भारत की स्वतंत्रता से पूर्व के साहित्यिक परिदृश्य में जब भी महिला साहित्यकारों की बात होती है तो श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम अत्यन्त प्रमुखता से लिया जाता है। वे मूलतः कवयित्री थीं लेकिन उनकी कहानियाँ भी पाठकों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय थीं। वे प्रगतिशील विचारों से सम्पन्न एक गृहणी, माँ, कवयित्री, स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेनी वाली जन-नेत्री के रूप में विख्यात रही हैं।
श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 को इलाहाबाद (वर्तमान नया नाम-प्रयागराज) जिले के एक गाँव निहालपुर में हुआ था। उनके पुरखे प्रतिष्ठित राजपूत घराने के जमींदार थे, जिनके मनों में अपनी मातृभूमि की मान-मर्यादा के लिए अपार सम्मान और प्रेम का भाव कूट-कूट कर भरा था। सन् 1857 के गदर के दिनों में कई अंग्रेज सिपाही उनके गाँव में शरण माँगने पहुँचे थे। इनके पुरखों ने उन्हें शरण नहीं दी और बाद में उन्हें कई तरह की सजाएँ मिलीं और उनकी जागीर भी छीन ली गयी थी। उन्हीं की वंशज सुभद्रा कुमारी चौहान की छुट्टी में देश-प्रेम का भाव मिला हुआ था।
कविता के क्षेत्र में उनके यश को बढ़ाने वाली कविता 'झाँसी की रानी' सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण है। भारत के स्वातंत्र्य-संघर्ष के दिनों में लिखी गयी इस कविता ने उन्हें विश्व-प्रसिद्ध बना दिया था। इस कविता को पढ़ते-सुनते हमारी नसों में ओजस्विता का ज्वार उमड़ आता है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का अद्वितीय साहस, वीरता और बलिदान हमारी आँखों के सामने मूर्तिमान हो जाता है। इस एक अकेली कविता के बल पर ही वे हिन्दी साहित्य में अमर हो गयी हैं।
"झाँसी की रानी" कविता की तरह ही उनकी एक और कविता "वीरों का हो कैसा वसंत" भी बड़ी प्रसिद्ध कविता है। ये कविताएँ उनकी देश भक्ति का ज्वलंत उदाहरण हैं। सामान्यतः हिन्दी साहित्य जगत उनके काव्य-वैभव से ज्यादा परिचित रहा है लेकिन इसी के साथ-साथ वे एक उत्कृष्ट कोटि की कहानीकार भी थीं। उनके कुल तीन कथा-संग्रह प्रकाशित हुए हैं-विखरे मोती (1932) उन्मादिनी (1934) और सीधे-सादे चित्र (1947) उनकी 'कदंब के फूल', 'तीन बच्चे', 'हींगवाला', 'गौरी' जैसी कहानियों अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।
'सीधे सादे चित्र' कहानी संग्रह पर उन्हें उस समय का अत्यन्त प्रतिष्ठित 'सेकसरिया पुरस्कार' प्रदान किया गया था। यह पुरस्कार इस बात का प्रतीक है कि उस समय की स्त्री-कथाकारों द्वारा लिखी गयी कहानियों के संग्रहों के बीच उनके संग्रह कितना ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उनकी समकालीन महिला कथाकारों, यथा शिवरानी देवी, उपादेवी मिश्र, कमलादेवी चौधरी, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, किशोरी देवी, विद्यावती कोकिल और महादेवी वर्मा के मध्य उनकी कहानियाँ भी अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय थीं।
सुभद्रा कुमारी चौहान का समय 20वीं सदी के आरम्भ का अत्यन्त महत्वपूर्ण काल-खण्ड है। जब उन्होंने लिखना शुरू किया था तव द्विवेदीयुग अपने उठान पर था और धीरे-धीरे छायावादी काव्य की प्रवृत्तियाँ महत्वपूर्ण होती जा रही थीं ऐसे काल-खण्ड में उनकी वाल्य सखी श्रीमती महादेवी वर्मा छायावादी काव्याकाश में अत्यन्त महत्वपूर्ण कवयित्री के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। उनकी कहानियाँ, शब्द-चित्र और 'श्रृंखला की कड़ियाँ' निबंध संग्रह आदि के प्रकाशन ने उन्हें एक श्रेष्ठ गद्यकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' पुस्तक के निबंध सन् 1931 से 1937 के बीच तत्कालीन साहित्यिक पत्रिका 'चाँद' के लिए लिखे गये थे। इन्हीं निबंधों को एकत्रित करके सन् 1942 में एक साथ प्रकाशित किया गया था।
'चाँद' एक साहित्यिक पत्रिका थी और उसके विभिन्न अंकों में महिलाओं की समकालीन समस्याओं पर निरन्तर विचार-विमर्श से जुड़ी सामग्री प्रकाशित होती रहती थी। इसी काल-खण्ड में सुभद्रा कुमारी चौहान भी निरन्तर कहानियाँ लिख रही थीं तथा जो उस समय की सभी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं। स्वाभाविक है कि उस काल खण्ड की ज्वलंत समस्याओं यथा उत्पीड़न सहती भारतीय स्त्री की दुर्दशा, पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसकी अस्मिता का तिरस्कार और दमन जैसी अमानवीय परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियों की विषयवस्तु वन गया।
हम कह सकते हैं कि आज़ादी से पहले स्त्री-सरोकारों को अपनी कहानियों का विषय बनाने वालों में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम अग्रगण्य है। उनकी कहानियों के स्त्री-पात्र काल्पनिक नहीं हैं वे जीते-जागते हाड़-माँस के पुतले हैं। उनका चरित्र-चित्रण सुनी-सुनायी बातों पर न होकर साक्षात अनुभवों से जुड़ा प्रतीत होता है। उनकी भाषा में खड़ी बोली का साफ-सुथरा प्रांजल रूप ही उभर कर आता है। यों उनके लेखन का दूसरा काल-खंड छायावाद के बीच का है लेकिन उनकी भाषा पर छायावादी शिल्प-शैली का प्रभाव न के बराबर है।
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