प्रस्तावना
किसी भी सभ्यता की यात्रा का मूल्यांकन केवल उसकी भौतिक उपलब्धियों, राजनीतिक विस्तार या आर्थिक समृद्धि से नहीं किया जा सकता। सभ्यता की वास्तविक कसौटी उसके द्वारा पोषित, संरक्षित और विकसित किए गए नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के समुच्चय में निहित होती है। मूल्य, वस्तुतः, वे अदृश्य धागे हैं जो व्यक्ति को समाज से, समाज को ब्रह्मांड से और वर्तमान को अतीत एवं भविष्य से जोड़ते हैं। वे संस्कृति की आत्मा और चेतना का प्रतिबिम्ब होते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, भारतीय सभ्यता का विमर्श अद्वितीय है। यह एक ऐसी ज्ञान-परम्परा है जिसने सहस्राब्दियों से 'होने' के यथार्थ से अधिक 'होने की सार्थकता' पर ध्यान केंद्रित किया है। यह एक ऐसा चिन्तन है जिसका मूल प्रश्न 'मैं कौन हूँ?" से आरम्भ होकर 'मेरा कर्तव्य क्या है?' तक पहुँचता है। परन्तु वर्तमान युग, जो तीव्र तकनीकी प्रगति और भू-राजनीतिक अस्थिरता से परिपूर्ण है, एक गहरे मूल्य-संकट से भी गुज़र रहा है। ऐसे समय में, जब हम वैश्विक स्तर पर नैतिक द्वंद्वों और सांस्कृतिक असमंजस के मोड़ पर खड़े हैं, अपनी जड़ों की ओर लौटना, उन्हें समझना और उनसे वर्तमान के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करना न केवल एक बौद्धिक अभ्यास है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अत्यंत आवश्यक हो गया है। इसी ज्वलंत प्रश्न के समाधान की दिशा में विद्वान युवा लेखक डॉ. दीपक कुमार का यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ "प्राचीन भारतीय परम्पराओं में नैतिकता एवं मूल्य” एक गम्भीर एवं भगीरथ अकादमिक प्रयत्न है। यह पुस्तक इस मूल प्रतिज्ञा से आरम्भ होती है कि 'भारतीय नैतिकता' कोई एकल, संहिताबद्ध या स्थिर अवधारणा नहीं है। यह एक विशाल वटवृक्ष पुस्तक का आरम्भ ही इसकी व्यापकता का संकेत देता है। प्रथम अध्याय, जो 'जम्बूद्वीप', 'आर्यावर्त', 'भारत' और 'इंडिया' जैसे इस भू-भाग के विविध नायों की मीमांसा करता है, वह केवल भौगोलिक या राजनीतिक नामकरण का इतिहास नहीं है। यह उन वैचारिक संक्रमणों को दर्शाता है, जहाँ एक 'भौगोलिक इकाई' धीरे-धीर एक 'सांस्कृतिक चेतना' में रूपांतरित होती है। "जम्बूद्वीप" की पौराणिक-भौगोलिक कल्पना से लेकर 'आर्यावर्त' की सांस्कृतिक श्रेष्ठता, 'भारत' के राजनीतिक-सामाजिक गठन और 'इंडिया' की वैदेशिक पहचान तक, हर नाम अपने आप में एक मूल्य-बोध समेटे हुए है। यह अध्याय पाठक को यह समझने में सहायता करता है कि जिस 'भारत' की नैतिकता की हम बात कर रहे हैं, उसकी सीमाएँ केवल राजनीतिक नहीं, वरन् सांस्कृतिक और वैचारिक भी रही हैं। इसके उपरान्त, लेखक हमें सीधे भारतीय नैतिकता के आदि-स्रोत, "वैदिक परंपरा में 'ऋत' की अवधारणा" तक ले जाते हैं। 'ऋत' वह ब्रह्माण्डीय व्यवस्था है जो प्रकृति के शाश्वत, नैतिक नियम को स्थापित करती है। जब यही 'ऋत' मानवीय और सामाजिक व्यवहार के स्तर पर अवतरित होता है, तो वह 'धर्म' बन जाता है। 'धर्म' की अवधारणा भारतीय नैतिकता की आधारशिला है, जैसा कि महाभारत में कहा गया है- "धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।" (जो धारण करता है, उसे धर्म कहते हैं। धर्म ही प्रजा को धारण करता है)। डॉ. कुमार ने "ऋत" से "धर्म" तक की इस सूक्ष्म यात्रा को कुशलता से दर्शाया है, जो नैतिकता को मानव-निर्मित सुविधा नहीं, बल्कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्था से जोड़ती है। यह अध्याय हमें यह बोध कराता है कि हमारा सदाचार केवल सामाजिक संविदा नहीं, बल्कि एक "सार्वभौमिक" उत्तरदायित्व है। भारतीय चिन्तन का जड़ता में नहीं, गतिशीलता में विश्वास रहा है। तीसरा अध्याय, "उपनिषदों और श्रमण परंपराओं में वाद-विवाद", इसी गतिशीलता का प्रमाण है। यह उस युग को दर्शाता है जहाँ उपनिषदों के 'आत्मन्-ब्रह्मन्' के ज्ञान-मार्ग के समानांतर बौद्ध, जैन और आजीवक जैसी श्रमण परम्पराएँ वेदों की सत्ता को अस्वीकार कर 'कर्म' और 'अहिंसा' को नैतिकता का केंद्र बना रही थीं। पुस्तक की उपलब्धि इन दो धाराओं को परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे को समृद्ध करने वाले 'शास्त्रार्थ' या 'संवाद' के रूप में प्रस्तुत करने में है। चौथा अध्याय "राजत्व एवं समाज धर्म, नीति एवं दण्ड" नैतिकता के दार्शनिक धरातल से उतरकर उसके व्यावहारिक और राजनीतिक अनुप्रयोग पर आता है। यह स्पष्ट करता है कि प्राचीन भारत में 'राजा' 'धर्म' के अधीन था, उससे ऊपर नहीं। 'धर्म' ही वास्तविक संप्रभु था। 