किसी राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह की खोज एक प्रांत अथवा राज्य की सीमाओं के आधार पर करना वैसा ही दुस्साहस होगा जैसा किसी सरिता की जलधारा को उस समुद्र से विलग करना जिसको कि वह आपूरित करती है। हमारा वह अप्रतिहत जन-आंदोलन, जो अपने विकासक्रम के साथ-साथ शक्ति संचय करता गया और अंत में हमें स्वतंत्रता प्राप्त करा सका, प्रांतों और वर्गों के विभेद से ऊपर उठकर हमारे देश की समस्त जनता की संयुक्त इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति था। अतएव मध्यप्रदेश के स्वाधीनता आंदोलन के इस इतिहास के संपादकों की अपने कार्य के प्रारंभ में ही यह धारणा बन गई थी कि आवश्यक रूप से इस विवरण की सीमा में भारतव्यापी आंदोलन और विचारधाराएं भी आ जाएंगी जिन्होंने हमारे संघर्ष के आकार की परिपुष्टि की थी। इस आंदोलन की प्रारंभिक स्थिति में, विशेषतः कांग्रेस के जन्म के पूर्व जब विदेशी सत्ता के विरुद्ध असंतोष के बीज अंकुरित हो रहे थे, आत्मचेतना के प्रथम प्रस्फुटन का विवरण एक प्रांत विशेष तक सीमित करके प्रस्तुत करना संभव है। यह प्रथम प्रस्फुटन मध्यप्रांत में उस समय से ही दिखाई देने लगा था जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहली बार नागपुर में अपने पैर जमाए थे। जैसे ही सहायक संधि (Subsidiary Alliance) पर हस्ताक्षर करके भोंसले राज्य की स्वतंत्रता उत्सर्जित की गई, वैसे ही इस परतंत्रता से उद्भूत एक आंदोलन का विकास होता हुआ दिखाई दिया। यही कारण है कि हमारा विवरण उसी बिंदु से प्रारंभ होता है। लगभग उस शताब्दी के अंत होने तक स्वाधीनता प्राप्ति की यह प्रवृत्ति इस प्रांत में निरंतर देखी जा सकती है। यद्यपि सन् 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम की धाराएं समस्त भारतव्यापी थीं और उनका अवसान असफलता में हुआ, तथापि वे पूर्णतः कभी लुप्त नहीं हुई। फिर भी हमारे समवेत राष्ट्रीय आंदोलन का सुदृढ़ रूप तो उस शताब्दी के अंतिम वर्षों में ही दिखाई दिया जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्वाधीनता प्राप्ति की भारत की भावना की अभिव्यंजक संस्था बन गई। उसके पश्चात् मध्यप्रदेश भारत के राजनीतिक इतिहास की अनेक इकाइयों में से एक इकाई मात्र रह गया। देश के एक भाग की घटनाएं अन्य भागों पर अपनी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती थीं। अतएव हमारे इस इतिहास को वस्तुतः मध्यप्रदेश के विशेष उल्लेख के साथ भारत के स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास कहा जा सकता है। समस्त भारत की विशाल पृष्ठभूमि में ही मध्यप्रदेश में घटित घटनाओं को इस इतिहास में महत्त्व दिया गया है।
न केवल यह उपयुक्त समझा गया कि इस विवरण को अखिल भारतीय रूप दे दिया जाय, परंतु यह भी आवश्यक था कि एक ओर तो शासन और दूसरी ओर सार्वजनिक आंदोलनों की शक्तियों के अंतर्द्वद पर भी दृष्टि रखी जाय। अपने इस रूप के कारण ही यह विवरण केवल कांग्रेस का इतिहास नहीं बनाया जा सकता था। वे सब तत्त्व जिनसे पिछली डेढ़ शताब्दी की निर्माणक शक्तियों का संयोजन हुआ, इस विवरण के अनिवार्य अंग बन गए। हमें भारत पर केवल दिल्ली अथवा लंदन के शासन के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप हुए प्रभावों का ही मूल्यांकन नहीं करना था, वरन् विश्व शक्तियों द्वारा हमारे राजनीतिक संघर्ष में किए गए योगदान का भी अनुशीलन करना हमारे लिए आवश्यक था।
यह भी ध्यान में रखने की बात है कि मध्यप्रदेश शासन द्वारा आयोजित हमारे स्वाधीनता संघर्ष का यह इतिहास इस दिशा में प्रथम प्रयास है। किसी अन्य राज्य ने अब तक स्वाधीनता आंदोलन के प्रारंभ से भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन तक का पूरा विवरण प्रकाशित नहीं किया है। अतएव केवल प्रांतीय घटनाओं तक सीमित न रहकर अखिल भारतीय चित्र प्रस्तुत करने का हमारा प्रयत्न करना क्षम्य समझा जाएगा। तो भी हमारा यह प्रयास रहा है कि इस विवरण से अंकित चित्र की पूर्णता को सतत ध्यान में रखते हुए भी इसकी सीमा को यथासंभव संकुचित रखा जाय। जो त्रुटियां इसमें हैं वे अधिकांश में समावेश की अपेक्षा असमावेश संबंधी ही अधिक हैं। किसी अंश तक तो यह अवश्यंभावी परिणाम है उस शीघ्रता का जिसमें इस कार्य को हमें पूरा करना पड़ा। जब इस योजना को हाथ में लिया गया था तब हममें से किसीको भी यह ज्ञात न था कि राज्य की सीमाओं का फिर से निर्धारण इतनी जल्दी होगा और वह प्रादेशिक इकाई जो इस परिवेक्षण का लक्ष्य थी, टूट जाएगी। ज्यों-ज्यों राज्य के विघटित होने और नए मध्यप्रदेश के निर्मित होने का दिन निकट आता गया, हमें अपने कार्य को पूरा करने में शीघ्रता करनी पड़ी। संभव है यदि शीघ्रता की यह स्थिति न आती तो हम इस प्रेरक गाथा के साथ अधिक न्याय कर सकते और इस विवरण को और भी पूर्ण बना सकते।
प्रारंभ में इस विवरण को चार खंडों में विभक्त करने का विचार था, पहले में 'सिपाही विद्रोह' के त्रुटिपूर्ण नाम से संबोधित किए जाने वाले स्वाधीनता के प्रथम युद्ध तक, उसका समावेश करते हुए, वृत्तांत दिया जाता और दूसरे में उसके पश्चात् से कांग्रेस की स्थापना तक का। इसी दृष्टि से यह कार्य चार संपादकों को सौंपा गया था जिनमें से प्रत्येक को एक-एक खंड का उत्तरदायी बनाया गया था। परंतु शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि इस योजना का अनुसरण करना आसान नहीं है। पहले तो सन् 1857 के महान् विद्रोह के परिणाम उसके पश्चात् के काल में भी गहरे प्रवेश करते हुए दिखे और दूसरे कांग्रेस को जन्म देने वाली और उसका रूप निर्माण करने वाली अनेक शक्तियों का प्रादुर्भाव सन् 1885 में कांग्रेस के अस्तित्व में आने के बहुत पहले ही हो चुका था। इस कारण समस्त सामग्री को फिर से तीन खंडों में इस रूप में प्रथित किया गया जिस रूप में वह अब प्रस्तुत की जा रही है।
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