प्राकृति (कुदरत) की रचना विष्णु भगवान, ब्रह्मा व दुर्गे भवानी द्वारा की है हमारे प्राचीन वेद ग्रंथो में वर्णन किया गया है।
संसार में तीनों लोकों व सात लोक में से पृथ्वी पर ही जीवन (जीव) सम्भव है। पृथ्वी पर नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, प्राणी, कीड़े-मकोड़े और मनुष्य योनियों का अनादि काल से प्रारूदभाव हुआ है। अर्थात भिन्न प्रकार के प्राणियों का उदय हुआ है। पृथ्वी में हवा ही भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणियों, वनस्पतियों, पेड़-पौधे, पर्वत-कन्दराओं, पानी, झरनों, पर्वतों, समुन्द्रर आदि का विभिन्न निर्माण किया है। कुदरत की अनोखी रचना को वैज्ञानिक भी मानते हैं। भूगर्भ, पृथ्वी व असीमित आकाश में नाना प्रकार के शोध करते रहते हैं। परन्तु सूर्य तो आग का गोला है इतनी दूरी से ही गर्मी देता है कि गर्मियों के दिनों में तो मनुष्य क्या अन्य प्राणी व वनस्पति भी सूर्य का तापमान सह नहीं पाते हैं। फिर भी वैज्ञानिकों ने सूर्य और पृथ्वी की दूरी का अनुमान लगा लिया है। इसलिए मनुष्य ही सब प्राणियों में श्रेष्ठ कहलाता है क्योंकि बुद्धि तो सभी प्राणियों में थोड़ी बहुत होती है। वनस्पति भी जीव की तरह गर्मी, सर्दी, बरसात का अनुभव करती है परन्तु सभी प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को कुदरत का अनोखा अनमोल खजाना वरदान के रूप में अलग से दिया गया है। मनुष्य में बुद्धि के साथ-साथ हाथ-पैर खड़े होकर चलने की शक्ति प्रदान की गई है। बुद्धि का विकास करके ही मनुष्य ने भाषा की लिखावट के रूप में रचना करके ही बड़े-बड़े ग्रंथों, पुस्तकों आदि की रचना की है। पुस्तकों व ग्रन्थों को पढ़ लिखकर पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ा लिखाकर तरह-तरह के विद्धानों, डॉक्टरों, वकीलों, प्रोफेसरों आदि का निर्माण अथवा बनाया है। इस प्रकार मनुष्य ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है। इसलिए मनुष्य अपने को सृष्टि में सभी जीवों से श्रेष्ठ मानता है। परन्तु प्राकृति (कुदरत) द्वारा इस नश्वर संसार में सभी प्राणियों, जीवों, जन्तुओं, पेड़-पौधों, पशुओं आदि की भी मृत्यु निश्चित की गई है। कहने का तात्पर्य है कि समय-समय पर सभी का विनाश अस्वभाविक है। सभी का जीवन भिन्न-भिन्न आयु या वर्षों के बाद नष्ट-भ्रष्ट होना ही अति आवश्यक है। इसलिए कहा गया है संसार में कोई भी अजर-अमर नहीं है। अतः मनुष्य का जीवन भी निश्चित समय पाकर इस नश्वर संसार से विदा लेकर मृत्यु की गोद में समा जाता है।
मनुष्य की जिंदगी को सौ (100) वर्ष की माना गया है। किसी-किसी विद्धान ने मनुष्य की जिंदगी को तीन भागो में विभाजित करके बाँटा गया है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा।
किसी विद्धान ने मनुष्य की जिंदगी को चार आश्रमों में बाँटा गया है।
ब्रह्मचर्य जीवन, गृहस्थी जीवन, सन्यास आश्रम व वानप्रस्थ आश्रम। इस प्रकार जीवन को व्यतीत करते हुए अपनी छोटी सी जिंदगी को सफल व धन्य तथा खुशियों से भरपूर जीते हुए इस लोक से गमन करे। परन्तु मनुष्य अपने आपको सभी प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ मानता है। श्रेष्ठता से ही अंहकार का उदय होना पाया जाता है अर्थात अंहकार उत्पन्न होता है। अंहकार ही मनुष्य को गर्त में मिलाता है। अंहकार से कारण, क्रोध, लोभ, घृणा, ईष्या, जलन व मोह आदि की भी उत्पत्ति हो जाती है। परन्तु मनुष्य को इन सब पर बुद्धि द्वारा ही काबू पाया जाना सम्भव है जो कि बहुत ही कठिन कार्य है।
अंहकार, लोभ, ईष्या, जलन, क्रोध, घृणा आदि अवगुणों पर काबू पाना, तलवार की धार पर चलना होता है। इन पर काबू रखने के लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि-विवेक को विकसित करके शील गुणों को सीखकर शान्ति, सच्चाई, ईमानदारी, धैर्य, सहनशीलता व क्षमा आदि गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहिये।
श्रेष्ठ मनुष्य को दुर्व्यसनों का त्यागकर शील गुणों को अपने जीवन में धारण करके इस "छोटी सी जिंदगी” को बड़े ही स्नेह व प्यार से सहयोग व मेल-मिलाप तथा आपस में भाई-चारे के साथ जीना चाहिये।
पाठकों से आशा ही नहीं विश्वास भी करता हूँ कि अपनी जिंदगी में शील गुणों को धारण करके, अवगुणों व दुर्व्यसनों को त्याग करके ही अपनी जीवन रूपी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाएगें।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist