भारतीय संस्कृति को जीवित जाग्रत रखने में भारतीय सन्तों का एक महान् योगदान है। उन्होंने अपनी दिव्यशक्ति, प्रभाव-शाली जीवन और अलौकिक प्रतिभा से तत्कालीन जनता के हृदयों में जहाँ धर्म की भावना को अक्षुण्ण बनाये रखा, उसके साथ ही कालचक्र के प्रभाव से तथा अविद्या आदि अन्य कारणों से आई हुई बुराइयों को दूर करने में भी बड़ा योग दिया है।
इस सन्त-परम्परा के अधिकतर सन्त कवि भी हुए हैं। उन्हों ने अपनी कविता के हृदयंगम भावों के द्वारा जनता को मुग्ध बनाये रखा ।
सौराष्ट्र प्रान्त ने कई महापुरुषों को पैदा किया है। राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी, और स्वामी दयानन्द सरस्वती के महान् कार्यों की अटूट स्मृतियां अभी तक जन-मानस के हृदय पटल पर अंकित हैं।
इसी गुजरात प्रांत में जन्म हुआ। शैशवकाल में भावज के हाथों काफी कष्ट और भक्ति के पूर्व-उपार्जित संस्कार जाग्रत हो उठे। उन्होंने हरिजन बस्ती में भी भजन-कीर्तन किया, जिससे तत्कालीन समाज क्षुब्ध हो उठा। परन्तु नरसी महेता अडिग रहे और अपना सारा जीवन समता के भाव के प्रचार तथा हरि-भजन में गुज़ार दिया । ईसवो १४१५ में नरसी महेता का ही अनाथ हो जाने के कारण इन्हें उठाने पड़े। जिनके कारण विरक्ति नरसो महेता की भक्ति-भाव पूर्ण रचनाएँ पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हो रही हैं। उनका यह गीत महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था और इस गीत को भारत के सभी प्रान्तों में बड़े चाव से गाया जाता है-
वैष्णव जन तो तैने कहिए जो पीड़ पराई जाणे रे।
पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आने रे ॥
इस संक्षिप्त जीवनी के लेखक हैं श्री श्रीपाद जोशी मराठी तथा हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक । विश्वेश्वरानन्द वैदिक संस्थान उनका इस कार्य के लिए अत्यन्त आभारी है। आशा है, यह लघु-पुस्तिका पाठकों के रुचिकर प्रमाणित होगी।
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