इस पुस्तिका में मेरे बारह लेख संगृहीत हैं। ये लेख वस्तुतः वे वार्ताएँ हैं, जो पिछले वर्ष महीने में एक के हिसाब से एक योजना के अंतर्गत पटना आकाशवाणी से प्रसारित हो चुकी हैं। निश्चय ही उसका श्रेय तरुण कथाकार और नाटककार श्री हृषीकेश सुलभको है। वे मेरे हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं।
नौवें दशक के मध्य में पटना कालेज में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की आर्थिक सहायता से "हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन" विषय पर एक संगोष्ठी संपन्न हुई थी। उसमें एक आलेख प्रस्तुत करते हुए मैने स्वयं आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास लिखने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। हिन्दी साहित्य की विशालता और व्यापकता को देखते हुए अब यह संभव नहीं रहा कि कोई एक व्यक्ति उसका पूरा इतिहास लिखे । लिहाजा अन्य विद्वानों ने भी यह अनुभव किया कि अब अलग-अलग कालों, धाराओं और विधाओं का इतिहास लिखा जाना चाहिए। मैंने अपनी इच्छा तो व्यक्त कर दी थी, लेकिन उसे कार्यान्वित करने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा था। अपनी शक्ति की सीमा और अपने बोध की अपरिपक्वता को देखते हुए उस काम में हाथ डालना वैसा ही लग रहा था, जैसा जहाँ देवदूत पाँव रखते हुए डरते हैं, वहाँ नासमझों का दौड़कर पहुँच जाना। लेकिन बारह वार्ताओं के लिए आकाशवाणी से प्रस्ताव आया, तो मैंने साहसपूर्वक उसे स्वीकार कर लिया। बाद में उनके लिए जब मैंने आधुनिक हिन्दी कविता को सिलसिले से देखना-समझना शुरू किया, तो जैसे मेरे सामने के बंद दरवाजे खुलने लगे और मैं आगे बढ़ता गया। मैं पच्चीस वर्षों से विश्वविद्यालय में आधुनिक हिन्दी कविता पढ़ाता आ रहा था, लेकिन इस बार जाकर मुझे प्रतीत हुआ कि मैं उसके असली रूप से साक्षात्कार कर रहा हूँ। यह अनुभव अनेक बार मुझे रोमांचित कर देता था। इस तरह बारह वार्ताओं के रूप में वर्ष-भर के श्रम से मेरे भावी "इतिहास" का प्रारूप तैयार हुआ। मैं इन वार्ताओं को अपने अगले निबन्ध-संग्रह में ही देना चाहता था, लेकिन जिज्ञासुओं और सामान्य पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखकर उन्हें पुस्तिका के रूप में यथाशीघ्र छपा डालने के लिए मित्रों द्वारा प्रेरित किया गया हूँ।
आधुनिक हिन्दी कविता का विकास सरल न होकर अत्यन्त जटिल है, क्योंकि एक काल के कवि दूसरे काल की कविता को पूर्वाशित ही नहीं करते हैं, कभी-कभी उस काल के प्रतिनिधि कवि के रूप में स्वीकृत हो जाते हैं। यही नहीं, एक काल के सामान्य कवि दूसरे काल के विशिष्ट कवि बन जाते हैं, बल्कि एक काल के विशिष्ट कवि की उपलब्धि दूसरे काल में सामने आती हैं और उसके संपूर्ण परिदृश्य को बदल देती है।
इसके अलावा कविता की धाराएँ कभी-कभी एक दूसरे के समानांतर और एक दूसरे को काटती हुई भी प्रवाहित होती है। इतिहास के संबंध में, वह किसी काल का क्यों न हो, अनेकानेक धारणाएँ रूढ़ होकर बद्धमूल हो गई हैं। जब कविता का साक्षात्कार किया जाता है, तो भिन्न प्रकार के तथ्य सामने आते हैं और वे दूसरी ही कहानी कहने लगते हैं। इस तरह इस पुस्तिका में काफी कुछ ऐसा है, जो पाठकों को नया अथवा ऊटपटाँग लग सकता है, लेकिन मैने प्रयास किया है कि उसे यथासंभव युक्तियुक्त बनाकर ही रखूँ। ऐसा नहीं है कि रूढ़िबद्ध चिंतन से अलग सही तथ्यों की तरफ पहले कभी संकेत नहीं किया गया है। दृष्टिसंपन्न इतिहासकारों और आलोचकों द्वारा वह छिटपुट रूप में पहले भी किया जाता रहा है। में अनेक स्थलों पर उस संकेत को पकड़कर आगे चला हूँ और उसी के बल पर कुछ नये निष्कर्ष सामने रखने का भी साहस कर सका हूँ।
वार्ताओं में ध्यान आधुनिक हिन्दी कविता की धाराओं और अंतर्धाराओं को स्पष्ट करने पर रहा है, फिर भी प्रत्येक धारा अथवा पीढ़ी के मुख्य कवियों पर भी यथास्थान टिप्पणी की गई है। वह टिप्पणी कभी संक्षिप्त है, कभी किंचित् विस्तृत । इस संक्षेप या विस्तार से कवियों का महत्त्व न आँका जाए, ऐसा अनुरोध है, क्योंकि उसका संबंध प्रसंग को स्पष्ट करने से है। जो स्पष्ट है, उस पर ज्यादा शब्द व्यय नहीं किए गए। वैसा तो वहाँ किया गया है, जहाँ बात स्पष्ट करनी है, या उसे जमाना है।
आधुनिक हिन्दी कविता के पर्यवेक्षण से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह जितनी समृद्ध है, उतनी ही वैविध्यपूर्ण भी। इसका विकास सरलता से जटिलता, मिथक से यथार्थ और बंधन से मुक्तता की ओर हुआ है। किसी भी हिन्दीप्रेमी को आधुनिक हिन्दी कविता पर वैसे ही गर्व होगा, जैसे उसे भक्तिकालीन कविता पर है। यदि मेरी यह पुस्तिका हिन्दी पाठकों को अपनी आधुनिक कविता की शक्ति और सौन्दर्य का हलका-सा भी आभास दे सकी, तो मैं मान लूँगा कि मेरा प्रयास सफल हुआ ।
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