हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के साथ आगे पढ़ने की इच्छा बलवती होती रही। पारिवारिक सामाजिक व्यवधान के कारण बात टलती रही। एम. फिल. के अभ्यास के दौरान शिथिल संपर्क सूत्र और दृढ़ हुए। डॉ० आलोक गुप्तजी से एम.ए. वें पढ़ा था, फिर नौकरी, परिवार के कारण आगे की पढ़ाई खटाई में पड़ी। फिर से संकल्प किया और आदरणीय आलोकजी ने नाटकों के प्रति मेरी रुचि देख; हिन्दी नाटककार मोहन राकेश और गुजराती नाटककार मधुराय के नाटकों पर तुलनात्मक अध्ययन करने का सुझाव दिया। इस संदर्भ में गुरुवर डॉ० महावीर सिंह चौहान का परामर्श भी मूल्यवान बना। बी.ए. में 'आषाढ़ का एक दिन' और एम.ए. में 'लहरों के राजहंस' पढ़ने का सुअवसर मिला था। डॉ० साहब ने मेरी नाट्य रुचि को जाना और इन दोनों नाटककारों पर शोध-कार्य करना तय हुआ।
मोहन राकेश हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित नाटककार हैं, इसलिए इनके नाट्य साहित्य को प्राप्त करना आसान रहा, पर गुजराती नाटककार मधुराय गुजरात में नाट्य आंदोलन को हवा देकर विदेश जा बसे, उनकी अपनी नाट्य प्रवृत्ति तो चलती रही पर नाटकों को प्रकाशित करने में वे कुछ उदास ही रहे। अतः उनके तीसरे नाटक की पांडुलिपि प्राप्त कर संतोष मानना पड़ा।
अध्ययन की सुविधा के लिए मैंने मोहन राकेश के दीर्घ नाटक 'आषाढ़ का एक दिन', 'लहरों के राजहंस', 'आधे-अधूरे' और 'पैर तले की जमीन' के उपरांत 'अंडे के छिलके अन्य एकांकी तथा बीज नाटक' संग्रह से चार रंग-एकांकी पसंद किये हैं; जो रंगमंच पर प्रस्तुत करने के उद्देश्य से लिखे गये हैं।
मधुराय के नाट्य साहित्य में 'कोई पण एक फूलनुं नाम बोलो तो?' और 'कुमारनी अगाशी' तो प्रकाशित नाटक है, जो मिले। पर उनका तीसरा नाटक 'पानकोर नाके जई' ढूँढने में काफी समय लगा। यह भी प्रि. डॉ० सुभाष ब्रह्मभट्ट के सौजन्य से प्राप्त हुआ। इस प्रकार उनके तीन दीर्घ नाटक और 'अश्वत्थामा' एकांकी संग्रह के पाँच एकांकियों को अपने अध्ययन के अन्तर्गत समाहित किया है।
विषय की नवीनता एवं मौलिकता इस शोध-प्रबंध की विशेषता है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी रंग नाटकों में मोहन राकेश लिखित 'आषाढ़ का एक दिन' के प्रकाशन और मंचन के बाद हिन्दी रंगमंच का कलेवर ही बदल गया और नाट्य आंदोलन के सूत्र मोहन राकेश के हाथों में ही आ गये। उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता और रंगदृष्टि के द्वारा हिन्दी रंग नाटकों को एक नयी ऊँचाई दी। रंगमंच के अपने जीवन्त सक्रिय संपर्क के कारण 'लहरों के राजहंस' की प्रस्तुति एवं अनामिका संस्था के अभिनेता-निर्देशक-श्यामानंद जालान के साथ चर्चा के दरम्यान नये नाट्य स्वरूप को विकसित किया है। तो 'आधे अधूरे' की प्रस्तुति के दौरान ओम शिवपुरी और सुधा शिवपुरी से अपने सार्थक नाट्य-बिम्ब की चर्चाएँ, उनके नाट्य एवं रंगमंच सम्बन्धी चिंतन और चिंता को ही व्यक्त करते हैं। नयी नाट्य-भाषा एवं व्यावहारिक रंगमंच उन्हीं की देन है। शौकिया-मंडलियों के अर्थाभाव के बावजूद राकेश के नाटक सफलतापूर्वक खेले जा सके। इनके नाटक इतने सरल लेकिन दृश्यबंध सक्षम हैं।
