भारत के हृदयस्थल में स्थित मध्यप्रदेश के 52 जिलों के मंदिरों का यह स्वरूपगत अवलोकन मात्र है। अवलोकन इसलिए कहा है कि मंदिरों अथवा देवालयों के विविध धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, शिल्प और कलागत आयाम एक दीर्घ और गहन अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। विशिष्ट मंदिर के गहन और गूढ़ पक्षों को उद्घाटित करना एक साधना और जीवनपर्यंत अध्ययन का भी विषय है, इसलिए अवलोकन शब्द यहाँ समीचीन प्रतीत होता है। ये मंदिर, देवस्थल और लोकतीर्थ अपने माहात्म्य, पौराणिकता और ऐतिहासिकता से सित हैं। भविष्य में अध्ययन का यह भी विषय हो सकेगा।
ये मंदिर ग्रामों, नदियों, पर्वतों, घाटियों, निर्जन वनों और यहाँ तक कि गिरि-कंदराओं में भी अवस्थित हैं। वस्तुतः मंदिरों की स्वरूपगत और मान्यतागत जानकारी एक जगह उपलब्ध नहीं थी। किसी प्रदेश के समग्र जिलों की भौगोलिक और सांस्कृक्तिक सीमाओं के अंतर्गत किया गया संभवतः यह प्रथम संचयन भी है। हम सोचते हैं, समग्र भारत को केन्द्र में रखकर ऐसा एक व्यापक प्रयास भी होना चाहिए। मंदिरों के शैलीगत इतिहास के काल क्रमानुसार और प्रख्याति की दृष्टि से तो कतिपय अध्ययन उपलब्ध है, पर स्वरूप को केन्द्र में रखकर किया गया यह प्रथम अभ्यास हो सकता है।
शासन-प्रशासन द्वारा अपने स्तर पर धार्मिक पर्यटन की नजर से अधोसंरचना, सड़कों, विश्रामगृहों, आवागमन, परिवहन की तो व्यवस्था हो ही रही है किन्तु मंदिरों की, लोकतीथों की, मान्यता और विश्वासगत माहात्म्य तथा धारणा, पौराणिकता और संस्कृक्तिपरक संज्ञान का अपना महत्त्व है जो मंदिरों के निर्माण के मूल में ही सन्निहित है।
हमने प्रांत के 52 जिलों के 52 सुयोग्य सर्वेक्षणकर्ताओं को चुना। उनसे अकादमी के उद्देश्य और इस महती परियोजना पर बातचीत की। सर्वेक्षणकर्ताओं ने स्थल के भौतिक अवलोकन और साक्षात्कार से अपने सर्वेक्षण संकलन को पूर्ण किया। कुछ सर्वेक्षणकर्ता अपनी मति और गति से गहराई तक भी गये। उन्होंने पौराणिक, पुरातात्त्विक महत्त्व की संसूचनाओं को भी स्पर्श किया, जिनका यहाँ यथायोग्य उल्लेख भी किया गया है।
ये मंदिर मात्र पाषाणों, मिट्टी और ईट-गारे की निर्मिति भर नहीं है। तत्कालीन समुदाय के परिवेश को आख्यानकों और साहित्य विधाओं की कथावस्तुओं में तो देखा जा सकता है किन्तु समाज का मूर्तिमान स्वरूप प्रतिमाओं, भित्तियों, आधारों, आलंबनों में ज्यादा स्पष्ट दिखता है। इन मंदिरों से अध्येता वस्त्र आभूषण, संगीत, वादन, कला और शिल्पगत अध्ययन भी कर सकते हैं। इन मंदिरों में रामायण, महाभारत काल से लेकर पुराणों और लोकाख्यानों तक के कथा-दृश्य खोजे जा सकते हैं। मोटे रूप में ये मंदिर तत्कालीन समय और समाज की सांस्कृतिक चेतना के साक्ष्य समेटे हुए हैं और समय के साथ हुए बदलाव भी इनके अध्ययन से चीन्हें जा सकते हैं। प्रागैतिहासिक काल के शैलचित्रों में भी मातृ देवी और शिव के अंकन प्राप्त होते हैं। इससे यह तो पता चलता है कि स्वरूपों की दृष्टि से शिव और देवी तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक पूर्ववर्ती स्वरूप हैं। टेराकोटा की मातृदेवियों से यह भी ज्ञात होता है कि हमारे प्रदेश में बहुत पहले से मातृदेवियों का पूजना लोक समुदाय में प्रचलित रहा है। मातृदेवियों की प्रतिमाएँ महेश्वर, नावड़ाटोली, कायथा, एरन से मिली हैं। यह अध्ययन वास्तुकला और शिल्पकला का अध्ययन भी नहीं है। ऐतिहासिकता के सुनिश्चितिकरण का प्रयास भी नहीं है। मूर्ति लक्षण, चित्रण केन्द्रित अध्ययन भी नहीं है। उक्त सबकुछ नहीं होकर भी वस्तुस्थिति की जो तथ्यात्मक जानकारियाँ सहज रूप से सर्वेणकर्ताओं ने अपनी सामान्य या विशिष्ट समझ अथवा पूर्व संचित ज्ञान के आधार पर दर्ज की हैं तो वह अनुपयोगी नहीं कही जा सकती। आगामी अध्येताओं के लिए वह विशेष उपयोगी हो सकेगी। ये मंदिर हमारे धर्म और संस्कृक्ति सातत्य को तो बताते ही हैं। प्रदेश की वास्तुकला और मूर्तिशिल्प की परंपरा का भी कहीं न कहीं ज्ञान कराते हैं। कहीं भवनों के विन्यास विशिष्ट हैं तो कहीं मूर्ति खम्ब पर अंकित आख्यान। समस्त मंदिर प्रीतिकर हैं। उनका परिवेश आनंद की रचना करता है। कुल मिलाकर यह भूमि और इसकी संस्कृक्ति विशिष्ट है। कई मंदिरों से आख्यान/कथानकों की सूचना भी मिलती है, इसलिए हमने अपने सर्वेक्षणकर्ताओं से आग्रह किया था कि वे अपने सर्वेक्षित मंदिर से सम्बन्धित लोकबुतियों, कथानकों का भी संकलन करें। कहीं ये कथानक मिले तो बहुत सी जगह नहीं भी। जहाँ मिल सके वे मूल्यवान सिद्ध होंगे। वे भारत के प्राच्य इतिहास और पुरा काल के, उस सांस्कृक्तिक वैभव के कुछ संकेत तो देते चल ही रहे हैं। कुछ स्थानों से महाभारत और रामायण काल के पुण्य पात्रों के संदर्भ भी जुड़े हुए बताये गये हैं। कुछ प्रसिद्ध मंदिरों की प्रतिमाओं की स्थापना घुमन्तू बंजारों या नटों के द्वारा भी बताई गई है। यह लुप्तप्राय हो चुकी स्मृतियों की शेष ध्वनि कही जा सकती है। अध्येता आयें और एक-एक ध्वनि को अक्षरों शब्दों और पूरी इबारत में परिवर्तित करें।
भगवान के कई स्वरूप स्वीकारे जाते हैं। हमने इनमें से पाँच प्रमुख स्वरूपों और उनके अवतारों को प्रकाशन के केन्द्र में रखा है। हमारे सर्वेक्षण का आधार पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक, शिल्पगत महत्त्व न होकर मात्र लोक महत्त्व की दृष्टि से इनकी प्रमुखता का रहा है। प्रत्येक स्वरूप के अंत में उस स्वरूप से सम्बन्धित प्रदेश के मंदिरों की एक सूची भी दी गई है। मंदिर स्वरूप की ये सूचियाँ लोकन्यास, निजी न्यास, धर्मस्व विभाग, केन्द्रीय एवं राज्य पुरातत्त्व विभाग आदि से प्राप्त सांख्यिकी के आधार पर तैयार की गई हैं। यूँ भी कहा या समझा जा सकता है कि विभिन्न माध्यमों से प्राप्त इन सूचियों को स्वरूपगत करते हुए ज्यों का त्यों यहाँ प्रस्तुत कर दिया गया है, इसमें बड़ा भाग सार्वजनिक न्यास सूची का है। प्रदेश के जितने भी जिलों से संभव हो सका मंदिर सूचियाँ प्राप्त करने की भरसक चेष्टा की गई, किन्तु सभी जिलों से हमें ये सूचियाँ प्राप्त नहीं हो सकी। कहीं से आधी-अधूरी जानकारियों वाली सूची मिली तो कहीं से अस्पष्ट। इन सूचियों की प्रामाणिकता का हमारा कोई भी दावा नहीं है। न ही ये सूचियाँ किसी प्रकार के न्यायिक वाद-विवाद के लिए स्रोत या साक्ष्य के रूप में उपयोग हो सकती हैं। इन सूचियों में बहुत जटिलताएँ भी हैं। हर जिले में इनके संधारण और उपलब्धता का कोई एक निश्चित प्रारूप नहीं है। किसी जिला सूची में मंदिर या न्यास के स्थल की तहसील को अंकित किया गया है तो कहीं तहसील का नाम न होकर सिर्फ जिला अन्तर्गत गाँव