कृशन चन्दर की कहानियों के कई दौर हैं और उनकी कहानियों के कई रंग हैं। कहीं वह प्रेमी नज़र आते हैं, कहीं प्रकृति के पुजारी । जब वह कशमीर से लाहौर आए तो उन्हें जिन्दगी बेरंग और बेरस नज़र आई जहां व्यापारिक व्यवस्था थी और चीजें पैसे के मोल बिकती थीं उन्होंने 'ज़िन्दगी के मोड़ पर' और 'दो फर्लांग लम्बी सड़क' जैसी कहानियां लिखीं, फिर कृश्न चन्दर दिल्ली, लखनऊ और पूना होते हुए बम्बई पहुंचे, जहां उन्होंने फ़िल्मी दुनिया का रूप देखा । यह कला की दुनिया भी थी और हर प्रकार के कलंक की भी। यहां प्रेम भी था और सेक्स भी। यहां नारी-शरीर भी बिकता था और ऐसे लोग भी थे जो फिल्म के माध्यम से कला का सृजन करना चाहते थे और समाज को नयी चेतना द्वारा बदलना चाहते थे - इस दुनिया में अपूर्व ग्लैमर था और अपार निराशा, शोषण और गन्दगी थी। यह पूंजीवादी व्यवस्था का उभरता हुआ चेहरा था- आधा सुन्दर, आधा कुरूप। देश भर के युवक-युवतियां यहाँ दौलत और शोहरत के सपने ले कर आते थे । एक-दो सफलता के शिखिर पर पहुंच जाते थे, लेकिन बाकी स्टूडियों के चक्कर काटते-काटते बूढ़े हो कर मक्खियों की तरह मर जाते थे ।
बम्बई में कृश्न चन्दर ने कुछ और भी देखा बड़े-बड़े कारखाने और संसार की सब से गन्दी बस्तियां जिन्हें 'चाल' कहते हैं। यहां आदमी और सूअर दिमाग़ को फाड़ देने वाली बदबू में साथ-साथ रहते हैं। यह बस्तियाँ पूँजीवादी व्यवस्था का सँडास हैं, और यहाँ रहने वाले मेहनत और अपराध की चक्की में पिसते हैं।
शुरु-शुरु में कृश्न चन्दर को लगा कि कलाकारों, मजदूरों और बेकारों की इन बस्तियों से क्रान्ति का शंखनाद उभरेगा। उन्होंने 'महालक्ष्मी का पुल' जैसी कहानियाँ और 'आसमान रोशन है' जैसे उपन्यास लिखे। उनका सपना था कि जैसे ही देश आजाद होगा एक ऐसी व्यवस्था का जन्म होगा जो सामाजिक और आर्थिक न्याय पर टिकी होगी, और हर आदमी, चाहे वह किसी वर्ग, किसी धर्म, किसी व्यवसाय का हो स्वतंत्रता और समानता का अधिकार प्राप्त कर लेगा ।
यह कहानी-संग्रह 'हम वहशी हैं' इसी दौर से सम्बन्ध रखता है जब कृश्न-चन्दर ने पाया कि धर्म और राजनीति के नायकों ने आम आदमी के अन्दर सोई हुई हिंसा, घृणा, और धर्मान्धता को ऐसे जगाया है कि जो लोग खून की बूंद से सिहरते थे, वे खून से खेलने लगे, और जिन्हें इन्कलाब और आज़ादी का युग लाना था वे विष-पुरुष बन गये।
आज आज़ादी के पचास वर्ष बाद जब आप दंगों पर लिखी इन कहानियों को पढ़ेंगे तो कई जगह आपको लगेगा कि आप कृश्नचन्दर से सहमत नहीं हैं। आपको लग सकता है कि यह कहानियां 'घड़ी' हुई हैं। इनमे तराजू के दौनों पलड़े बराबर रखने की कोशिश की गई है। किसी एक सम्प्रदाय को दोषी बताने के बजाए, दोनों सम्प्रदायों को दोषी बताया गया है; दोनों को एक जैसा अच्छा और बुरा कहा गया है।
यह अच्छा न लगने वाला सच है। कृश्नचन्दर ने हिन्दू बन कर कहानियाँ लिखने के बजाए या तो तटस्थ या सुलह-सफ़ाई और शान्ति से प्रतिबद्ध इन्सान बन कर यह कहानियां लिखी हैं। कृश्न चन्दर ने पैट्रोल नहीं, पानी छिड़का है। नफ़रत की इस 'मांग' को नकारा है कि जितने दोष हैं, दूसरे में हैं। हम स्वयं देव हैं; वे दानव हैं। जहां जूते ने हमारे पैर को काटा है हम वह याद रखते हैं। हमारे जूते ने जहां दूसरे को काटा है, न हम याद रखते हैं और न चाहते हैं कि कोई हमें याद दिलाये । हमारे धर्म-गुरु, हमारे नेता, हमारे इतिहासकार हमें एक आरोप-पत्र बना कर दे देते हैं कि 'उन्होंने' यह किया और 'तथा कथित शिकायतों' का स्वीच ऑन कर देते हैं, जो नस्ल-दर-नस्ल हमारे खून को खौलाता रहता है और हम हर घड़ी राम बन कर, अपने अन्दर दूसरे सम्प्रदाय वालों को रावण बना कर जलाते रहते हैं। इससे जीना आसान हो जाता है। हम अपने कुकर्मों को भूल जाते हैं और दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को 'परमैंनेंट विलियन' बना कर स्वयं 'परमेनेन्ट राष्ट्रीय हीरो' बन जाते हैं।
यह हमारे देश में भी हो रहा है और पाकिस्तान में भी। पाकिस्तान में तो हमारे खिलाफ़ इतनी नफ़रत फैलाई गई है कि जहां 'हम' अब नहीं रहे, वहां उन्होंने अपनी नफ़रत शान्त करने के लिये अपनों ही को 'गैर-मुसलिम' और गैर-पाकिस्तानी करार देना शुरू कर रखा है।
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