अवध की प्राचीन भौगोलिक सीमा का अनुशीलन करते हुए डॉ० आलोक मणि त्रिपाठी ने दक्षिण में इसकी सीमा स्यन्दिका या सई, हिमालय की तराई, गंगा, राम गंगा, गोमती, राप्ती तथा पूर्व में विदेह की सीमा पर सदानीरा, काशी की ओर गंगा जिसमें जौनपुर, आरा, बलिया और आगे सोन तक है, उसकी सीमा को बुंदेलखण्ड एवं अवन्ति तक विस्तृत बताया है। प्रो० विशुद्धानन्द पाठक जी ने भी इन सीमाओं की ओर संगोष्ठी में निर्देश किया। पुण्य सलिला सरयू के स्त्रोत का अवगाहन करते हुए डॉ० त्रिपाठी जी ने कहा कि इसी पुण्यतोया सरयू के दक्षिण तट पर स्थित अयोध्या के सूर्य वंशी राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ का सम्पादन किया था। पाणिनि की अष्यध्यायी, योगिनीतंत्र एवं कालिका पुराण में इसे पवित्र नदी कहा गया है। यह पुण्य सलिला सरयू, मिलिन्दपन्हों एवं विनयपिटक में 'सरभू' नाम से उल्लेखित है। टालेमी ने इसे 'सरबोस' कहा है। कुमायूँ पर्वत से निकलकर काली नदी से मिलकर यह सरयू ही घाघरा या देविका या देवा कहलाती है। इस तरह हिमालय से निकलकर मैदान में यह सरयू, घाघरा, देहवा या देविका कही जाती है। रामायण एवं महाभारत में इसे मानसरोवर से निःसृत बताया गया है। सारन जिला छपरा के पास यह गंगा से मिलती है।
कोशल के प्राकृतिक वैभव, वनों, उपवनों, नदियों एवं व्यापारिक केन्द्रों की चर्चा में साकेत एवं श्रावस्ती से सम्बद्ध तीन व्यापारिक महापथों का उल्लेख मिलता है, जो भारतवर्ष के महत्त्वपूर्ण महानगरों तथा समुद्रतट तक कोशल को जोड़ते थे। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि बुद्धकाल में श्रावस्ती एक सुविकसित नगरीय सभ्यता का केन्द्र थी।
अवध के पुरातात्त्विक एवं परम्परागत इतिहास की चर्चा के प्रसंग में इतिहास के स्स्रोत, ऐतिहासिक काल के राजाओं, राजवंशों, गणतंत्रों के संदर्भगणतंत्रों को आज के प्रजातंत्र के गौरव कहा गया है। वैदिक यज्ञों, अश्वमेध यज्ञों एवं स्कन्धावार की परम्परा का उल्लेख करते हुए ब्राह्मण एवं वैदिक धर्मों, शैवों, पाशुपतों, वैष्णवों, शाक्तों, बौद्ध एवं जैन धर्मों का अवध में प्रभूत विकास हुआ। अवध क्षेत्र को सभी धर्मों का आदर्श पुण्य क्षेत्र कहा गया है। जहाँ बौद्ध धर्म एशियाई एवं विश्व प्रसिद्ध महायान एवं हीनयान के कलेवर पर द्विधा विभक्त होकर अस्तित्व में आया। नाथों, सिद्धों, गोरक्षनाथ की परम्परा एवं तांत्रिक धर्मों की ध्वनि यही ध्वनित हुई।
भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ द्रविड़ देश में हुआ। भक्ति आन्दोलन को रामानुज एवं रामानंद के द्वारा फैलाया गया तथा बाद में कबीरदास, संत तुलसीदास तथा सूफी संतों ने प्रचार-प्रसार किये। भक्ति आन्दोलन हिन्दू-मुस्लिम समन्वय एवं जागरण का कारण बना। अयोध्या की परम्परा में यहाँ के संतों, भक्तों, प्राचीन काल में आये विदेशी यात्रियों, वैरागियों, क्रांतिकारियों आदि सभी का उल्लेख मिलता है।
अवध के इतिहास को देखकर ही मेरे मस्तिष्क में अवध क्षेत्र के भक्ति आन्दोलन पर शोध करने का विचार प्रस्फुटित हुआ। सौभाग्य वश हमें "अवध में श्रीराम भक्ति आन्दोलन का विकास" शीर्षक पर शोध कार्य हेतु विषय भी स्वीकृत हो गया। प्रस्तुत ग्रन्थ हमारे उक्त शोध प्रबन्ध का ही परिशोधित एवं प्रकाशित रूप है। भक्ति आन्दोलन से अभिप्राय उस वैष्णव भक्ति से है जिसका अभ्युदय भागवत पुराण के अनुसार द्रविण देश में हुआ। जो कर्नाटक में बढ़ी तथा गुजरात में बूढ़ी हुई। जो महाराष्ट्र में विस्तरित हुई और अपने नये रूप में मथुरा तथा वृन्दावन में प्रस्फुटित हुई। दक्षिण के महान संतों ने मुस्लिम आक्रमण से त्रस्त होकर उत्तर की ओर पलायन किया और भक्ति का प्रसार उत्तर भारत में हुआ जिसमें रामानुज और उनके शिष्य रामानंद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। राम भक्ति परम्परा को इसी परम्परा के संतों और भक्तों ने प्रसारित किया। जिसमें तुलसीदास जैसे महान भक्त और श्रीरामचरितमानस के महान लेखक भी हुए है। इस समय तक मथुरा, वृन्दावन राधा-कृष्ण भक्ति का केन्द्र हो चुका था, और अयोध्या किंवा अवध राम भक्ति का केन्द्र बना। अवध में हनुमान भक्ति भी पुष्पित पल्लवित हुई। इसी समय संतों, वैरागियों, नाथों, सिद्धों और निर्गुण भक्ति का केन्द्र भी अवध बना।
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