| Specifications |
| Publisher: Gaurachandra Publications, ISKCON | |
| Author Jitamitra Das | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 287 (B/W Illustrations) | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 21.5 cm x 14 cm | |
| Weight 400 gm | |
| Edition: 2018 | |
| HBC267 | |
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श्रीकृष्ण तया उनके भक्तों की कृपा से 'श्रीभगवान् ने कहा' नामक यह पुस्तक श्रद्धालु पाठकों को प्रस्तुत की जा रही है। वर्ष 1944 से अन्तर्राष्ट्रीय श्रीकृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य श्रील ए०सी० भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद के द्वारा प्रकाशित भगवदर्शन (Back to Godhead) नामक पत्रिका में 'श्रीभगवान् ने कहा' नामक शीर्षक के साथ ये लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं तथा हो रहे हैं। गीता के प्रथम अध्याय के जिन श्लोकों पर श्रील प्रभुपाद ने तात्पर्य लिखे हैं, उन श्लोकों पर लिखे हुये लेखों को पुस्तक का रूप दिया जा रहा है।
श्रीकृष्ण ने गीता (12.8) में आदेश दिया है कि हमें अपनी बुद्धि को श्रीकृष्ण में लगाना चाहिये। श्रीकृष्ण में बुद्धि को लगाने के कई उपाय हैं। उनमें से एक उपाय यह भी है कि श्रीकृष्ण ने गीता में जो उपदेश दिये हैं, उनमें अपनी बुद्धि को लगाया जाये, क्योंकि श्रीकृष्ण तया उनके उपदेश में कोई अन्तर नहीं है। श्रीकृष्ण ने गीता (18.70) में यह भी कहा है और मैं घोषित करता हूँ कि जो हमारे इस पवित्र संवाद का अध्ययन करता है, वह अपनी बुद्धि से मेरी पूजा करता है।' इस प्रकार यह समझना चाहिये कि यदि हम गीता के श्लोकों पर विचार करते हैं तो श्रीकृष्ण इस कार्य को अपनी पूजा के रूप में स्वीकार करते हैं। यहाँ पर श्रीकृष्ण अर्जुन के संवाद की बात कही गयी है। इसलिये अर्जुन ने जो बातें श्रीकृष्ण से कहीं हैं उनकी चर्चा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी श्रीकृष्ण के द्वारा कही हुयी बातें हैं। इसके अतिरिक्त मुझे श्रीकृष्ण के भक्तों तथा अपने गुरु महाराज श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज के द्वारा भी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। भक्तों के द्वारा प्रोत्साहन तया श्रीकृष्ण के द्वारा कृपा प्राप्त होने पर ही मुझे इस कार्य में सफलता प्राप्त हुयी है। यदि लेखों में कुछ विशेष बातें ऐसी भी मिलें जो श्रील प्रभुपाद के तात्पर्यों में नहीं हैं तो इसमें लेखक की कोई प्रशंसा नहीं है। यह प्रशंसा श्रील प्रभुपाद की ही समझनी चाहिये। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने छोटे से बच्चे को अपने कन्धे पर चढ़ा लेता है तो वह बच्चा उस व्यक्ति से भी ऊँचा दिखायी देता है, उसी प्रकार श्रील प्रभुपाद ने भी मुझे अपने शिष्य का शिष्य जान कर तया अत्यन्त अयोग्य जान कर ऐसी योग्यता प्रदान की। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने पुत्र से जितना स्नेह करता है, उससे अधिक स्नेह अपने पौत्र से करता है, उसी प्रकार श्रील प्रभुपाद के शिष्य का शिष्य होने के नाते लेखक को भी श्रील प्रभुपाद की विशेष कृपा प्राप्त हुयी है।
यदि श्रीकृष्ण के भक्तगण इसी प्रकार प्रोत्साहन देते रहेंगे तो लेखक आगे भी इस कार्य को जारी रख सकेगा।
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