'कहानी', जो कही जाए। सच्ची नहीं काल्पनिक! इसीलिए किसी व्यक्ति के द्वारा बनाए बहाने सुनकर कहा जाता है- 'कहानी क्यों बना रहे हो? सच बताओ।' अर्थात् कहानी वह जो काल्पनिक हो, यही प्रचलित है। साहित्य-जगत में प्राचीन कहानियाँ चाहे वे संस्कृत में हों, या हिंदी में, प्रायः काल्पनिक हुआ करती थीं। कालांतर में अनेक कहानियों में यथार्थ को कल्पना की चादर ओढ़ाकर प्रस्तुत किया जाने लगा।
'कहानी' शब्द सुनते ही नन्हे बच्चों के बीच बैठी बूढ़ी दादी-नानी के द्वारा बच्चों के मनोरंजन के लिए कहानी सुनाने का दृश्य मानस-पटल पर चित्रित हो जाता है। स्पष्ट है कि कहानी का सीधा संबंध बच्चों से है। इसलिए साहित्य-जगत में बाल कहानियाँ न्यूनाधिक लिखी जाती रही हैं। घर-परिवार में बच्चों का पदार्पण ईश-कृपा तथा स्नेह और सुख के सागर के समान होता है। हमारी विभिन्न शिक्षा नीतियाँ भी वाल-केंद्रित रही हैं। अतः बच्चों के मानसिक स्तरानुकूल बाल-साहित्य की आवश्यकता रही है, जिसकी पूर्ति अनेक बाल साहित्यकार करते आए हैं। साहित्यकारों की लेखन-प्रतिभा समवाय हेतु लेखन में भी प्रस्फुटित होती रही। यही कारण है कि साहित्य-जगत में बच्चों और बड़ों के लिए अपार साहित्य उपलब्ध है।
घर-परिवार-समाज में बच्चों और बड़ों का विशेष महत्त्व होता है। बच्चों के लालन-पालन और सुख-सुविधा के लिए हरसंभव प्रयास किए जाते हैं। प्रौढ़ के पास तो सत्ता ही होती है, अतः वे अपने अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं। वृद्ध-जन सम्मान और सहानुभूति के पात्र हैं। अतः उनका भी विशेष महत्त्व है। शेष रह जाता है, किशोर। लोग अपना नाम किशोर या किशोरी तो रख लेते हैं, किन्तु घर-परिवार-समाज में किशोर सदा उपेक्षित रहते हैं। उनके प्रत्येक व्यवहार पर सबकी तीक्ष्ण दृष्टि रहती है और उनके कार्यों को आलोचना की दृष्टि से ही देखा जाता है, चाहे अन्य वय वालों ने भी अपनी किशोरावस्था में वही कार्य किया हो। साहित्यकारों की कलम ने भी इस उपेक्षित वर्ग के लिए कृपणता ही दिखाई। पत्र-पत्रिकाएँ भी बड़ों और छोटे बच्चों के लिए तो बहुत हैं, किन्तु किशोरों के लिए वहाँ भी अभावग्रस्तता ही मिलती है।
ऐसी स्थिति में यह वर्ग आक्रोशित न हो, तो क्या हो? उसे समाज के अन्य वय के लोग और समाज की सारी व्यवस्थाएँ उसके विरोधी प्रतीत होने लगें, तो इसमें उसका क्या दोष? इस वर्ग का यही आक्रोश युवा बनने तक कुंठा, आत्मकेंद्रिता, अवमानना, उत्तरदायित्वहीनता, कर्त्तव्यविमुखता, स्वार्थ, हिंसा, उपद्रव, अनाचार आदि मूल्यहीनता के रूप में प्रकट होने लगता है। यह सर्वज्ञात है कि इसी युवा के कंधों पर समाज का, पूरे राष्ट्र का वर्तमान और भविष्य टिका है। कुंठित, आत्मकेंद्रित, उत्तरदायित्वहीन, कर्त्तव्यविमुख, स्वार्थी, हिंसक, उपद्रवी, अनाचारी, मूल्यहीन युवा से हम कैसे समाज और राष्ट्र-निर्माण की अपेक्षा कर रहे हैं!
मैं साधुवाद देना चाहती हूँ राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के उस मनीषी को, जिसके मन-मस्तिष्क में किशोरों के लिए कहानियों के संग्रह का विचार उत्पन्न हुआ तथा उस प्राधिकारी को भी जिसने उस विचार का स्वागत करते हुए स्वीकृति दी। उनका यह सुप्रयास किशोरों की दुखती रग पर स्नेहयुक्त स्नेह लगाने का कार्य करेगा; उनके हृदय को सांत्वना एवं संबल देगा कि कोई उन्हें भी सुनने और समझने वाला है।
नरेंद्र कोहली जी के साहित्य में किशोरों के लिए या किशोरों से संबंधित कहानियाँ ढूँढ़ने में प्रथमतः निराशा ही हाथ लगी। उनके द्वारा बड़ों के लिए लिखी कहानियों के संग्रह तो बड़ी सरलता से उपलब्ध हो गए, किन्तु किशोरों के लिए उनकी कहानियाँ अनुपलब्ध थीं। इससे उससे पूछते-पूछते पता चला कि कोहली जी का बाल साहित्य तो है, किन्तु पुस्तकें अत्यंत पुरानी होने के कारण बाजार और पुस्तकालयों में भी नहीं हैं।
निराशा के सागर में डूबते-उतराते कोहली जी की धर्मपत्नी डॉ. मधुरिमा जी का स्मरण हुआ। उनसे बात हुई। कुछ आशा की किरण दिखी। उनके पास सुरक्षित रखी कोहली जी की कुछ पुस्तकें प्राप्त हुई। उनमें प्रकाशित कहानियों को भले कतिपय विद्वानों ने 'बाल-कथा' की संज्ञा दी हो (संभवतः किशोरों के साहित्य के प्रति उदासीनता के कारण कोहली जी के किशोर-साहित्य को भी उन्होंने बाल-साहित्य ही मान लिया हो), किन्तु वास्तव में वह किशोर साहित्य था। अंधा क्या चाहे, दो आँखें! मेरे मन की मुराद पूरी हुई। तीनों संग्रह पढ़ डाले। उनमें संगृहीत प्रत्येक कथा एक-से-बढ़कर एक थी।
उनकी कहानियों में किशोर-मन के भाव मुखरित हो रहे थे। ऐसा लग रहा था, मानो उन कहानियों में बालक का पात्र कल्पित नहीं, बल्कि वे स्वयं हों और अपने मनोभावों को व्यक्त कर रहे हों।
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