पुस्तक के विषय में
भूमिका
दो वर्ष पहले यदि कोई कहता, कि मैं इस प्रकार को एक पुस्तक लिखूँगा, तो मुझे इस पर विश्वास नहीं होता । वस्तुत:, ऐसी एक पुस्तक को अपनी या पराई किसी भी भाषा में भी न पाकर मुझे कलम उठानी पड़ी । ऋग्वेद से ही हमारे इतिहास की लिखित सामग्री का आरंभ होता है। जिस प्रकार का ईश्वर झूठ के साथ-साथ महान् अनिष्टों का कारण है, पर अनेक देवता सुन्दर कला का आधार होने के कारण अनमोल और स्पृहणीय हैं; उसी तरह वेद, भगवान् या दिव्य पुरुषों की वाणी न होने पर भी अपने सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक सामग्री के कारण, हमारी सबसे महान् और अनमोल निधि है । जिन्होंने इसको रचा, और जिन्होंने पीढियों तक कंठस्थ करके बड़े प्रयत्न से इसे सुरक्षित रक्खा, वह हमारी हार्दिक कृतज्ञता के पात्र हैं । जहाँ तक देश-विदेश को भाषातत्वज्ञों और बुद्धिपूर्वक 'वेदाध्ययन करने वालों का सम्बन्ध है, ऋग्वेद के काल के बारे में बहुत विवाद -नहीं है । पर, जो हरेक चीज में अध्यात्मवाद रहस्यवाद को देखने के लिए उतारू हैं, वह अचिकित्स्य है, उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । अपनी श्रद्धा के अनुसार वह अपने विश्वास पर दृढ रहें, उन्हें विचलित कौन करता है? लेकिन, आज की भी तथा आनेवाली पीढ़ियां और भी अधिक,, हरेक बात को वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहेंगी । उनके लिए 'ही यह मेरा प्रयत्न है ।
ऋग्वेद के जिज्ञासुओं करे अपनी कल्पना की सीमाओं को जान लेना आवश्यक है । ऋग्वेद हमारे देश के ताम्र-युग की देन है । ताम्र-युग अपने अन्त में था, जबकि सप्तसिन्धु (पंजाब) के ऋषियों ने ऋचाओं की रचना की, जब कि सुदास ने ''दाशराज्ञ।'' युद्ध में विजय प्राप्त करके आर्यों की जन-व्यवस्था की जगह पर एकताबद्ध सामन्ती व्यवस्था कायम करने का प्रयत्न किया। सप्तसिन्धु के आर्यों की संस्कृति प्रधानत: पशुपालों की संस्कृति थी । आर्य खेती जानते थे, और जौ की खेती करते भी थे । पर, इसे उनकी जीविका का मूल नहीं, बल्कि गौण साधन ही कहा जा सकता है । वह अपने गौ-अश्वों अजा-अवियों (भेड़-बकरी) को अपना परम धन समझते थे। क्योंकि खान-पान और पोशाक के ये सबसे बड़े साधन थे । अपने देवताओं को संतुष्ट करने के लिए भी इनकी उन्हें बडी आवश्यकता थी । पशुधन को परमधन मानने के कारण ही आर्यों को नगरो की नहीं, बल्कि प्राय: चरिष्णु ग्रामों की आवश्यकता थी । इस प्रकार ऋग्वेदिक आर्यों को संस्कृति पशुपालों और ग्रामों की संस्कृति थी । इन सीमाओं को हमें ध्यान मे रखना होगा ।
ऋग्वेद के बारे में निर्णय करते समय यह भी ध्यान रखने की बात है, कि ऋग्वेदिक आर्य केवल भारत से ही सम्बन्ध नहीं रखते थे, बल्कि उनकी भाषा और पूज्य भावनाओं के सम्बन्धी भारत से बाहर भी थे । बाहर के सबसे नजदीक के सम्बन्धी ईरानी थे । सौभाग्य से उनके धार्मिक आचार-विचारों के जानने के लिए अवेस्ता और पारसी धर्म के मानने वाले -पब भी मौजूद है । तुलनात्मक अध्ययन से मालूम होता है, कि वेद और अवेस्ता के मानने वाले अपनी भाषा और धर्म में एक दूसरे के बहुत नजदीक थे । ईरानियों के बाद दूसरे जो सबसे नजदीक के आयी के विदेशी सम्बन्धी हैं, वह स्लाव जातियां हैं । स्लाव स्लाव (शक लाव) का ही अपभ्रंश