प्रस्तावना
प्रमुखस्वामीजी को एक किताब की तरह में पढ़ता रहा। कुछ चालीस साल हो गए इसे पढ़ते-पढ़ते। अब लगता है कि यह तो अनंत की किताब है। अनंत भी ऐसा कि जिसका प्रत्येक अंश भी अनंत है। यह किताब इतनी तो सरल नहीं है कि मैं समझ लूँ। इसे समझना मतलब इसे जीना ! प्रमुखस्वामीजी को जीए बिना प्रमुखस्वामीजी को समझना दुष्कर ही है। तो फिर क्या करें? बस, एक काम कर दिया, उस जीवन-किताब के कुछ पन्नों को यहाँ सीधा जोड़ दिया। लिखते लिखते लगने लगा कि उनकी यादों में भी उनको जीने की धड़कनें मिल रही हैं। हकीकती पन्नों को किताबी पन्नों में भरते भरते न जाने कितनी बार अपने आपको खो चुका। प्रमुखस्वामीजी परोपकारी संत थे। भगवान स्वामिनारायण के उपासक थे। भजनी संत थे। निर्दभ, पारदर्शी और अहंकारशून्य उनका जीवन था। दया और करुणा उनके दो नेत्र थे। सेवा और सहायता उनकी दो भुजाएँ थीं। परमात्मा उनकी साँसें थीं। संयम और सदाचार उनकी शक्ति थी। समाज उनका परिवार था। जन-जन का हृदय उनका घर था। आदर और प्रेम उनकी भाषा थी। क्षमा उनका प्रतिभाव था। वे परम ज्ञानी भी थे और मौन का सामर्थ्य भी रखते थे। प्रसन्नता के सागर सा उनका व्यक्तित्व था। वे अध्यात्म की मूर्ति थे। उनकी हयाती आस-पास ऊर्जा फैला देती थी। दुःख और दर्द मिट जाते थे। उनका सान्निध्य सुख, सांत्वन और संतोष देता था, चुंबक के पहाड़ की तरह आकर्षित करता था। उनके साथ रहने को, उनके पास रहने को हर कोई चाहता था। मानव एक जीवनकाल में कितना कार्य कर सकता है? प्रमुखस्वामीजी ने एक जीवन में सर्वजीवहितावह कार्यों का एक महान राशि खड़ा कर भारतीय संत परंपरा का गौरव बढ़ाया है। १७,००० गाँवों में अविरत विचरण ! २,५०,००० से अधिक घरों में जाकर लाखों लोगों से व्यक्तिगत मुलाकात ! ७,५०,००० से अधिक पत्रों का हस्ताक्षर से लेखन ! समस्त विश्व में ९,००० पुरुष-महिला सत्संग मंडलों की स्थापना। दुनियाभर में ९,५०० बाल संस्कार केंद्रों में १,५०,००० बाल-बालिकाओं का संस्कार सिंचन। विश्व के १५ देशों में ११०० से अधिक मंदिरों का नवनिर्माण! ११०० से अधिक सुशिक्षित नवयुवाओं को संतदीक्षा प्रदान कर समाज की सेवा में समर्पण। ८०,००० से अधिक सदाचार युक्त स्वयंसेवकों को समाजसेवा की प्रेरणा ! विश्व के करोड़ों लोगों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महोत्सवों द्वारा सांस्कृतिक गौरव का प्रस्थापन ! स्वामिनारायण अक्षरधाम द्वारा प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में जनसमाज संस्कृति के संस्कारों का सिंचन ! आदिवासी एवं ग्रामीण प्रदेशों में शिक्षण हेतु साक्षरता अभियान का प्रवर्तन ! ३१ नए शिक्षण-संकुलों का विकास करके संस्कार और शिक्षा की प्राचीन परंपरा को जीवंत किया ! आपत्तिग्रस्तों के लिए ७५ स्कूलों का नवनिर्माण, २३ से अधिक शैक्षणिक संकुलों में अनुदान एवं प्रतिवर्ष ५,००० से अधिक छात्रों को आर्थिक सहायता ! ९९,००० विद्यार्थियों को प्रतिवर्ष संस्कारयुक्त शिक्षा प्रदान कर रहे ९१ शिक्षा परिसर ! गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तमिलनाडु