'दण्ड' (न्याय-विधान) का उद्देश्य प्रतिशोध नहीं, अपितु 'धर्म' (व्यवस्था) की पुनर्स्थापना था। यह 'नीति' (राज-संचालन) और 'धर्म' (नैतिक विधान) के जटिल अन्तर्सम्बन्धों को उजागर करता है। दण्डः शास्ति प्रजाः...' (दण्ड ही सब प्रजा पर शासन करता है) को उद्धृत करते हुए, लेखक 'धर्म', 'नीति' और 'दण्ड' के नैतिक संतुलन को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने कुशलतापूर्वक यह दर्शाया है कि प्राचीन भारतीय राजव्यवस्था में यही त्रिकोण 'धर्म', 'नीति' और 'दण्ड' नैतिक सामंजस्य और शासन की स्थिरता का मूल आधार था। नैतिकता केवल दर्शन नहीं, जीवन-शैली भी होती है। अगला अध्याय, "राष्ट्र, संस्कार और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश", इसी व्यावहारिकता को रेखांकित करता है। 'राष्ट्र' की परिकल्पना सांस्कृतिक थी और 'संस्कार' वे मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ थीं जिनके माध्यम से मूल्यों को उपदेशों के बजाय 'जीवन-शैली' में आत्मसात कराया जाता था। 'संस्कार' भारतीय मूल्य-शिक्षा की धुरी थे। ये केवल कर्मकाण्ड नहीं थे, बल्कि व्यक्ति को 'परिष्कृत' करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ थीं। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि (मृत्यु) तक, ये संस्कार व्यक्ति को उसके सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्वों का बोध कराते थे। छठा अध्याय श्रमण परंपराओं (बौद्ध, जैन आदि) के सदाचार पर पुनः केन्द्रित होता है। इसमें बौद्ध धर्म के 'अष्टांगिक मार्ग' (जो 'करुणा' और 'प्रज्ञा' पर आधारित "मध्यम मार्ग" है) और जैन धर्म के "अहिंसा परमो धर्मः" एवं "पंच महाव्रत" (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। सातवाँ अध्याय भारतीय नैतिकता के सबसे व्यावहारिक दृष्टिकोण 'पुरुषार्थ चतुष्टय' (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का विश्लेषण करता है। यह जीवन-स्वीकारक दर्शन है, जो 'अर्थ' (धन) और 'काम' (इन्द्रिय सुख) को वैध लक्ष्य मानता है, किन्तु उन्हें 'धर्म' (नैतिकता) द्वारा नियंत्रित और 'मोक्ष' (मुक्ति) की ओर उन्मुख करता है।
लेखक परिचय
डॉ. दीपक कुमार (जन्म: 1991, ग्राम लुहारी, जिला बागपत, उत्तर प्रदेश) ने हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात, आपने दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग से क्रमशः एम.ए., एम.फिल. तथा पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं, साथ ही पालि और संस्कृत भाषाओं में डिप्लोमा भी किया है। डॉ. कुमार विगत सात वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विषय के सहायक प्राध्यापक (अतिथि) के रूप में कार्रत हैं। आपके शैक्षणिक रुचि के प्रमुख क्षेत्र भारतीय धर्मदशर्न, भारतीय ज्ञान परम्परा, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं विरासत अध्ययन हैं। आपने 30 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध-पत्र प्रस्तुत किए हैं तथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपके 10 से अधिक शोध-पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी प्रथम पुस्तक "बौद्ध, जैन, गांधीवाद एवं शान्ति अध्ययन" का प्रकाशन वर्ष 2018 में हुआ। शैक्षणिक कार्यों के साथ-साथ आप सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। आप 'गुहार' नामक गैर-सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) के संस्थापक सदस्य एवं वर्तमान अध्यक्ष हैं।
पुस्तक परिचय
प्राचीन भारतीय परम्पराओं में नैतिकता एवं मूल्य यह पुस्तक प्राचीन भारत के उन शाश्वत जीवन मूल्यों की गहराई से पड़ताल करती है, जिन्होंने सदियों से भारतीय सभ्यता का मागर्दशर्न किया है। इसमें वेदों, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों, श्रीमद्भगवङ्गीता, रामायण, महाभारत, तथा जैन और बौद्ध दशर्न में निहित नैतिक शिक्षाओं का विश्लेषण किया गया है। नई शिक्षा नीति 2020 के अनुरूप, यह पुस्तक दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित VAC पाठ्यक्रम के सभी इकाइयों को समग्रता समग्रता से समाहित करती है। पुस्तक में जटिल दार्शनिक अवधारणाओं को भी छात्रों और आम पाठकों के लिए अत्यंत सरल, सहज और रोचक भाषा-शैली में प्रस्तुत किया गया है। यह पुस्तक न केवल अकादिमक आवश्यकताओं की पूर्ति करेगी, बल्कि भारतीय मूल्यों को गहराई से समझने के इच्छुक विद्यार्थियों सहित प्रत्येक पाठक को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने और एक अधिक सार्थक एवं नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करेगी।
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