है । रूसी, अक्रइनी, बेलोरूसी, बुल्गारी, युगोस्लावी चेकोस्लावी पोल-स्लाव जातियां-शकों की ही सन्तान हैं । इन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म को आज से सात-आठ सौ वर्षो पहले छोड़ दिया । ईसाई धर्म स्वीकार करते समय इनके पूर्वजों को लिपि का ज्ञान नहीं था, और न उन्होंने अपने पवित्र विश्वासों और देवताओं के सम्बन्ध में अवेस्ता या वेद जैसे कोई प्राचीन संग्रह बनाये थे । जो भी पुराने साम या गाथाये रही होगी, वह ईसाई धर्म स्वीकार करते ही पुराने विश्वास के साथ नष्ट हो गयी । पेरुन, सूर्य आदि स्लाव देवताओं की मूर्तियों का भी इतना पूरी तरह से ध्वंस हुआ, कि संग्रहालयों में भी उनका पता नहीं मिलता ।
ईरानियों और शकों के बाद लेत-लिथुवानियों का सम्बन्ध नजदीक का है । यह दोनों भाषाएं सगी बहनें और एक दूसरे के बहुत नजदीक है । इनसे भी सहायता मिल सकती थी, यदि पुराने पादरियों की धर्मान्धता ने सर्वसंहार करने का व्रत न ले लिया होता । लिथुवानी सोलहवीं सदी तक अपने प्राचीन धर्म पर आरूढ़ थे । उनके देवताओं में वैदिक देवताओं की प्रतिध्वनि मिलती है। बाबर-हुमायूं या विद्यापति-जायसी के समय तक लिथुवानी अभी अपनी पुरानी सांस्कृतिक निधियों को जोगाये हुए थे । पर एक बार ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने पर वह अपने पुराने धार्मिक सम्पर्क को नष्ट कर देने के लिए मजबूर थे । बहुत पीछे ईसाइयों ने संस्कृति के मूल्य को समझा, और उनके भीतर सहिष्णुता ही नहीं, बल्कि अपनी और पराई सांस्कृतिक निधियों की रक्षा का ख्याल भी पैदा हुआ । भाषा की दृष्टि से लिथुवानी वैदिक भाषा कै उतना नजदीक नहीं है, जितना कि रूसी; पर, अपने व्याकरण में वह बहुत अधिक प्राचीनता रखती है । इसके बार पश्चिमी युरोप की प्राचीन-ग्रीक, लातिन-औंर आधुनिक जर्मन, फ्रेंच, अग्रेजी आदि भाषाओं का सम्बन्ध वैदिक भाषा के साथ हैं । वेद के अर्थ करने में यह सभी भाषायें अधिकार रखती हैं । हमारी कितनी ही संस्कृत धातुओं का प्रयोग प्राचीन या नवीन संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता, पर उनका आज भी उपयोग भारत के बाहर इन भाषाओं में देखा जाता है । उदाहरणार्थ दाबना संस्कृत में नहीं प्रयुक्त होता, हमारी आज की भाषाओं में यह मौजूद है, और रूसी में भी दब्ल्यात मिलता है । सप्तसिन्धु केवल वेद में ही नहीं मिलता बल्कि अवेस्ता और ईरानी प्राचीन साहित्य मे ही हफ्त-हिन्दू पाया जाता है, जो केवल सात नदियों के लिए नहीं, बल्कि सातों नदियों वाले प्रदेश और वही बसनेवाले लोगों के लिए भी इस्तेमाल होता रहा । जैमिनी वेद के बारे में बड़े कट्टरपंथी हैं । उन्हें ईश्वर मान्य नहीं है, पर वह वेद को सर्वोपरि प्रमाण मानते हैं । वह भी शब्दों के अर्थ करने में कितनी ही जगहों पर आर्यों की प्रसिद्धि छोडकर म्लेच्छों की प्रसिद्धि को स्वीकार करते हैं-
आर्यों (भारतीयों) मे कोई शब्दार्थ परम्परा पुज हो गयी, इसलिए यहाँ वह नहीं मिलती, पर म्लेच्छों में वह परम्परा मौजूद हैं, सम सलिए उस प्रामाणिक मानना पड़ेगा। वह इसके लिए पिक, नेम (आधा) आदि शब्दों का उदाहरण देते हैं।
