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देवदासियों का कहना है... (मनोधर्मपरागम्): Devdasiyon Ka Kahna Hai… (Sahitya Akademi Award Winning Telugu Novel Manodharmaparagam)

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Specifications
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Author Madhuranthakam Narendra
Language: Hindi
Pages: 383
Cover: PAPERBACK
9.0x5.5 Inch
Weight 500 gm
Edition: 2025
ISBN: 9789361830006
HCA535
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Book Description

पुस्तक परिचय

 

देवदासियों का कहना है... साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत तेलुगु उपन्यास मनोधर्मपरागम् का हिंदी अनुवाद है। यह संगीत-प्रधान पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। ऐसी पृष्ठभूमि हमें विरले ही मिलती है। संगीत को ही अपना अवलंब बनाकर जीती रही देवदासियों के ये आत्मकथ्य हैं। यहाँ अनेक कंठस्वर प्रधान चरित्र के जीवनराग का आलाप करते हुए उतनी ही स्पष्टता के साथ अपना भी स्वर सुनाते हैं। स्त्रियों को भोग-सामग्री के रूप में देखनेवाले उस तरह के वातावरण में (1850-1900) ये देवदासियों यह नहीं मानती थीं कि पुत्र पैदा होगा, तो पुम् नामक नरक से रक्षा करेगा। अपनी दीन स्थिति में वे यही मानती थीं कि लड़की पैदा होने से ही उनके जीवन को आसरा मिलेगा, क्योंकि संगीत और नृत्य, ये कलाएँ ही उनके जीवन का अवलंब थीं। ऐसे दलदल में से ही अनेक कलापुष्पों का आविर्भाव हुआ था। दमघोंटू देवदासी प्रथा की अँजुरी के बीच के अवकाशों में से टपक पड़ी एक कला-सरस्वती की यह कहानी है। लेकिन असल में यह एक कंठ से निकली कहानी नहीं है। यहाँ अनेक आर्त्त और त्रस्त स्त्रियाँ अपना स्वर मिलाती हैं। अपनी व्यथाकथाएँ बयान करती हैं। ये कहानियाँ सी साल पहले के तंजावूरु, मदुरै जैसे नगरों की देवदासियों का अक्षररूप आत्म प्रकाशन हैं। संगीत के इन स्वरों के पीछे छिपे आत्मक्रंदन को समझने की आवश्यकता है।

 

लेखक परिचय

 

मधुरांतकम् नरेंद्र (1957) साहित्यकारों के परिवार में जन्मे तेलुगु के एक विशिष्ट लेखक हैं। आपके पिता मधुरांतक राजाराम भी साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत प्रसिद्ध लेखक हैं और आपके छोटे भाई महेंद्र भी तेलुगु के जाने-माने साहित्यकार हैं। कहानियों से आरंभ करके अन्य सभी साहित्यिक विधाओं में आपने अपनी प्रतिभा विकसित की है। अब तक आपकी सौ से अधिक कहानियाँ, सात उपन्यास, बारह लघु नाटक, अनेक कविताएँ और साहित्य आलोचना के निबंध प्रकाशित हैं। श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर रहे श्री नरेंद्र ने अंग्रेज़ी में भी रचनाएँ की हैं। कथा पुरस्कार, मद्रास तेलुगु अकादमी का पुरस्कार, मेक्सिको विश्वविद्यालय का सम्मान, 'आज तक' का साहित्य जागृति सम्मान समेत अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से ये समादृत हैं।

 

जे.एल. रेड्डी (जन्म 1940) दयाल सिंह कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में वरिष्ठ हिंदी प्राध्यापक पद से निवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। आपने कई महत्त्वपूर्ण तेलुगु कृतियों का हिंदी में और हिंदी कृतियों का तेलुगु में अनुवाद किया है जो साहित्य अकादेमी, भारतीय ज्ञानपीठ, नेशनल बुक ट्रस्ट, राजकमल प्रकाशन आदि प्रकाशन संस्थाओं द्वारा प्रकाशित हैं। आप साहित्य अकादेमी के अनुवाद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के सौहार्द पुरस्कार समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हैं।

 

प्रस्तावना

 

साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत यह तेलुगु उपन्यास तीन प्रकार से विशिष्ट और विचित्र है। एक: यह संगीत-प्रधान पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। ऐसी पृष्ठभूमि हमें विरले ही मिलती है। दोः संगीत को ही अपना अवलंब बनाकर जीती रही देवदासियों के ये आत्मकथ्य हैं। यहाँ अनेक कंठस्वर प्रधान चरित्र के जीवनराग का आलाप करते हुए उतनी ही स्पष्टता के साथ अपना भी स्वर सुनाते हैं। स्त्रियों को भोग-सामग्री के रूप में देखनेवाले उस वातावरण में (1850-1900) ये देवदासियाँ यह नहीं मानती थीं कि पुत्र पैदा होगा, तो पुम् नामक नरक से रक्षा करेगा। अपनी दीन स्थिति में वे यही मानती थीं कि लड़की पैदा होने से ही उनके जीवन को आसरा मिलेगा, क्योंकि संगीत और नृत्य, ये कलाएँ ही उनके जीवन का अवलंब थीं। ऐसे दलदल में से ही अनेक कलापुष्पों का आविर्भाव हुआ था। दमघोंटू देवदासी प्रथा की अँजुरी के बीच के अवकाशों में से टपक पड़ी एक कला-सरस्वती की यह कहानी है। असल में यह एक कंठ से निकली कहानी नहीं है। यहाँ अनेक आर्त्त और त्रस्त स्त्रियाँ अपना स्वर मिलाती हैं। अपनी व्यथाकथाएँ बयान करती हैं। ये कहानियाँ सौ साल पहले के तंजावूरु, मदुरै जैसे नगरों की देवदासियों का अक्षररूप आत्म प्रकाशन हैं। संगीत के इन स्वरों के पीछे छिपे आत्मक्रंदन को समझने की आवश्यकता है। तीन : कथा-कथन की विशिष्ट शैली। किसी व्यक्ति में जो प्रतिभा की सुगंध होती है, उसे संसार में बिखेरने के लिए स्वशक्ति यदि पर्याप्त नहीं है, तो उस व्यक्ति को किसी के सहारे की आवश्यकता होती है। विशेषकर स्त्री के लिए। प्रतिभा का अन्वेषण करके उसकी सुगंध दूर तक बाँटने के मामले में संसार की कोई रुचि नहीं होती। इस उपन्यास में नागलक्ष्मी विश्वविख्यात गायिका है। संगीत से ही उसने जन्म लिया है। स्वयं संगीत बनकर जीती रही। संगीत के विश्वमंच पर चढ़ने के लिए जिस व्यक्ति ने उसे सहारा दिया, उस व्यक्ति को उसने अपनी समस्त इच्छा अनिच्छाएँ और समस्त भावोद्वेग समर्पित कर दिए। जिस व्यक्ति ने उसे केवल एक पोषिता की नहीं, बल्कि पत्नी की हैसियत दी और परिवार के झंझटों से मुक्त कर संगीत की साम्राज्ञी बनाया, उस व्यक्ति का उसने बिना किसी प्रतिरोध के अनुसरण किया। घर में, गान-सभाओं में, वेशभूषा के विषय में, उस व्यक्ति की अनुचरी बनी रही। आर्थिक मामले, पारिवारिक निर्णय, कुछ भी उसके अपने नहीं थे। समकालीन किसी भी गायिका को जो नहीं मिले, विदेशों में अपनी कला के प्रदर्शन के वे अवसर उसे मिले। लेकिन क्या उसने इस सब पत-प्रतिष्ठा और मान-सम्मान का आस्वादन किया था? कह नहीं सकते। इस पूरे उपन्यास में उसने कभी हमसे अपने सुख-दुख नहीं बाँटे हैं। अपना अंतरंग नहीं खोला है। उसके पति विश्वनाथन की भाँजी अभिराम सुंदरी के अनुसार उसके लिए संगीत द्वारा मिले यश और सम्मान से अधिक महत्त्वपूर्ण था, एक गृहिणी बनकर रहना। उसने अपने जीवन में साहस का एक ही काम किया था, और वह था, किसी पोषक के पोषण में, परदे की आड़ में छिपी गुड़िया की तरह रह जाना उसे रास नहीं आया, तो भागकर मद्रास चली गई। उसके बाद से वह पति विश्वनाथन-रूपी विधि के ही अधीन रही। उपन्यास में अनेक पात्रों द्वारा कहानी को आगे बढ़ाने की प्रविधि को अपनाया गया है। लेखक ने अनेक स्त्रियों के आत्मकथनों द्वारा तत्कालीन देवदासी प्रथा और उन स्त्रियों के जीवन संघर्ष का प्रभावी अंकन किया है

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