"साठोत्तरी हिन्दी कथा-साहित्य में दलित-विमर्श" हिन्दी साहित्य का ऐसा विषय है, जिसपर पहले भी किसी न किसी रूप में विचार होता आया है। प्रस्तावित विषय से सम्बद्ध हुए शोध कार्यों पर जब मैं नजर डालता हूँ तो इस संबंध में एक लंबी सूची मिलती है और उसे देखकर ऐसा लगता है कि हिन्दी में इससे जुड़े हुए विषयों का भरा-पूरा संसार हमारे सामने है। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार एवं विश्लेषक डॉ० महीप सिंह एक ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को बड़े ही गहरे रूप में विश्लेषित किया है। उनकी ख्यातलब्ध कृति "हिन्दी साहित्य में दलित-चेतना" दलित चिंतन की अमूल्य पुस्तक है। उन्होंने विभिन्न पक्षों केन्द्र में रखकर दलित-चेतना को हिन्दी पाठकों के सामने रखा है तथा इसकी आज के संदर्भ में प्रासंगिकता भी सिद्धि की है। इसी तरह कँवल भारती, डॉ० श्योराज सिंह चौहान, राजेन्द्र यादव, ओमप्रकाश बाल्मीकि, डॉ० धर्मवीर, गिरीशमिश्र, शिव कुमार मिश्र, सूरजपाल चौहान, रामगोपाल भावुक आदि अनेकों नाम ऐसे हैं, जिनकी प्रातिम प्रतिभा से हिन्दी शोध-साहित्य का कोश कृतार्थ हुआ है।
वस्तुतः प्रस्तुत विषय इस मायने में उपयोगी है कि आजादी के बाद और आजादी से पहले से ही 'दलित' शोषित-पीड़ितों की अग्रिम पंक्ति में रहते आये हैं। उनपर जो जुल्मों-सितम ढाये गए हैं और शोषण-उत्पीड़न का जो कारवाँ चला है, वह भारत की राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक वातावरण को प्रभावित तो किया ही है हिन्दी साहित्य का जगत् भी उससे अछूता नहीं रहा है। हिन्दी साहित्य का इतिहास हो या समाजशास्त्र का इतिहास या धर्म-दर्शन का इतिहास प्रायः सभी पर दलितों के शोषण-उत्पीड़न की सच्ची तस्वीर दिखती रही है। यही कारण है कि हिन्दी कथाकार, रचनाकार, कवि एवं नाटककारों ने भी इस स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए इनके निमित्त अपने-अपने ढंग से सुधार-संबंधी कार्य करने का सास्वत प्रयास किया है।
सच तो यह है कि आजादी के बाद दलितों के हितार्थ नए-नए सुधारवादी कानून तो बन गये, लेकिन उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया। संविधान की विभिन्न धाराओं में इसके हितार्थ कई-कई बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है, लेकिन हमारे समाज की ऐसी संरचना है कि वहाँ दलितों के हितार्थ कोई भी कार्य ठीक ढंग से संपादित नहीं हो पाती है। समाज में मत-मतांतर हैं, एक जुटता का अभाव है, अशिक्षा और गरीबी फैली-पसरी है। बेकारी, भूखमरी तथा आतंकवाद की समस्याओं से लोग अलग ही त्रस्त दिखते हैं। ऐसी हालत में भारत का दलित वर्ग चुपचाप शोषण-उत्पीड़न का दंश झेल रहा है। उसके घर में अंधविश्वास है, धर्म के संबंध में मत-मतान्तर हैं, बीमारियों का बोलबाला है और उनकी बहू-बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं। वस्तुतः ये सब ऐसी घटनाएँ एवं स्थितियाँ हैं, जिनसे दलितों की स्थिति साफ तौर पर स्पष्ट होती है।
प्रस्तुत पुस्तक "साठोत्तरी हिन्दी कथा-साहित्य में दलित-विमर्श का स्वरूप" को मैंने कुल आठ अध्यायों में बांटा है। प्रथम अध्याय "कथा-साहित्य : स्वरूप और विकास" में मैंने हिन्दी साहित्य के कथा-साहित्य के स्वरूप और विकास को जानने-समझने का प्रयास किया है। इसके क्रमिक विकास को जाने बिना प्रस्तुत शोध-प्रबंध को पूरा नहीं किया जा सकता है। द्वितीय अध्याय "हिन्दी-कथा साहित्य में दलित-चेतना का स्वरूप" के अन्तर्गत साहित्य के भीतर दलित चेतना के विभिन्न रूप को दिखलाने का प्रयास किया गया है। तृतीय अध्याय "स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हिन्दी-साहित्य में दलित विमर्श" पर केन्द्रित है। स्वतंत्रता के पूर्व हिन्दी साहित्य में दलित की स्थिति कैसी थी? यह दलित वर्ग किन-किन परिस्थितियों से होकर गुजरा? इनके ऊपर कौन-कौन से अत्याचार हुए? आदि का लेखा-जोखा इस अध्याय में देने का प्रयास किया गया है। चतुर्थ अध्याय "स्वतंत्र्योत्तर हिन्दी कथा-साहित्य में दलित-चेतना' के अन्तर्गत आजादी के बाद दलितों की स्थिति पर विचार किया गया है।
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