हित्तित्त जाति मसोपोतामिया में उसी समय के आसपास रहती थी, जिस समय कि सपासिकु मे आर्य थे । नासत्य (अश्विनीकुमार), इन्द्र, वरुण, मित्र आदि देवताओं के हित्तित्त भी पूज्य मानते थे । इसलिए ऋग्वेदिक आर्यों के सम्बन्ध में जो गुत्थियां पैदा होती है, उनके सुलझाने की इजारेदारी हमारा साहित्य ही नहीं ले सकता ।
आयी के आने के समय भारत में उनसे कहीं बढकर उन्नत एक प्राचीन संस्कृति मौजूद थी, जिसके अवशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के पहिले मिले, और अब वह जमुना-गंगा उपत्यका और सौराष्ट्र तक मिल रहे हैं । सप्तसिन्धु के आयी की ग्राम-संस्कृति से यह नागरिक संस्कृति कहीं आगे बढी हुई थी । यदि आर्य अपनी पशुपाल संस्कृति और जीवन से चिपटे रहने का जबर्दस्त आग्रह न करते, तो वह तुरन्त इस नागरिक संस्कृति के अधिकारी हो सकते थे । पर, अध्ययन करने से उनके जीवन का सम्पर्क इस संस्कृति से भी मालूम होता है । उसकी और भी कितनी ही चीजें उन्होंने स्वीकार की होंगी । इस प्रकार ऋग्वेदिक आर्यों के अध्ययन के लिए सिन्दु-उपत्यका की संस्कृति सहायक है ।
आर्यों की संस्कृति के पुरातात्विक अवशेष मिलें, तो उनके द्वारा सप्तसिन्धु के आर्यों के जीवन को हम और अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं । चाहे ग्रामीण ही जीवन पसन्द करते हों, लेकिन आर्य सोम और अपने खाने-पीने के रखने के लिए कितनी ही तरह काठ, मिट्टी और तांबे के बर्तनों के इस्तेमाल करते थे, सोने और रतन के आभूषण पहनते थे, तांबे के हथियार इस्तेमाल करते थे । उनके अवशेष जरूर मिलने चाहिए । धूमिल मृत्पात्र आर्यों के साथ जोड़े जाते हैं । यह रोपड में भी मिले हैं, और कुरूक्षेत्र मे भी । यदि गंगा से पूर्व इस तरह के मृत्पात्र मिलते हैं, तो वह ऋग्वेद के काल के बाद भी मौजूद रहे, इसलिए उन पर सप्तसिन्धु के आयी के सम्बन्ध में एकान्तत: विश्वास नहीं किया जा सकता । चाहे अभी हम उन्हें अच्छी तरह पा या पहचान न सके हों, लेकिन सप्तसिन्धु की भूमि में वह मिलेंगे जरूर । सप्तसिन्धु का यद्यपि आधा ही अब भारत में है पर यह आधा है, जिसमें सपासिन्धु के आर्यों के सबसे प्रभुताशाली जन पुरु, तृत्सु, कुशिक रहते थे ।
सिन्धु-संस्कृति वालों के अतिरिक्त एक और जाति सप्तसिन्धु के आर्यों के सम्पर्क और संघर्ष में आयी, जिस ऋग्वेद दास और दस्यु के नाम से याद करता है । पर, जो किर, किरात अथवा किलात-चिलाप के नाम से सम्भवत, उस समय भी प्रसिद्ध थी, और जिसके लोगों और भाषा के अवशेष अब भी हिमालय मे मिलते हैं । वह भी वैदिक आर्यों के इतिहास के ऊपर अपनी भाषा और अपने पुरातात्विक अवशेषो द्वारा प्रकाश डालने की अधिकारी हैं । हिमालय में किरात अब थोड़े रह गये हैं, लेकिन वह और उनके साथ रहने वाले खश अब भी कितनी ही जगहों में ऐसे सांस्कृतिक तल पर मौजूद हैं, कि उनके जीवन और धार्मिक विश्वासों की सहायता से ऋग्वेदिक आर्यों के समझने मे आसानी हो सकती है-विशेषकर वैदिक देवताओं का आर्यों के साथ जिस तरह का सम्बन्ध था, वह कितने ही अंशों में अब भी हिमालय की इन जातियों में मौजूद है ।