दर्शाया गया है। कहीं गाँव का नाम ही नहीं है सिर्फ तहसील भर कित है। प्रशासनिक आवश्यकताओं के चलते लगातार नवीन जिलों और तहसीलों का गठन भी एक सामान्य प्रक्रिया है। अतः इन सूचियों के अनुसार भौतिक रूप से मंदिर खोजना एक दुष्कर कार्य होगा। इन सूचियों के माध्यम से हमारी वेश मात्र स्वरूपगत आधिक्य अथवा न्यूनता या अल्पता की गणना करना था। यह देखने के लिए कि लोकमानस में क्षेत्रगत और समयखंड की दृष्टि से कौन-सा स्वरूप अधिमान्य रहा है? अंचलवार किस स्वरूप की कहाँ प्रमुखता रही है? वास्तव में बहुत से मंदिर ऐसे भी हैं जो किसी भी सूची में दर्ज नहीं हुए हो सकते हैं। बल्कि वे ही ज्यादा होंगे। इन सूचियों में बहुत से स्थल, भूमि और संपदा ऐसे भी हैं जो भौतिक स्वरूप में मूर्त न होकर उस भगवतरूप के निमित्त भर हैं अर्थात् उनसे सम्बन्धित कोई न्यास आदि है। स्वरूप माहात्म्य की गणना में हमने उन्हें भी परिगणित किया है। वर्तमान मध्यप्रदेश के 52 में से 45 जिलों की सूची प्राप्त हो सकी है। इन 45 में से भी 02 जिले ऐसे हैं, जहाँ की सूची में मंदिरों की संख्या लगभग नगण्य है। पूरे प्रदेश की 125 तहसीलों से तो सूची भी प्राप्त नहीं हो सकी है। फिर भी यदि किसी अनुसंधित्सु को और विशिष्ट जानकारी चाहिए तो उस जिले में सम्बन्धित स्थल का प्रत्यक्ष अवगाहन करना चाहिए। जहाँ जैसी उपलब्ध हो सकी इन सूचियों से लगभग 21757 मंदिरों की जानकारी मिल सकी है। वास्तविक संख्या निश्चित ही कहीं बहुत अधिक होगी। यह तो प्राप्त अभिलेखी संख्या मात्र है। धरातल पर इसकी संख्या कहीं अधिक है क्योंकि मध्यप्रदेश में वनग्रामों, मजरे-टोले, फालिया को छोड़कर ही 55429 राजस्व ग्राम हैं। मंदिरों में एक से अधिक देवी-देवताओं की स्थापना भी सामान्य है और प्रायः अधिकांश मंदिरों में यह स्थिति है। ऐसी स्थिति में जनमानस में मंदिर की लोक ख्याति के आधार पर स्वरूप की प्रधानता चिन्हित की गई है। इस तथ्य का एक अर्थ यह भी है अधिकांश मंदिर एकाधिक सूचियों में दर्ज हो सकते हैं और कहीं-कहीं हुए भी होंगे।
प्रदेश में भगवान विष्णु के कुल मंदिरों की लगभग संख्या 11582 मंदिर हैं, इनमें भगवान विष्णु के श्री राम स्वरूप के 6821, श्रीकृष्ण स्वरूप के 3222 तथा अन्य अवतार स्वरूपों जैसे नरसिंह, वामन, दत्तात्रय, चतुर्भुज, सत्यनारायण आदि के भी 1539 मंदिर सम्मिलित हैं। भगवती देवी के 1502, भगवान शिव के 3771, श्री हनुमान जी के 2467, श्रीगणेश के 275 और अन्य देव स्वरूपों यथा रामदेव, देवधर्मराज तथा स्थानीय देव के मंदिरों की संख्या 2160 है। एक क्षेत्र विशेष में एक स्वरूप का आधिक्य भी देखने को मिलता है। जैसे नर्मदा तटीय ग्रामों में शिव मंदिर बहुतायत से हैं। बुंदेलखंड में ओरछा आदि के आस-पास श्रीराम और भगवान विष्णु के मंदिरों की अधिकता और मंदिरों के नाम में साम्य भी अधिक है। स्वरूपगत एकाग्रता की दृष्टि से यह भगवान श्री विष्णु के अवतार स्वरूप श्रीकृष्ण पर केन्द्रित है। इस श्रृंखला में भगवान के शेष स्वरूपों और अवतारों की पुस्तकें भी प्रकाशित की जा रही हैं। बहरहाल प्रदेश में मंदिरों के श्रीकृष्ण अवतार अध्ययन के इस प्रारंभिक प्रयास पर सुधीजनों एवं उत्सुक शोधार्थियों के समस्त अभिमत एवं विचार स्वागत योग्य हैं।
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