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सम्पूर्ण काव्य- Complete Poetry by Jaishankar Prasad (An Old and Rare Book)

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Jaishankar Prasad
Language: Hindi
Pages: 336
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 440 gm
Edition: 2003
ISBN: 8188571024
HBM851
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Book Description

आमुख

आर्य-साहित्य में मानवों के आदिपुरुष मनु का इतिहास वेदों से लेकर पुराण और इतिहासों में बिखरा हुआ मिलता है। श्रद्धा और मनु के सहयोग से मानवता के विकास की कथा को, रूपक के आवरण में, चाहे पिछले काल में मान लेने का वैसा ही प्रयत्न हुआ हो जैसा कि सभी वैदिक इतिहासों के साथ निरुक्त के द्वारा किया गया, किन्तु मन्वन्तर के अर्थात् मानवता के नवयुग के प्रवर्तक के रूप में मनु की कथा आर्यों की अनुश्रुति में दृढ़ता से मानी गयी है। इसलिए वैवस्वत मनु को ऐतिहासिक पुरुष ही मानना उचित है। प्रायः लोग गाथा और इतिहास में मिथ्या और सत्य का व्यवधान मानते हैं। किन्तु सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है। आदिम युग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने ज्ञानोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत्त. संगृहीत किये थे, उन्हें आज गाथा या पौराणिक उपाख्यान कहकर अलग कर दिया जाता है; क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच में सम्बन्ध लगा हुआ सा दीखता है घटनाएँ कहीं-कहीं अतिरंजित-सी भी जान पड़ती हैं। तथ्य संग्रहकारिणी तर्कबुद्धि को ऐसी घटनाओं में रूपक का आरोप कर लेने की सुविधा हो जाती है। किन्तु उनमें भी कुछ सत्यांश घटना से सम्बद्ध है ऐसा तो मानना ही पड़ेगा। आज के मनुष्य के समीप तो उसकी वर्तमान संस्कृति का क्रमपूर्ण इतिहास ही होता है; परन्तु उसके इतिहास की सीमा जहाँ से प्रारम्भहोती है ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना की दृढ़ और गहरे रंगों की रेखाओं से, बीती हुई और भी पहले की बातों का उल्लेख स्मृति पट पर अमिट रहता है; परन्तु कुछ अतिरंजित-सा। वे घटनाएँ आज विचित्रता से पूर्ण जान पड़ती हैं। सम्भवतः इसीलिए हमको अपनी प्राचीन श्रुतियों का निरुक्त के द्वारा अर्थ करना पड़ा जिससे कि उन अर्थों का अपनी वर्तमान रुचि से सामंजस्य किया जाय।

यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाघ्य है। यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में समर्थ हो सकता है। आज हम सत्य का अर्थ घटना कर लेते हैं। तब भी उसके तिथि-क्रम मात्र से सन्तुष्ट न होकर, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते हैं। उसके मूल में क्या रहस्य है? आत्मा की अनुभूति ! हाँ उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है। फिर वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव में परिणत हो जाती हैं। किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरंतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग-युग के पुरुषों की और पुरुषार्थों की अभिव्यक्ति रहती है।

जल-प्लावन भारतीय इतिहास में एक ऐसी ही प्राचीन घटना है जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। वह इतिहास ही है। 'मनवे वै प्रातः' इत्यादि से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवें अध्याय में मिलता है। देवगण के उच्छृंखल स्वभाव, निर्वाध आत्मतुष्टि में अन्तिम अध्याय लगा और मानवीय भाव अर्थात् श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर प्राणी को एक नये युग की सूचना मिली। इस मन्वन्तर के प्रवर्त्तक मनु हुए। मनु भारतीय इतिहास के आदि पुरुष हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध इन्हीं के वंशज हैं। शतपथ ब्राह्मण में उन्हें श्रद्धादेव कहा गया है, 'श्रद्धादेवो नै मनः' (का. १ प्र. १) भागवत में इन्हीं वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय पीट की प्रारम्भ माना गया है।

"ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान् ।"