ऋग्वेद स्वत: प्रमाण है । उसके अपने क्षेत्र में ऋचायें जितना अधिकारपूर्वक कह सकती हैं, उतना कोई दूसरा नहीं बतला सकता । यजुर्वेद और सामवेद को लेकर वेदत्रयी माना जाता था । बुद्ध के समय ईसा-पूर्व पाचवी-छठी शताब्दी में तीन वेदों का स्पष्ट उल्लेख आता है । पर, ऋग्वेद की तुलना करने पर सामवेद ऋग्वेद से भिन्न नहीं मालूम होता । इसके 2814 मन्त्रों में 75 को छोडकर बाकी सभी ऋग्वेद के हैं । सोमपान या सोमयाग के समय गाने की आवश्यकता थी । ऋग्वेद में भी साम और अनेक प्रकार के उक्थों, रत्तोमों का उल्लेख आता है । जैसे सूरसागर के सागर में से बहुत से पदों को गाने के स्वर आदि के साथ अलग सग्रह किया गया, वैसे ही सामवेद को ऋग्वेद से अलग करके रक्खा -गया ।
यजुर्वेद की वाजसनेयी में 40 अध्याय और 1988 कंडिका या मन्त्र हैं । यह गद्य और पद्य मिश्रित वेद है । पद्य भाग में अधिकतर ऋग्वेद की ऋचायें ले ली गयी हैं । जिस तरह साम गेय मन्त्रों की संहिता (संग्रह) है, उसी तरह यजुर्वेद में ऋग्वेद की बहुत सी ऋचायें तथा कितनी हो दूसरी रचनायें सम्मिलित करके यज्ञों के उपयोग के लिए एक संहिता बना दी गयी है । दर्श पूर्णमास अग्निष्टोम, वाजपेय, राजसूय, सौत्रामणि अश्वमेध, सर्वमेध, पितमेध आदि यज्ञों मे उपयुक्त होने वाले मन्त्रों का -यह संग्रह है । केवल अन्तिम (40 वां) अध्याय ब्रह्मज्ञान के लिए है, जिसे ईशावास्य उपनिषद् कहा जाता है! वेद के अन्त मे होने के कारण इसे वेदान्त कहा गया, और आगे ब्रष्मज्ञान सम्बन्धी इस और दूसरी उपनिषदों के ऊपर विवेचनात्मक -ग्रथ को वेदान्त कहा लाने -लगा । ऋग्वेद के सोमपान आदि अनुष्ठानों में दिव्य और मानुष अश मिले--जुले हैं । -ऋग्वेद-काल के बाद यह विधि-विधान दिव्यता का रूप ले लेते हे । उसी समय यजुर्वेद की रचना हुई । कृष्ण यजुर्वेद शुक्ल यजुर्वेद से भी पुराना माना जाता है । प्राय: ईसा-पूर्व 1000 से ईसा-पूर्व (900 तक यजुर्वेद, अथर्ववेद और ब्राह्मणों की रचना का समय है । ऋग्वेद के पीछे के इन ग्रंथों से भी ऋग्वेद और ऋग्वेदिक आर्यों के बारे में सूचनायें मिलती है । लेकिन, साथ ही ऋग्वेदिक काल की ऐतिहासिक सामग्री को गडबड़ 'करने की -जो प्रवृत्ति महाभारत, रामायण और पुराणो में मिलती है, उसका आरम्भ इसी समय हो चुका था । इसलिए उनके इस्तेमाल में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है ।
यह अध्ययन अधूरा है । इसमें ऋग्वेद की ऋचाओं के करीब छठे भाग का-उपयोग किया गया है, जिन्हें दो हजार तक किया जा सकता था । इससे अधिक ऋचायें शायद ही, ऐतिहासिक ज्ञान बढाने में साधक सिद्ध हों । ग्रंथ में उपयुक्त ऋचाओं को परिशिष्ट में अर्थ सहित दे दिया गया है, जो विद्यार्थियों और अनुसन्धानकर्ताओं के लिए उपयोगी साबित होगा । नाम और देवतासूची में भी कितनी ही उपयुक्त सामग्री को सन्निविष्ट करने की कोशिश की गयी है। ''हम और हमारे पूर्वज'' में सांस्कृतिक परिवर्तन के बारे में कुक आवश्यक तथ्य दिये जाते है।
विषय-सूची
भाग-1 (भौगोलिक)
1
सप्त सिन्धु
2
आर्य -जन
7-143
भाग-2 (सामाजिक, आर्थिक)
14
3
वर्ण और वर्ग
14-148
4
खान-पान
21
भाग-3 (राजनीतिक)
26
5
ऋग्वेद के ऋषि
26-164
6
दस्यु
39-186
7
आदिम आर्य राजा
45-186
8
शंबर
49-196
9
दिवोदास
58-209
10
सुदास
67
11
राजव्यवस्था
73-233
भाग-4 (सांस्कृतिक)
79
12
शिक्षा, स्वास्थ्य
79-240
13
वेश-भूषा
84-244
क्रीडा, विनोद
89-249
15
देवता (धर्म)
96-258
16
ज्ञान-विज्ञान
117-298
17
आर्य-नारी
122-308
18
भाषा और काव्य
132-327
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