आदिवासी लोक कला एवं तुलसी साहित्य अकादमी ने पिछले अनेक वर्षों में लोक जीवन में प्रचलित मौखिक साहित्य परम्परा के प्रायः सभी रूपों और विधाओं के संकलन-संपादन तथा प्रकाशन का कार्य किया है- गीत, कथा, गाथा, आख्यान, भक्ति रचनाएँ आदि इसमें शामिल हैं।
वाचिक एक विस्तृत क्षेत्र है, इसमें केवल शब्द परम्पराएँ ही नहीं होतीं, साहित्य-काव्य के अलावा लोक की पारम्परिक प्रदर्शनकारी और रूपंकर कलाओं के साथ भी वाचिक साहित्य की एक पूरी लोक परम्परा जुड़ी होती है, इसीलिए लोकनृत्यों और नाटयों के साथ भी साहित्य रचना की एक समृद्ध वाचिक परम्परा का विकास होता है। स्वांग, दिवारी, करमा, गणगौर, सावनी फागें और बधाई के मंगलगीत मूलतः लोक की नृत्य परम्परा के साथ संबंधित वाचिक काव्य हैं, यहाँ तक कि काठी नृत्य के साथ गायी जाने वाली निमाड़ी गाथाएँ नृत्य परम्परा का साहित्य हैं। ठीक इसी तरह पारम्परिक लोकनाट्यों के साथ नाट्य साहित्य की एक वाचिक परम्परा संबंधित रहती है, इसमें नाट्य पाठ और गीत रचना अपने आपमें एक समृद्ध लोक साहित्य परम्परा है। गाथा गायन और नाट्य परम्पराओं के साथ लोक के संगीत की भी एक परम्परा जुड़ी रहती है- लोक के रंग संगीत के संकलन का तो कोई विशेष यत्न हिन्दी क्षेत्र में हुआ ही नहीं है। परम्परागत शैलियों में लोकनाट्यों के पाठ भी संकलित कर व्यवस्थित रूप से प्रकाशित नहीं किये गये हैं।
हिन्दी भाषी क्षेत्र में प्रचलित जनपदीय सांस्कृतिक परम्पराओं में विशेष रूप से राजस्थानी ख्याल जो शेखावाटी और कुचामणी शैलियों में विकसित हुआ तथा सांगीत या नौटंकी जो हाथरसी और कानपुरी शैलियों में आज भी एक जीवन्त लोक परम्परा है, इसके अलावा भगत, माच, नाचा, स्वाँग, गम्मत, साँग, विदेशिया, विदापत, जट-जटिन, किनतनिजा तथा नटुआ आदि लोकनाट्य भी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश और हरियाणा तथा छत्तीसगढ़ क्षेत्र में प्रभावी लोकनाट्य परम्पराएँ रहीं हैं। इनमें से कुछ शैलियाँ समग्र रंग प्रस्तुति शैली की तरह और कुछ गान शैलियों के रूप में विकसित हुई।
लीला परम्पराओं का विकास, रामकथा और श्रीमद्भागवत के साथ जुड़ा है। कृष्ण कथाओं की लीला प्रस्तुति और रामलीला मंचन, लीला मंच की प्राचीन शैलियाँ हैं- वैष्णव परम्परा में लीलानुकरण और लीला दर्शन तथा आस्वाद साधक के लिए भक्ति का एक ढंग ही था। दशहरे और रामनवमी के अवसर पर रामलीला मंचन तथा शरद पूर्णिमा और वसंत के अवसर पर रास मंचन की प्राचीन परम्परा रही है। इस क्षेत्र को हमें आध्यात्म, संस्कृति और लालित्य का समवेत रूप ही कहना होगा। लीला मंच, नाट्य मंचों से अलग रहे हैं और उनकी परम्परा का विकास, जनरंजन की नाट्य शैलियों के रूप में न होकर 'भक्ति की एक पद्धति' की तरह हुआ है। कालान्तर में विशेष रूप से रामकथा मंचन लीला प्रस्तुति के अपने पारम्परिक आध्यात्मिक स्वरूप के बजाय नाट्य परम्पराओं से प्रभावित हुआ पारसी नाट्य शैली के प्रभाव में इसका मंचन एक यथार्थवादी नाट्य प्रस्तुति की तरह ही होने लगा रामकथा की लीला प्रस्तुतियाँ इनी-गिनी ही शेष रहीं, विशेष रूप में रामनगर और काशी में अथवा असम के क्षेत्र में विकसित आध्यात्मिक सत्रों में। इसके विपरीत श्रीमद्भागवत केन्द्रित कृष्ण कथाओं पर एकाग्र रास मंच, लीला प्रस्तुति के पारम्परिक मंच की तरह ही रहा, उसमें नाट्य तत्त्वों और यथार्थवादी नाट्य शैलियों का प्रभाव बहुत कम पड़ा।