मधुराय का गुजराती साहित्य में आगमन सातवें दशक के उत्तरार्ध में होता है। 'कोई पण एक फूलनु नाम बोल तो ?' मृणालिनी साराभाई के निर्देशन में 'दर्पण' संस्था द्वारा प्रस्तुत किया गया। नाटक में 'इम्प्रोवाइजेशन' के ख्याल के रहस्य नाटक के स्वरूप में मधुराय ने व्यक्ति के अन्तर्मन को खंगालने का काम किया है। नाट्य प्रस्तुति के साथ ही मधुराय गुजराती के प्रयोगधर्मी नाटककार के रूप में उभरते हैं।
'कुमारनी अगाशी' उनका दूसरा प्रयोगशील नाटक है। इन दोनों नाटकों ने गुजराती रंगभूमि और नाट्य साहित्य को नये आयाम दिये। अपने नाटकों के लिए यथार्थवादी प्रतीकात्मक एवं कल्पनाशील रंगमंच को अपनाया। सारे दृश्यबन्धों के माध्यम से वे अपने नाट्य-बिम्ब को प्रस्तुत करते हैं। नाटक के लिए हरकत की भाषा और विशिष्ट नाट्य-स्थितियों का चयन करते हैं। 'पानकोर नाके जाके' नाटक का हिन्दी में प्रकाशन हुआ है। नाटकों को रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुत कर, बाद में ही प्रकाशन का उनका लक्ष्य रहा है। गुजराती नाट्य प्रवृत्ति को सक्रियता प्रदान कर आंदोलन का रूप देने के लिए 'आकंठ साबरमती' नाम से एक संस्था की स्थापना करते हैं। मृणालिनी बहन, कैलास पंड्या, दामिनी मेहता, प्रवीण जोशी जैसे गुजराती रंगभूमि के निर्देशक-अभिनेता और राजिन्दरनाथ, सत्यदेव दुबे जैसे हिन्दी के निर्देशकों के साथ विमर्श कर गुजराती रंगभूमि को नये नाट्य आंदोलन से जोड़ते हैं। उपर्युक्त दोनों नाटकों का हिन्दी अनुवाद और हिन्दी रंगमंच पर सफलतापूर्वक मंचन हुआ है। एकांकी भी उन्होंने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करवाये हैं।
भारतीय नाट्य साहित्य को प्रभावित करने वाले दो नाटककारों के नाट्य साहित्य का अध्ययन-अनुशीलन मेरा उपक्रम रहा है। हिन्दी और गुजराती रंग-नाटकों को आने वाले समय में अपनी मौलिकता द्वारा रंगमंच को प्रभावित करने वाले ये दोनों नाटककार भारतीय भाषाओं में अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं और रखेंगे।
अध्ययन की सुविधा के लिए मैंने अपने शोध-प्रबंध को निम्न पाँच अध्यायों में विभाजित किया है।
शोध-प्रबंध के प्रथम अध्याय में हिन्दी एवं गुजराजी नाटकों के विकास क्रम को रेखांकित करते हुए मोहन राकेश और मधुराय के अवदान की चर्चा की गयी है। द्वितीय अध्याय में मोहन राकेश के नाट्य साहित्य का कथावस्तु, कथावस्तु विश्लेषण, पात्र-सृष्टि और रंग दृष्टि का मूल्यांकन एवं उनके रंग-एकांकियों का कथ्य-शिल्प आधारित मूल्यांकन किया है।
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