भारतीय ज्ञान परम्परा में समन्वय, सुख, दुःख, निराश, पूर्ण शान्ति एवं सम्प्रभुता में प्रतिष्ठापना भारतीय ऋषियों प्रज्ञावन्तों, मकीषि साधनों एवं प्रशासनिक एवं दार्शनिकाम्नाओं का परलक्ष्य होता है। बन्धन निराश, दुःखमुक्ति अपूर्व सुखोयसब्धि की यात्रा अबाधित होती है। भारतीय ज्ञान परम्परा पूर्ण सत्य की प्रतिष्ठापना, सत्य-प्रतिष्ठापाक संसाधनों की अन्वेषण तथा निष्ठापूर्वक आचरण की सिद्ध-शोभन और सशक्त धारा में न्यविष्ठ किंवा संस्थापित है। वैदिक ज्ञान औबौद्ध तीनों धाराएं भारतीय ज्ञान परम्परा के संविधान स्थल हैं।
भारत देश सांस्कृतिक साधकों की सिद्धभूमि है। अनेक भव्य जीव अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार साधना पर सिद्ध-बुद्ध और परम चैतन्य मोक्ष किंवा अनन्त आनन्द में प्रतिष्ठाापित हो जाते हैं। भगवान बुद्ध भी इसी आर्य परम्परा के आकर्षक आम्नाया विचारक (दत्त्दी) हैं, जिन्होंने चार आर्य सत्यों दुःख, दुःख समुदय, दुःख निरोध, दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपक्ष आदि की साधना कर परम बुद्धत्व का साक्षात्कार किया और संसार में अपने अनुभूत सत्यों का प्रचार प्रसार किया। भगवान् द्वारा उपदेशित वचन ही बौद्ध साहित्य में सन्निविष्ट है।
बौद्ध साहित्य संस्कृत और पाली दोनों भाषाओं में पाया जाता है। मूल उपदेश पाली में संग्रहित है, जिसे त्रिपिटक, निकायादि के रूप में प्रसिद्ध है। बाद में विकसित बौद्ध चिन्तन संस्कृत में संग्रहित है।
बोधि चर्यावतार संस्कृत में निबद्ध है। आचार्य शान्तिदेव को महनीय रचना है। बोधिसत्व द्वारा अनुसरित मार्ग को अनुसरण करने के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह भव्य बोधिसत्वों के लिए मार्ग प्रदर्शक के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। बोधिचर्यावतार दस अध्यायों में विभाजित है। बोधिसत्व के बोधिचित्त वृद्धत्व प्राप्ति की इच्छा के निरूपण के साथ इस ग्रन्थ का प्रारंभ होता है। नैतिक नियमों के पासन (परमिता) का वर्णन है। शीलवामित सान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता, वीर्य पारमिता, ध्यान पारमिता, प्रज्ञा पारमिता के वर्णन के अनन्तर एक परिच्छेद मिलकर दस परिच्छेद हैं।
पारमिताओं की साधना जीवन के लिए महत्वपूर्ण तथा आध्यामिक उन्नति के लिए श्रेष्ठ संसाधन है। यह ग्रंथ बोधिसत्व के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक गुठमें एवं करणयी कर्तव्यों का वर्णन करता है।
इस ग्रन्थ में मुख्यतः करूणा और बोधिसत्व पर बल, ध्यान और प्रज्ञा का मार्ग, नैतिकता की प्रतिष्ठा, अध्यात्म के साथ व्यवहार का संतुलन आदि साथ व्यवहार का संतुलन आदि अनुस्यूत है। काव्यभाषा एवं साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
इनका यह शोधग्रंथ 'बोधिचर्यावतार पापदेशनायाः अनुशीलनम्' एक उत्कृष्ट शोधग्रंथ है। विद्वात्समाज, छात्र, शोधकर्ता तथा आस्तिक जनों के लिए उपयोगी है।
पं० डा० लेखमणि उपाध्याय त्रिपाठी प्राध्यापक बौद्ध दर्शन विभाग, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के एक युवक विद्वान है।, मनीषी साधक है। विद्या साधना के साथ भगवान केदारेश्वर महाप्रभु शिव की साधना में तल्लीन है। ये करूणा से परिपूरित है। लक्ष्यनिष्ठ अध्येता हैं। तन्त्र-मन्त्र ज्योतिष-वस्तुविद्या आदि के भी उत्कृष्ट विद्वान हैं। मैं इनके नित्य मांगलिक एवं रमनीय वर्तमान एवं भविष्य जीवन की कामना करता हूँ।
