लेखक परिचय
आशापूर्णा देवी (1909-1995) बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र के बाद बांग्ला साहित्य-लोक में आशापूर्णा देवी का ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है, जिनकी हर कृति पिछले पचास सालों से बंगाल और उसके बाहर भी एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती रही है और जो पाठक को एक नये अनुभव के आलोक-वृत्त में ले जाती है। आशापूर्णा देवी का लेखन-संसार उनका अपना या निजी संसार नहीं, वह हम सबके घर-संसार का विस्तार है। हम सबकी मानसिकता को शायद ही इतने सुन्दर, सजीव ढंग से कोई चित्रित कर सका हो। उनकी लेखनी का स्पर्श पाते ही कैसा भी पात्र हो, कोई चरित्र हो, जीवन्त होकर सम्मुख खड़ा हो जाता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार, कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'भुवन मोहिनी स्मृति पदक' और 'रवीन्द्र पुरस्कार' से सम्मानित आशापूर्णा जी अपनी एक सौ सत्तर से भी अधिक औपन्यासिक एवं कथापरक कृतियों द्वारा सर्वभारतीय स्वरूप को निरन्तर परिष्कृत एवं गौरवान्वित करती हुई आजीवन संलग्न रहीं।
पुस्तक परिचय
प्रारब्ध
प्रस्तुत कृति आशापूर्णा देवी के निजी जीवन और दर्शन को प्रतिकृत और प्रतीकित करती है। सत्यवती (प्रचम प्रतिश्रुति) और सुवर्णलता के चरित्र की विशेषताएँ बार-बार उनकी कथा-कृतियों में अलग-अलग पात्रों में निरूपित हुई हैं और इस धारावाहिकता में जीवन और जगत् के प्रति लेखिका के प्रौढ़ दृष्टिकोण की बार-बार पुनरावृत्ति हुई है, और भी अधिक प्रभावी पैनेपन के साथ।
नारी-केन्द्रित उपन्यासों में उठायी गयी समस्या का प्रश्न-विन्दु अक्सर यही है कि हमारा समाज पुरुष-द्वारा निर्मित और पुरुष-शासित है। सृजन में अपनी श्रेष्ठ सहा भागिता के बावजूद समाज में नारी-पुरुष का समान मूल्यांकन नहीं होता। पुरुष की बड़ी-से-बड़ी कमज़ोरी समाज पचा लेता है लेकिन नारी को उसकी थोड़ी-सी चूक के लिए भी पुरुष समाज उसे कठोर दण्ड देता है; जबकि इसमें उसकी लिप्सा का अंश कहीं अधिक होता है। वास्तव में नारी अपने मूल अधिकारों से तो वंचित है, लेकिन सारे कर्त्तव्य और दायित्व उसके हिस्से मढ़ दिये गये हैं। आशापूर्णाजी का मानना है कि नारी का जीवन अवरोधों और वंचना में ही कट जाता है, जिसे उसकी तपस्या कहकर हमारा समाज गौरवान्वित होता है। इस विडम्बना और नारी जाति की असहायता को ही वाणी मिली है यशस्वी बांग्ला कथाकार के इस अनुपम मनोहारी उपन्यास में। सजग पाठकों के लिए प्रस्तुत है प्रारब्ध का यह नया संस्करण ।
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