वैष्णव सम्प्रदायों में लीला से जुड़े पारम्परिक काव्य और संगीत एक सुदीर्घ परम्परा में विकसित हुए हैं- श्रीमद्भागवत की कथाओं के प्रसंगों में, लीला मंच के माध्यम से लोक समाजों तक भागवत कथा और लीला मंच को विस्तारित करने में विभिन्न रासाचार्यों ने अथक परिश्रम किया। इस मंच ने ब्रज के पारम्परिक लोक संगीत के साथ ही ध्रुपद और धमार की प्राचीन परम्परागत शास्त्रीय संगीत शैलियों को भी अपने में समाहित किया। रासलीला मंच को ब्रज क्षेत्र के समाजी संगीत गायन की विशेष संगीत शैली तथा पुष्टिमार्गीय वैष्णव परम्परा के हवेली संगीत से भी बड़ी समृद्धि मिली। चूँकि ब्रज की ये रासमंडलियाँ सारे देश में आमंत्रित की जातीं थीं, इसलिए इन संगीत शैलियों का प्रभाव भी देश की विभिन्न संगीत परम्पराओं पर हुआ, और आज भी यह एक जीवन्त परम्परा है। इसी प्रकार काव्य परम्परा को भी समझने का यत्न करना चाहिये। वास्तव में मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के समय से ही विभिन्न श्रेष्ठ कवि, अनेक वैष्णव सम्प्रदायों से जुड़े रहे हैं इनकी काव्य रचना तत्त्वतः 'भक्ति पद रचना' है, इनमें अष्टछाप के कवियों का योगदान अभूतपूर्व है, ये सभी कवि श्री वल्लभाचार्य के पुष्टि मत और सम्प्रदाय से जुड़े थे। दूसरे अन्य वैष्णव सम्प्रदायों में भी श्रेष्ठ कवि और संगीताचार्य संबद्ध रहे हैं। रास मंच ने ब्रज की पारम्परिक वाचिक गीति रचना तथा ब्रजभाषा के विभिन्न कवियों की पद रचना को भी भागवत कथाओं के साथ समाहित किया इसलिए बहुत हद तक रास मंच के माध्यम से इस काव्य और संगीत परम्परा का संकलन और संरक्षण संभव हो सका। इस परम्परा ने कथा, गीति रचना, नृत्य-भावाभिनय और संगीत के साथ एक समग्र लीला मंच और लीला दर्शन विकसित किया। पारम्परिक भारतीय प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में इसीलिए हम आग्रहपूर्वक लीला मंच के अवदान पर पुनर्विचार का आग्रह दोहराते रहे हैं हम ऐसा मानते हैं कि लीला मंच हमारे देश में नाट्य परम्पराओं के आदि स्रोत और बीज रूप रहे हैं।
सोलहवीं सदी में 'श्रीरामचरितमानस' प्रबंध की रचना के साथ रामलीला मंचन की परम्परा में एक युगान्तर घटित हुआ। संत तुलसीदास ने अपने शिष्य मेघा भगत के माध्यम से रामलीला प्रदर्शन के लिए रामलीला मंडली का गठन करवाया। धीरे-धीरे ऐसे रामलीला मंडल सारे उत्तर भारत में फैल गये। प्रस्तुति का प्रमुख आधार 'रामचरितमानस' ही था। इसे अनेक लोक शैलियों में विकसित होने का अवसर मिला, जिसमें मूल पाठ के साथ कुछ जनपदीय स्थानिक सांस्कृतिक तत्त्व और काव्य तथा संगीत परम्पराओं का संश्रूष किया गया। ऐसा लगता है कि तुलसी के पूर्व रामलीला मंचन रामकथा के कुछेक प्रसंगों पर केन्द्रित होता था, जिसमें पाठ का आधार वाल्मीकि रामायण, आध्यात्म रामायण, आनंद रामायण तथा कृतिवास रामायण और कालिदास और भवभूति जैसे संस्कृत कवियों की रचनाओं में विशेष रूप से 'रघुवंशम्' और 'उत्तररामचरित' के प्रसंग ही शामिल रहे होंगे। रामचरितमानस की रचना के बाद सम्पूर्ण रामकथा, रामलीला में प्रदर्शित होना आरंभ हुई। उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के आरंभ में पारसी मंचन शैली के अभ्युदय से धीरे-धीरे रामलीला की परम्परा 'लीला के तत्त्वों' को पीछे छोड़ती गयी और पारसी रंग शैली में 'रामकथा नाटक' की एक यथार्थवादी शैली में विकसित होने लगी। उसमें भाव-भक्ति और लीला दर्शन की आध्यात्मिक शक्ति का क्षरण हुआ, वह जनरंजन की शैली में परिवर्तित हुई बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में श्रीराधेश्याम रामायणी के पाठ और गायन शैली का भी बड़ा प्रभाव पड़ा। उसकी सम्प्रेषण शक्ति और प्रभाव जबर्दस्त था। पारसी शैली के साथ इस प्रभाव ने लीला परम्परा के दायरे में विकसित जनपदीय रामलीला लोक शैलियों को लगभग नष्ट कर दिया।
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