ईस्वीय सातवीं शताब्दी के आचार्य शान्तिदेव ने बोधिचर्यावतान ग्रन्थ के प्रणेता हैं, इन्होंने महाकरुणा को महायान धर्म का दर्शन का अनुपम मार्ग बताया है। ज्ञात है कि महाकरुणा में प्राणि मात्र को दुःखों से मुक्त करना है। इसके लिए करूणा मूलक बोधिचित्त का उत्पाद अवश्यक है। महाकरुणा पैदा होते ही व्यक्ति का महायान में प्रवेश हो जाता है और वह बोधिसत्व कहलाने लगता है। ऐसा व्यक्ति यह संकल्प लेता है कि मैं जगत कल्याण के लिए बुद्धत्व प्राप्त करूंगा। बुद्धो भवेयं जगतो हिताय।
मनुष्य ने अपने चारों ओर अनेक कल्पित सीमाएँ खड़ी कर ली है। उनमें आवद्ध होकर उसने स्वयं को क्षुद्र बना लिया है। छोटी-बड़ी विभिन्न सत्ताएँ ही वे सीमाएँ हैं, जिनकी नागार्जुन ने सूक्ष्म परीक्षा की हैं। वे सत्ताएँ ही अज्ञान द्वारा नितान्त कल्पितमात्र है। उनकी असारता का बोध होने पर ही मानव जीवन को असक्त, अप्रतिहत, असीम, असीम व्यापक एवं विराट् होने का अवसर प्राप्त होता है। प्रज्ञा द्वारा अज्ञान का सर्वथा नाश कर दिये जाने पर ही स्थिति उत्पन्न होती है। पदार्थ की वास्तविक को जानने वाला ज्ञान ही प्रज्ञा है। आरोपित सत्ता से शून्यता ही जड़-चेतन समस्त पदार्थों की वास्तविक स्थिति है। इस प्रज्ञा का उत्पाद ही नागार्जुनके दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। उनकी अप्रतिम प्रतिभा का ही यह स्वाभाविक परिणाम था कि ईसा से पूर्ववर्ती शताब्दी में ही उन्होंने इतने मौलिक, स्वतन्त्र एवं गतिशील दर्शन की स्थापना की। अब हम उनके दर्शन की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।
आस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय होता है। इसी के विश्लेषण में भारतीय दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद्-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध धारा में आर्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण हैं। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्टा तक पहुँचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के आस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। किन्तु इसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति और परखता का उदय हुआ। वस्तुतः नागार्जुन के बाद ही भारत में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्रायः सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
मध्यम-मार्ग भगवान बुद्ध की प्रमुख देशना है। मध्यम का अर्थ है, दो अन्तों (छोरों) का परिहार। दो अन्त है, शाश्वत-अन्त और उच्छेद अन्त। सभी बौद्ध दार्शनिक प्रस्थानों ने दो अन्तों का निराकरण करके अपने मत को माध्यमिक सिद्ध किया है। यह सही है कि शाश्वत और उच्छेद अन्त की परिभाषा में उनमें मतभेद है। मध्यम-मार्ग का अर्थ बड़ा व्यापक है। इसे जीवन के हर क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह अपने पक्ष को एक अन्त बना लेता है और उसकी अविपरीतता में अभिनिवेश करने लगता है। एक-एक व्यक्ति से लेकर व्यक्ति-समुदाय तथा राष्ट्र तक इसकी चपेट में आ जाते हैं। छोटे-मोटे कलहों से लेकर बड़े-बड़े युद्ध तक इसी अन्तग्राह के कारण घटित होते हैं। सामुदायिक विद्वेषी कलहों और धर्मयुद्धों के मूल में भी वही कारण निहित है।
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