सहित २९ गाँवों-बस्तियों में राहत कार्य, गाँवों का पुनः अत्याधुनिक रूप से नवनिर्माण तथा २०,००,००० आपत्तिग्रस्त लोगों को राहत सेवा का लाभ ! कृषि विकास हेतु खेत तालाब एवं चेकडेमों का निर्माण ! अनेक विशाल, सुसज्ज एवं स्वच्छ गौशालाओं का निर्माण ! पर्यावरण रक्षा के लिए लाखों वृक्षों का आरोपण ! ८,१५,००० रोगियों को प्रतिवर्ष निरामय करते ७ बहु-विशिष्ट अस्पताल, १२ चल-चिकित्सालय ! ४८ लाख सीसी रक्तदान ! ४० लाख लोगों को व्यसनमुक्त जीवन की प्रेरणा ! प्रमुखस्वामीजी के प्रत्येक परोपकारी कार्य की सूची करना दुष्कर है। क्या सूर्य, सागर, पृथ्वी, पवन के समर्पण की सूचि शक्य है? क्या वृक्षमंडल से हरे भरे उपवनों की उदारता, पवित्र जल से उछलती नदियों की परमार्थता अथवा तो गगन से निष्पक्ष बरसते मेघों की करुणा को संख्या के पिंजरे में बाँधा जा सकता है? संत के जीवन का प्रत्येक क्षण संसार के अभ्युदय और परम कल्याण के लिए होता है। प्रमुखस्वामीजी के अस्तित्व में ऐसी दिव्य आभा चमकती थी। प्रमुखस्वामीजी कोई कालखंड में बीता जीवन नहीं था। स्वामीजी एक ब्रह्मांडीय घटना थी। अविनाशी को ऐतिहासिक घटना थी। सांस्कृतिक घटना थी। आध्यात्मिक घटना थी। दिव्य घटना थी। तथापि सहज घटना थी। इतनी सहज कि जैसे आप और मैं सहज हैं। इतनी सहज कि जैसे हम सब का होना सहज। इतनी सहज कि जैसे हम सबका हँसना, बोलना, चलना, खाना, पीना सहज। स्वामीजी अत्यंत सामान्य रूप से घटी अत्यंत असामान्य घटना थे। ऐसी घटना जिन के गीत आज भी घट घट में गाए जाते हैं। मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि चाहे एक क्षण ही क्यों न हो ? जिसे भी प्रमुखस्वामीजी के सान्निध्यमय अवभृथ का सौभाग्य मिला हो, चाहे एक क्षण ही क्यों न हो ? जिसे भी प्रमुखस्वामीजी के आशीर्वादसभर करकमलों का कोमल स्पर्श हुआ हो, चाहे एक क्षण ही क्यों न हो? जिसे भी प्रमुखस्वामीजी के करुणार्द्र हृदय की पहचान हुई हो, चाहे एक क्षण ही क्यों न हो? जिसे भी प्रमुखस्वामीजी के अध्यात्म का अहसास हुआ हो, उसे यहाँ लिखा गया सब कुछ कम ही लगेगा। उन्हें वाक्य वाक्य पर कुछ शब्दों की कमी महसूस होगी। अवश्य उन्हें प्रत्येक शब्द पर स्वामीजी के व्यक्तित्व को न्याय नहीं मिलने का दुःख होगा। मैं इस बात को अच्छी तरह इसलिए जानता हूँ कि मैं भी तो उनमें से एक है!! शब्दों की असमर्थता इतनी कभी महसूस नहीं की जितनी प्रमुखस्वामीजी को शब्दांकित करने में हुई।
पुस्तक परिचय
संतविभूति प्रमुखस्वामी महाराज पुस्तक हमारे युग की एक महान संत-प्रतिभा का सर्वतोभद्र शब्दचित्र है। प्रमुखस्वामीजी के व्यक्तित्व को दशतिी यह पुस्तक, वास्तव में भारत की भव्य और दिव्य संस्कृति का परिचय करवाती है। प्रमुखस्वामीजी द्वारा विश्वहित में किए गए कार्यों को यहाँ सात प्रकरणों में सुचारु रूप से निदर्शित किया गया है। यह पुस्तक संत और समाज के प्रेमपूर्ण संबंध को उजागर करती है। इस पुस्तक में वैयक्तिक, कौटुंबिक, सामाजिक एवं वैश्चिक समस्याओं का समाधान मिलता है। पुस्तक में वर्णित प्रमुखस्वामीजी के चरित्र से