(६-१-११) छान्दोग्य उपनिषद् में मनु और श्रद्धा की भावमूलक व्याख्या भी मिलती है। "यदावै श्रद्धधाति अथ मनुते नाऽश्रद्धधन् मनुते" यह कुछ निरक्त की-सी व्याख्या है। ऋग्वेद में श्रद्धा और मनु दोनों का नाम ऋषियों की तरह मिलता है। श्रद्धा वाले सूक्त में सायण ने श्रद्धा का परिचय देते हुए लिखा है, "कामगोत्रजा श्रद्धानामर्षिका"। श्रद्धा कामगोत्र की वालिका है, इसीलिए श्रद्धा नाम के साथ उसे कामायनी भी कहा जाता है। मनु प्रथम पथ-प्रदर्शक और अग्निहोत्र प्रज्ज्वलित करने वाले तथा अन्य कई वैदिक कथाओं के नायक हैं: "मनुर्हवा अग्रे यज्ञेनेजे; यदनु-कृत्येमाः प्रजा यजन्ते" (५-१ शतपथ)। इनके सम्वन्ध में वैदिक साहित्य में बहुत-सी बातें बिखरी हुई मिलती हैं; किन्तु उनका क्रम स्पष्ट नहीं है। जल-प्लावन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण के प्रथम काण्ड के आठवें अध्याय से आरम्भ होता है; जिसमें उनकी नाव के उत्तरगिरि हिमवान प्रदेश में पहुँचने का प्रसंग है। वहाँ ओघ के जल का अवतरण होने पर मनु भी जिस स्थान पर उतरे उसे मनोरवसर्पण कहते हैं। 'अपीपरं वै त्वा, वृक्षे नावं प्रतिवघ्नीष्व, तं तुत्वा मा गिरी सन्त मुदकमन्तश्चैत्सीद् यावद् यावदुदकं समवायात् तावत तावदन्ववसर्पासि इति स ह तावत् तावदेवान्ववसमर्प। तदप्येतदुत्तरस्य गिरे मनोरवसर्पणमिति । (८-१)"

इस यज्ञ के बाद मनु में जो पूर्व-परिचित देव-प्रवृत्ति जाग उठी; उसने इड़ा के सम्पर्क में आने पर उन्हें श्रद्धा के अतिरिक्त एक दूसरी ओर प्रेरित किया।

इड़ा के सम्बन्ध में शतपथ में कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूर्ण योषिता को देखकर मनु ने पूछा कि "तुम कौन हो?" इड़ा ने कहा, "तुम्हारी दुहिता हूँ।" मनु ने पूछा कि "मेरी दुहिता कैसे?" उसने कहा, "तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है।" "तां ह" मनुरुवाच "का असि" इति। "तव दुहिता" इति। "कथं भगवति ? मम दुहिता" इति। (शतपथ ६ प. ३ ब्रा.)

इड़ा के लिए मनु को अत्यधिक आकर्षण हुआ और श्रद्धा से वे कुछ खिंचे। ऋग्वेद में इड़ा का कई जगह उल्लेख मिलता है। यह प्रजापति मनु की पथ-प्रदर्शिका मनुष्यों का शासन करने वाली कही गयी है। "इड़ामकृण्वन्मनुषस्य शासनीम्" (१-३१-११ ऋग्वेद)। इड़ा के सम्बन्ध में ऋग्वेद में कई मन्त्र मिलते हैं "सरस्वती साधयन्ती धियं न इड़ा देवी भारती विश्वमूर्तिः तिस्रो देवीः स्वधयावर्हिरदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य।" (ऋग्वेद-२-३-८) "आनो यज्ञं भारती तूय मेत्विड़ा मनुष्वदिह चेतयन्ती। तिस्रो देवी र्वर्हिहेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु" । (ऋग्वेद -१०-११०-८) इन मन्त्रों में मध्यमा, वैखरी और पश्यन्ती की प्रतिनिधि भारती, सरस्वती के साथ इड़ा का नाम आया है। लौकिक संस्कृत में इड़ा शब्द पृथ्वी अर्थात् बुद्धि, वाणी आदि का पर्यायवाची है "गो भू वाचस्त्विड़ा इला" -(अमर)। इस इड़ा या वाक् के साथ मनु या मन के एक और विवाद का भी शतपथ में उल्लेख मिलता है जिसमें दोनों अपने महत्त्व के लिए झगड़ते हैं। -"अथातोमनसश्च" इत्यादि (४ अध्याय ५ ब्राह्मण) ऋग्वेद में इड़ा को धी, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। पिछले काल में सम्भवतः इड़ा को पृथ्वी आदि से सम्बद्ध कर दिया गया हो, किन्तु ऋग्वेद ५-५-८ में इड़ा और सरस्वती के साथ मही का अलग उल्लेख स्पष्ट है। "इड़ा सरस्वती मही तिस्रोदेवी मयोभुवः से मालूम पड़ता है कि मही से इड़ा भिन्न है। इड़ा को मेघसंवाहिनी नाड़ी भी कहा गया है।

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