्थी भारत की लोक संस्कृति के इतिहास पुरुष हैं, जिन्होंने कोई बीस वर्षों तक पूरे देश की परिक्रमा करते हुए, अपनी निरंतर पग-यात्राओं से देखते ही देखते भारत में एक नया सांस्कृतिक पुनर्जागरण प्रारंभ कर दिया। उनकी इन अनवरत लोकयात्राओं के कारण शहर के पढ़े-लिखे लोगों और विद्वानों का ध्यान अपनी लोक संपदा और लोक संस्कृति की ओर गया, और देखते ही देखते देश के अलग-अलग अंचलों के लोकगीत और लोककथाओं की खोज का एक महायज्ञ प्रारंभ हुआ, जिसे महात्मा गाँधी, गुरुदेव टैगोर, महामना मालवीय, के.एम. मुंशी, राजगोपालाचार्य और महापंडित राहुल सांकृत्यायन सरीखे राजनेताओं और विद्वानों का आशीर्वाद मिला। और फिर उचित ही, यह अभियान अपने सांस्कृतिक उत्स की पहचान के साथ-साथ, देश की आजादी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा बन गया।
'आजकल' संपादन के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो सत्यार्थी जी पूरे जीवन एक घुमंतू लोकयात्री ही बने रहे, जिन्होंने न कभी सफलता की परवाह की और न दुनियादारी की। चरैवेति-चरैवेति की धुन के साथ उनके पैर आगे, बस आगे बढ़ते रहे और नई-नई राहों का अनुसंधान करते रहे। पैसा उनके पास कभी नहीं रहा और न उन्होंने कभी उसकी चाह की। बस, किसी तरह उनकी जीवन सहचरी शांति सत्यार्थी जी की सिलाई मशीन से घर का खर्च चला और गुजर-बसर होती रही। सत्यार्थी जी इसी से संतुष्ट थे और जीवन की आखिरी साँसों तक अपने काम में जुटे रहे। यही उनका जीवन था, यही जीवन तप भी।
सत्यार्थी जी ने सिर्फ लोकगीतों की खोज ही नहीं की, बल्कि उन्हें नए-नए सृजनात्मक रूपों में भी ढाला। इस तरह लोक अध्ययन के क्षेत्र में 'धरती गाती है', 'बेला फूले आधी रात', 'धीरे बहो गंगा' और 'बाजत आवे ढोल' सरीखी अपनी कालजयी कृतियों के साथ ही उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र और यात्रा-वृत्तांत-साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हाथ आजमाया और अपनी प्रतिभा के संस्पर्श से उन्हें समृद्ध किया।
हालाँकि सत्यार्थी जी की कृतियों में उनकी आत्मकथा का पलड़ा शायद सबसे अधिक भारी है। यों उनकी कविता, कहानी और उपन्यासों की खासी धूम रही। और लोक साहित्य के तो वे मर्मज्ञ थे ही। जब वे लोकगीतों की बात करते तो लगता, जैसे प्रकृति माँ की गोद से रस का कोई झरना फूट पड़ा है, जिसमें भाव-स्नान करते हुए हमारी आत्मा भी निर्मल और पवित्र हो गई, है। सत्यार्थी जी की प्रायः सभी रचनाओं में भावनाओं का यह उन्मुक्त वेग है जो हमें अपने साथ बहा ले जाता है, और हम महसूस करते हैं कि थोड़ी देर के लिए हमारे मन और आत्मा पर पड़े हुए दुनियादारी के आवरण हट गए हैं। धरती के सुख-दुख के सीधे-सरल और नैसर्गिक गीतों के साथ ही हमारा मन भी एकाएक मगन होकर गाने लगता है।
लेकिन सत्यार्थी जी की आत्मकथा की तो बात ही कुछ और है। इसलिए कि उनकी आत्मकथा में ये सारी विधाएँ खुद-ब-खुद मिल जाती हैं, और उसमें ठुमरी के से मधुर बोल और आलाप सुनाई देते हैं। सत्यार्थी जी की कविताओं की स्वच्छंद लय हो या उनकी कहानियों की उस्तादाना किस्सागोई, उनके लोक साहित्य से फूटती धरती की गंध हो या उनके संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का अनोखा लालित्य, सबका सब मानो एक अनूठी लय में ढलकर उनकी आत्मकथा में समा जाता है। खासकर सत्यार्थी जी की आत्मकथा का पहला खंड 'चाँद-सूरज के बीरन' तो इस लिहाज से बेजोड़ है, जिसके शब्द-शब्द से कविता फूटती है।
सच पूछिए तो हिंदी में ऐसी कोई दूसरी आत्मकथा है ही नहीं, जो पढ़ते हुए मन पर इस कदर छा जाती है, कि थोड़ी देर के लिए समय को भी ठिठककर, एक कोने में बैठ जाना पड़ता है। ताकि सत्यार्थी जी की आत्मकथा पूरी हो, तो वह आगे चले।
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