कविताकिक-चक्रवर्ती साहित्याचार्य पं० महादेव शास्त्री (श्री १०८ महेश्वरानन्द सरस्वती जो) के अभिनन्दन-ग्रन्य के लिए विद्वन्-मंडली ने उसके हिन्दी विभाग का सम्पादक चुनकर मुझे जो गौरव प्रदान किया है उसके लिए मैं उन सभी गुणज्ञों का हृदय से अनुगृहीत हूँ। काशी की विद्वन्-मंडली ने यह अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशित और सपित करके माननीय स्वामो श्री १०८ महेश्वरानन्द सरस्वतीजी का नहीं वरन् अपना गौरवसम्वर्द्धन किया है। प्रारंभ से ही जब वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य-विभाग में अध्ययन कर रहे थे, मेरा उनका अत्यन्त सान्निध्यपूर्ण तया आत्मीयतापूर्ण सम्पर्क रहा है। अध्ययन काल में भी उनकी गंभीर अध्ययनशीलता, अत्यंत सात्त्विक वृत्ति, साधु प्रकृति, चिन्तनशील प्रवृत्ति, मृदु स्वभाव, स्नेहालु और विद्याध्यसनी भावना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। केवल साहित्य पर ही नहीं, व्याकरण और दर्शन पर भी उनका प्रगाढ़ अधिकार है। ये बड़े कुशल वक्ता और तात्त्विक विवेचक हैं। संस्कृत साहित्य से संबंध रखनेवाले सभी शास्त्रीय और साहित्यिक विषयों पर उनका अप्रतिम अविंकार है। मेरा यह व्यक्तिगत सौभाग्य रहा है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में और बाहर अनेक अवसरों पर मैंने उनके अत्यंत गंभीरतापूर्ण और विद्वत्तापूर्ण दार्शनिक और साहित्यिक प्रवचन, भाषण, व्याख्यान, विवेचन और शास्त्रार्थ सुने हैं। इन सभी अवसरों पर मैंने उनमें सबसे विलक्षण गुण यह अनुभव किया कि कभी किसी अवसर पर भी उन्होंने अपने विवेक को असंतुलित और मन को विद्युब्ध नहीं होने दिया। उत्तेजना के अवसर आने पर भी इन्होंने सदा धैर्य, शांति और मनःस्थैर्य से प्रतिपक्षियों के सभी तर्कों का समुचित विश्लेषण और विवेचन किया ।
किसी भी प्रस्तुत विषय की सांगोपांग मीमांसा करने की उनकी पद्धति अत्यंत युक्तिपूर्ण और संतोषजनक होती है। उनके प्रवचनों में अगाध पांडित्य का सदा परिचय प्राप्त होता चलता है। किसी भी विषय को अथवा शास्त्रीय समस्या को तत्काल समझ कर उसे हृदयंगम करना और उसको तर्कसंगत मीमांसा करना असाधारण कौशल की बात है। ये देवी गुण इनमें स्वभावतः विद्यमान हैं परेगितज्ञानफला हि बुद्धयः (बुद्धि का गुण ही यह है कि वह तत्काल दूसरे के इंगित को देखते हो उसका अर्थ समझ जाय।) हमारे यहां पंडित का लक्षण हो यह बताया गया है-
क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति
विज्ञाय चार्थ भजते न कामात् ।
नासंदृष्टोष्पयुक्ते परार्थे
तत् प्रज्ञानं प्रथमं पंडितस्य ॥
(तत्काल बात को समझ ले, देर तक धैर्य के साथ सुनता रहे, अर्थ समझ कर उसे अपने स्वार्थ को दृष्टि से प्रयोग न करे, बिना पूछे दूसरे के लिए न बोले, यह पंडित की पहली पहचान है)।
पं० महादेवजी शास्त्री में ये सब गुण स्वभावतः विद्यमान हैं। अनेक अवसरों पर साधारण व्यक्ति स्वभावतः विचलित हो जाता है उस समय भी मैंने इन्हें शांत और प्रकृतिस्थ पाया और मुझे कालिदास को वह पंक्ति स्मरण हो आई-
विकारहेती सति विक्रियन्ते
येषां न घेतांसि त एव धीराः ।
( विकार का कारण उपस्थित होने पर भी जिनके मन में विकार नहीं आता वे हो धीर कहलाते हैं)। यह धैर्य और स्थित-प्रज्ञता का विशेष गुण शास्त्रीजी में अद्भुत रूप से प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist