प्रस्तावना
पद्मा जी के जीवन के दो भाग या दो पक्ष बड़े स्पष्ट हैं। प्रथम वह दौर, जब वे जम्मू की वासिनी थीं। इस अरसे में उन्हें अपने अस्तित्व को परिभाषित करने में सहायक सिद्ध होने वाले संघर्ष-पथ से गुजरना पड़ा। दूसरे दौर में उन्हें जम्मू, जहाँ कि उनकी जड़ें थीं, से बाहर दिल्ली और मुंबई आदि स्थानों पर रहते हुए अपने वर्तमान और भविष्य को गढ़ने का अवसर मिला। जम्मू में वे प्रकृति के आगोश और डोगरा संस्कृति के बाहुपाश में आबद्ध रहीं, तो जम्मू से बाहर प्राकृतिक और सांस्कृतिक सौंदर्य की अमिट यादों ने उन्हें निरंतर अपने स्मृति पाश में बाँधे रखा। यही कारण है कि उनकी अधिकांश कविताएँ अतीत की कटु अथवा मृदुल स्मृतियों में भीगी हुई हैं। जम्मू में संघर्षरत रहते हुए, उन्होंने अपनी सृजन प्रतिभा का अद्भुत प्रदर्शन किया। किंतु जम्मू से बाहर निकलने पर उनकी प्रतिभा का अभूतपूर्व विस्फोट हुआ। समस्त साहित्य-जगत ने उनकी लेखनी की शक्ति को पहचाना और सराहा। उनकी सृजनशील वृत्ति का निरंतर विस्तार होता रहा। उन्होंने बाहर रहते हुए भी जम्मू, डोगरी-भाषा एवं साहित्य के सरोकारों की जोरदार वकालत की; डोगरी-भाषा, साहित्य और संस्कृति का गुणगान किया और लेखनी द्वारा अपनी रचनात्मक प्रतिभा का लोहा मनवाया अन्य तमाम तरह के विषयों के अलावा, डोगरी कवि और कवयित्रियाँ बीसवीं शती के अंतिम दशक तक, निम्नलिखित दो विषयों का स्पर्श अवश्यमेव करते रहे हैं-
<!--[if !supportLists]-->(i) <!--[endif]--> देश-प्रेम के स्वरों को मुखर करना। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि डोगरा लोगों की सदियों से वीरता और सैन्य-संस्कृति (Martial traits) के कारण विशेष पहचान चलती आई है। सैन्य-व्यवसाय उनका प्रिय कर्म रहा है। 1947 में देश की सीमा जम्मू-कश्मीर राज्य के निकट चले आने से सीमावर्ती क्षेत्रों में होने वाली खटपट को निरंतर झेलने के कारण, उनके दिलों में राष्ट्र-प्रेम की अजस्त्र-धारा सदैव हिलोरें मारती रही है।
<!--[if !supportLists]-->(ii) <!--[endif]-->जन्म भूमि के प्राकृतिक सौंदर्य में अभिभूत रहने के कारण, डोगरी कवियों को प्रकृति का गुणगायक भी कहा जाता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक डोगरी कवि अपने लेखन का समारंभ प्रायः जन्म-भूमि 'डुग्गर' की स्तुति करके करता है। जब वह अपने जीवन की अंतिम कविता लिखता है, तो वह भी प्रकृति या देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत रहती है। डोगरी कविता के इस दूसरे गुण को पहचान कर, अंग्रेज़ी की भारतीय लेखिका अनीस जंग ने 'दक्खन हेराल्ड' के अपने एक स्तंभ में अपने भावों को यों व्यक्त किया था- "जम्मू से मैं मात्र दो लोगों को जानती हूँ, वे हैं-डॉ. कर्ण सिंह और पद्मा सचदेव। दोनों ही कवि हैं। अतएव, जिस जम्मू को मैं जानती हूँ, वह ऐसी धरा है, जहाँ कवि निवास करते हैं, जहाँ वन सदैव हरे-भरे रहते हैं, जहाँ पक्षियों की चहचहाहट की अविरल धारा बहती है, लोग खुशियों के गीत गाते हैं। पद्मा जो वर्षों, पहले बंबई और तदंतर दिल्ली में रहीं, उन्होंने इन पर्वतों और सितारों जड़ी रातों के विषय में गाना बंद नहीं किया है। आज भी वे प्रेमासक्त नारी के हृदय में हिलोर लेने वाले गीत गाया करती हैं।" इसके आगे वे कहती हैं-"पद्मा के गीत, उनकी वांछा और कल्पना को अभिव्यक्त करते हैं।" उसका कहना है- "कई बार मुझे प्रतीत होता है, मैं एक सैनिक की पत्नी हूँ, सैनिक जो किसी दूरस्थ स्थल पर जा चुका है। विरह की ऐसी अवस्था में आँधी का एक थपेड़ा मुझे घेर लेता है। मैं आंतरिक प्रेरणा से गीत गाँठकर उस भाव को आगे बढ़ाती हूँ।" कवि शब्द का भावार्थ है- "सहृदयता की प्रतिमूर्ति।" पद्मा इस परिभाषा पर पूरा उतरती हैं। अपने सादगी भरे उद्गारों से उन्होंने मानवीय चेतना को सफलता से अभिव्यक्त किया है। उनकी कविताएँ कहती दिखाई पड़ती हैं कि हरियाली, दृढ़ता और वीरता डुग्गर की पहचान है। डोगरी भाषी क्षेत्र 'डुग्गर' सदियों से भारत देश का निगहबान रहा है। पद्मा सचदेव को इस बात का अभिमान है। इस विनिबंध में पद्मा जी के जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ियों तथा घटनाओं को संक्षेप में समायोजित करने के अतिरिक्त, उनकी कविता तथा अन्य विधाओं में योगदान पर परिचयात्मक प्रकाश डाला गया है। इस अध्यवसाय को हाथ में लेने के लिए साहित्य अकादेमी बधाई की पात्र है। इसे मैं परम सौभाग्य का विषय मानता हूँ कि पद्मा सचदेव पर विनिबंध लिखने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई है। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि डोगरी के प्रायः तमाम कलमकार परस्पर परिचय के सूत्रों से आबद्ध रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक का मेल-जोल समस्त समकालीन साहित्यिक बिरादरी से रहा है। कारण यह है कि हमें डोगरी साहित्य के अभिवर्धन से जुड़ी लगभग छह पत्रिकाओं के संपादन का सुअवसर मिला, जिसकी अवधि दशकों के विस्तार में फैली हुई है। पद्मा जी से हमारी धनिष्ठ पहचान इसलिए भी थी, क्योंकि उनके छोटे अनुज ज्ञानेश्वर हमारे परम मित्र भी थे और सहपाठी भी। इसी अधिकार से हम उन्हें 'बोबो जी' अर्थात् दीदी जी कहकर संबोधित किया करते थे। पत्रकारिता के दौरान, पद्मा जी से हमारे मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। चलभाष के प्रचलन के पश्चात् तो उन से फोनिम विचार-विमर्श की दिशा अधिक प्रशस्त हो गई। यों तो डोगरी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है ही, किंतु उन्होंने डोगरी को विशेष पहचान तथा इसे संवैधानिक मान्यता दिलाने के संघर्ष में अग्रगण्य भूमिका अदा की है।
पुस्तक परिचय
पद्मा सचदेव (1940ई--2021ई.) अपनी रचनात्मक श्रेष्ठता के बल पर भारतीय साहित्य-फलक पर विशेष पहचान दर्ज कर चुकी लेखिका पद्मा सचदेव की डोगरी-साहित्य में युग-निर्मात्री की भूमिका रही है। भारतीय भाषाओं के समालोचकों तथा हिंदी साहित्य के दिग्गजों ने उनके योगदान की मूरिः भूरिः प्रशंसा की है। डोगरी में जहाँ उनके काव्य-सोष्टय को सराहा जाता है, वहीं हिंदी में उनके योगदान को भी पर्याप्त प्रशंसा मिली है। इससे उन्हें द्विभाषी लेखिका के रूप में प्रसिद्धि मिली। अपने एक आलेख में रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा "पद्माजी ने डोगरी के लोकगीतों के सिवा, अपनी कुछ कविताएँ भी मुझे सुनाई। उन्हें सुनकर मुझे लगा, में अपनी कलम फेंक हूँ, वही अच्छा है, क्योंकि जो बात पद्मा कहती है, वहीं असली कविता है और हम में से हर कवि उस कविता से, बहुत दूर हो गया है।" पद्मा जी की वे कविताएँ विशेष महत्त्व रखती हैं, जिनमें जीवन की युगीन सच्चाइयों को परिभाषित करने का प्रयास दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः ये ऐसे दार्शनिक प्रश्न हैं, जिनका सरोकार प्रत्येक मानव से है। कवयित्री ने सहज-प्रवहमान भावोद्वेलन में सक्षम शब्दावली का प्रयोग किया है। अपने देखे-भाले पात्रों और सुपरिचित परिवेश पर उन्होंने उत्कृष्ट कहानियों की रचना की है। सुविख्यात उर्दू कहानीकार कृष्ण चंदर की भाँति वे तस्वीरकशी के उपकरण द्वारा अपने कयानकों को भाव-चित्रों में संजोने की महारत रखती हैं। प्रस्तुत विनिबंध में द्वि-भाषी लेखिका पद्द्मा सचदेव के भारतीय साहित्य को दिए गए समग्र योगदान को रेखांकित किया गया है। उनका लेखन बहुधा नारी-विमर्श के मुद्दों पर केंद्रित रहा है। विंव-निर्माण हेतु उन्होंने लेखनी को तूलिका और शब्दों को रंगों के स्थान पर प्रयोग में लाया। लेखिका का गद्य-लेखन उनकी कविता के समान सूक्ष्म भाव-संसार को परिलक्षित करता है। विनिबंध लेखक की धारणा है कि मात्र क्षेत्रीय भाषा तक सीमित रहने के बजाय, यदि लेखक-समाज, साय-ही-साथ राष्ट्र-भाषा हिंदी में भी रचनात्मक योगदान देने लगे तो इससे निश्चय ही हमारी राष्ट्रीय एकता मज़बूत होगी। पद्मा जी भारत की भाषायी एकता के लिए साहित्यिक कृतियों के अनुवाद की प्रबल समर्थक थीं। इसलिए, इस पुस्तक में उनके अनुवाद-विषयक अध्यवसाय पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। दोनों भाषाओं में प्रकाशित कृतियों की परिचयात्मक समालोचना भी प्रस्तुत की गई है।
लेखक परिचय
ओम गोस्वामी (1947 ई.) हिंदी और डोगरी के सुप्रसिद्ध लेखक हैं। वे ऐसे विलक्षण साहित्यकार हैं, जिन्होंने साहित्य की तमाम विधाओं में जमकर लिखा है। संप्रति विगत 18 वर्ष से, वे जम्मू से प्रकाशित द्विमासिक हिंदी पत्रिका 'श्रीगंगा संग्रह' का संपादन कर रहे हैं।
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