राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी, की वार्षिक शोध-पत्रिका 'संस्कृति संधान' का प्रस्तुत अंक भारतीय इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य, पुरातत्व, धर्म एवं दर्शन आदि विविध विषयों के साथ-साथ लोक संस्कृति के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं (लोक कला, लोक देवता, लोक महोत्सव, गुहा रेखा चित्र, मिट्टी के खिलौने, लोक गीत एवं लोक संस्कृति की व्याख्या एवं व्यापकता आदि) पर कुछ नये तथ्यों को उद्घाटित करने का एक अल्प प्रयास है।
'संस्कृति' के अंतर्गत जितने विषयों का समावेश होता है उन्हें हम दो भागों में विभाजित कर सकते है। - प्रथम ध्यात्मिक तत्व तथा दूसरा लोक तत्व आध्यात्मि तत्व के अंतर्गत परलोक सम्बन्धी अवधारणा, मोक्ष तथा स्वर्ग संबंधी विचार, साधना मार्ग, जीवन का आदर्श तथा धार्मिक सिद्धांतों का समावेश होता है; जबकि लौकिक तत्व के अंतर्गत मानव जीवन के विभिन्न संस्कार, सामाजिक-उत्सव, पर्व, त्योहार, मनोरंजन के विविध आयाम, रहन-सहन, वेश-भूषा, अलंकरण, प्रसाधन, भोजन-पान, सामाजिक रुढ़ियां एवं परंपराएं, लोक विश्वास एवं मान्यताएं तथा विविध प्रकार की कलाओं आदि की परिगणना की जा सकती है। इस प्रकार 'संस्कृति' की आध्यात्मिक एवं लौकिक इन श्रेणियों को क्रमशः 'नागर संस्कृति' एवं 'लोक संस्कृति' के नाम से जाना जाता है। 'नागर-संस्कृति' लिखित एवं परिमार्जित है; जब कि 'लोक संस्कृति' अलिखित किन्तु मौलिक है। 'नागर संस्कृति' का प्रमाण अथवा आधार-भूत साक्ष्य परंपरागत रुप से लिखित शास्त्र अथवा साहित्य हैं; जब कि 'लोक संस्कृति' का प्रमाण साक्षात् लोक है जो दृष्य है, सामने है। इस प्रकार 'लोक संस्कृति' का मूलाधार सद्यः लोक अर्थात् लोग (People) हैं। इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
'नागर संस्कृति' के अंतर्गत समाज के उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वान, दार्शनिक, पंडित तथा मनीषी आदि लोग वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, रामायण एवं महाभारत आदि ग्रंथों में उल्लिखित विधि-विधानों का शास्त्रीय ढंग से पालन करते हैं और उन शास्त्रीय नियमों के अनुसार अपनी जीवनचर्या का अनुपालन करते हैं। किन्तु जनसामान्य लोगों की जो धारणाएं, मान्यताएं एवं लोक विश्वास है, उनका जो रहन-सहन, आचार-विचार, वेश-भूषा, उत्सव-महोत्सव आदि हैं, वह सभी 'लोक संस्कृति' के अंतर्गत आते हैं। वेद-शास्त्र, आगम-निगम आदि 'नागर संस्कृति' के मूलाधार हैं; जबकि 'लोक संस्कृति' का मूलाधार स्वयं सद्यः लोक अर्थात् सामान्य जनता जनार्दन है। लोक में जो भी दिखाई पड़ता है और जो कुछ पाया जाता है, वह सभी 'लोक संस्कृति' के अंतर्गत समाविष्ट किया जा सकता है। वेद, पुराण, उपनिषद्, स्मृति, महाकाव्य एवं पुरणों आदि धर्म ग्रंथों में वर्णित, इंद्र, वरुण, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, वायु, यम, कुबेर, विष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं राम, कृष्ण आदि देव 'नागर संस्कृति' के उपास्य देव है, जबकि डीह, डिहवार, ब्रह्म, वीर, भूत, दूत, पिशाच, यक्ष, नाग, पर्वत, वृक्ष, नदी, सरोवर आदि 'लोक संस्कृति' के उपास्य देव माने जाते हैं। इस प्रकार दृष्यमान जगत के जो भी अलिखित अर्थात् परंपरागत एवं मौखिक किन्तु मौलिक रुप से चले आ रहे रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, मौखिक आचार-विचार, पूजा-विश्वास, पंरपराएं, धार्मिक एवं सामाजिक कृत्य एवं विश्वास, कला, वाद्य, नृत्य, गीत, कहावतें, मुहाविरे, पहेलियां, नाटक, लीला, उत्सव महोत्सव आदि अनेक बहु-आयामी पहलू है; वे सभी 'लोक-संस्कृति' के अंतर्गत आते हैं। 'लोक-संस्कृति' पारंपरिक रुप से चली आ रही अलिखित किन्तु मौलिक है। इसमें कोई मिलावट, साज-सज्जा अथवा परिमार्जन नहीं है। यह प्राकृतिक रुप से सहज एवं स्वाभाविक है और इसकी यही सहजता एवं स्वाभाविकता ही श्रेष्ठता एवं विशिष्टता है जिसकी कोई कीमत नहीं है, अर्थात् यह अमूल्य पारंपरिक निधि है। इस पर और अधिक व्यापक दृष्टि से चिंतन, मनन एवं अनुशीलन की आवश्यकता है।
संस्कृति संधान के प्रस्तुत अंक के प्रकाशनार्थ 'भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्', नई दिल्ली, द्वारा दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई। इसके लिए हम उक्त संस्था के अध्यक्ष, निदेशक, सदस्य सचिव एवं शोध अधिकारियों के आभारी हैं। हम अपने समस्त सहयोगियों, शोध निबन्ध लेखकों, संस्था के पदाधिकारियों, सदस्यों, परामर्शदात्री समिति के सदस्यों तथा सम्पादक मण्डल के सदस्यों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। आगामी अंकों के समय से नियमित प्रकाशनार्थ हम उन सभी के सहयोग, सुझाव एवं आशीष की कामना करते हैं। संस्कृति संधान के प्रस्तुत अंक के विलम्ब से प्रकाशन एवं भूल से रह गयी त्रुटियों के लिए हम सभी पाठकों से क्षमा प्रार्थी हैं।
आगामी अंकों के प्रकाशन, संपादन एवं उच्चस्तरीय शोध निबन्धों पर सभी विद्वत्जनों के सुझाव सादर आमंत्रित है।
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