करुणा, प्रेम, मैत्री, आदर, तप, संयम, सेवा, परोपकार और भगवान में बद्धा जैसे जीवनमूल्यों की प्रेरणा प्राम होती है। वैदिक काल से ही 'गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥' का नाद भारतवासी के मन-मस्तिष्क में गूंज रहा है। इस पुस्तक में लिखित एक एक घटना इस नाद के अथों को जीवंत कर देती है। प्रमुखस्वामीजी के अति सरल, अति सहज, परम हितकारी, दंभ-कपटशून्य, निर्दोष और परमात्मभक्तिपूर्ण आध्यात्मिक जीवनरस को यहाँ सर्वजनसुलभ रीति से परोसा गया है। यह पुस्तक समाज के समक्ष प्रमुखस्वामी महाराज के रूप में एक अनुकरणीय संतचरित को प्रस्तुत करती है, शास्रों में वर्णित ब्रह्मस्थिति का प्रत्यक्ष उदाहरण पेश करती है। अवश्य ही मानवसमाज को विश्वशांति, विश्वसंवादिता एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसी उदात्त जीवनभावनाओं को आत्मसात् करने में यहाँ दिग्दर्शन मिलेगा। इस पुस्तक में लिखित एक एक घटना इस नाद के अथों को जीवंत कर देती है। प्रमुखस्वामीजी के अति सरल, अति सहज, परम हितकारी, दंभ-कपटशून्य, निर्दोष और परमात्मभक्तिपूर्ण आध्यात्मिक जीवनरस को यहाँ सर्वजनसुलभ रीति से परोसा गया है। यह पुस्तक समाज के समक्ष प्रमुखस्वामी महाराज के रूप में एक अनुकरणीय संतचरित को प्रस्तुत करती है, शास्रों में वर्णित ब्रह्मस्थिति का प्रत्यक्ष उदाहरण पेश करती है। अवश्य ही मानवसमाज को विश्वशांति, विश्वसंवादिता एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसी उदात्त जीवनभावनाओं को आत्मसात् करने में यहाँ दिग्दर्शन मिलेगा। इस पुस्तक में जडचेतनात्मक संपूर्ण सृष्टि के प्रति प्रेम और आदर की दृष्टि प्रदान करने का सामर्थ्य संनिहित है।
लेखक परिचय
स्वामी भद्रेशदास (१९६६) हमारे समय के एक महान दार्शनिक संत हैं। स्वामीजी ने पूज्य प्रमुखस्वामी महाराज के पावन कर कमलों से सन् १९८१ में संत दीक्षा प्राप्त की और ३५ वर्षों तक उनकी निश्रा में अपना जीवन व्यतीत किया। भद्रेशदासजी ने छह वैदिक दर्शनों में आचार्य की पदवी प्राप्त की है, अर्थात् आप षड्-दर्शनाचार्य हैं। भद्रेशदासजी आज के युग के जीवंत भाष्यकार महाचार्य हैं। प्रमुखस्वामीजी के आदेश से आपने दस उपनिषद, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों पर शास्त्रीय शैली से संस्कृत में भाष्यों की रचना की है। आपके द्वारा लिखित भाष्य पर ब्रह्म स्वामिनारायण प्रबोधित अक्षर-पुरुषोत्तम दर्शन को एक स्वतंत्र वेदांत के रूप में प्रस्थापित करता है। आपके द्वारा अनेक शैक्षिक ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। आप भारतीय दर्शन, वैदिक साहित्य, पाणिनीय व्याकरण और न्यायशास्त्र आदि विषयों के उत्तम अध्यापक हैं। स्वामीजी अक्षरधाम स्थित अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं। आपने विश्व के २२ से अधिक देशों में संस्कृत भाषा, वेदांत तथा संस्कृत शास्त्रों पर शोधपूर्ण व्याख्यान दिए हैं। देश-विदेश के १०० से अधिक विश्वविद्यालयों ने आपके सारस्वत वैभव को सत्कारा है।
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