श्राज से लगभग सत्तर बरस पहले की बात है। दो महात्मा उत्तर भारत में इधर-उधर विचरते हुए एकाएक कहीं पर एक दूसरे से आ मिले ।
और, मिले भी ऐसे कि जैसे, मानो, जमुना गंगा में और गंगा जमुना में श्र मिली हों और सदा के लिए समरस होकर त्रिवेणी से एकधारा बन कर बहने लगी हों। भले ही उन महात्माओं के देह अलग-अलग बने रहे, परन्तु उनके आत्माओं का अद्भुत संमिश्रण स्थापित हो गया। उन दोनों के हुत्तल नितान्त अभिन्न आन्तरिक धारणाओं और प्रेरणाओं द्वारा तरङ्गित हो उठे । वे धारणाएं थीं, उस से कुछ ही वर्ष पहले आरम्भ हो चुके, नये युग में वेदों के पुनरुद्धारक और आर्य संस्कृति के प्रमुख संदेशवाहक अपने से एक और महत्तर महात्मा के आरम्भ किए कार्य की ओर उसे आगे ले चलने और बढ़ाने की। वे महात्मा थे स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी तथा ब्रह्मचारी (पीछे, स्वामी) नित्यानन्द जी, जिनका सन् १८६० से लेकर बराबर पच्चीस बरस तक सभी कार्यक्रम इकट्ठा चलता रहा। उनका जीवन-व्रत रहा स्वामी दयानन्द जी के चरण-चिह्नों पर चलते हुए आर्य धर्म के प्रसार का और वेद-विद्या के पुनः प्रसार का ।
उन्हीं महात्माओं ने सन् १९०६ में वेदों का कोष बनाने का कार्य अपने हाथ में लिया और अब वे मुख्यतः इसी कार्य में अग्रसर होते गए। वेदों का शब्दार्थ कोष बनाने से पूर्व वेदों में आए सब पदों का अकारादि क्रम से संग्रह कर लेत। अत्यन्त आवश्यक था। अतः, वे इसी कार्य में प्रथम जुटे। सन् १६१० तक उन्होंने चारों वेद-संहिताओं की पदानुक्रमणियां प्रकाशित कर दीं। अब वे इस शब्दार्थ-कोष की रूप रेखाओं को बनाने और आवश्यक सामग्री के जुटाने में लग गए। परन्तु १९१३ के अन्त में स्वामी नित्यानन्द जी व्याधि-ग्रस्त होकर अपने ५४वें वर्ष में ही, ८ जनवरी १६१४ को चल बसे। वे ही विशेष रूप से इस महान् कार्य-क्रम के कर्णधार थे। उनके अभाव में, स्वभावतः, यह सारा कार्य-भार स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी को संभालना पड़ा। उस समय उनकी अवस्था ६४ वर्ष की हो चुकी थी। उन्होंने १६२३ के मध्य तक इस गाड़ी को जैसे-तैसे खींचा, पर विशेष प्रगति न हो पाई। अतः, उस वर्ष के अन्त में उन्होंने यह सब कार्य हुन पंक्तियों के लेखक को सौंप दिया। उसके फल-स्वरूप लाहौर में विश्वेश्वरानन्द वैविक शोध संस्थान की व्यवस्था हो कर १ जनवरी १९२४ से यह कार्य नियम-पूर्वक होने और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा ।
तब से अब तक संस्थान की अपनी एक अच्छी लम्बी राम-कहानी है। परन्तु आज भी इसके दस-बारह विभागों के मध्य में वही वैदिक कोष-विभाग देह में हृदय के समान जीवन बन रहा है, जिसके लिए स्वामी नित्यानन्द जी ने अपने जीवन के अन्तिम दस बरसों का एक-एक क्षण लगाया था। इस कारण, संस्थान की ओर से उनके प्रति अपनी परम श्रद्धा प्रकट करने तथा उनकी पुण्य स्मृति को स्थिर बनाए रखने के उद्देश्य से उत्तरोक्त निश्चय किए गए हैं-
१. संस्थान के दोनों मुख पत्रों अर्थात् "विश्व ज्योति" एवं "विश्व साहित्य" के सितम्बर १६६० के अंकों में स्वामी नित्यानन्द जी के महान् जीवन से सम्बन्धित लेख आदि प्रकाशित किए जाएं ।
२. ४ सितम्बर १६६० को उनकी जन्म-शताब्दी समारोह पूर्वक मनाई जाए ।
३. उनका जीवन-चरित्र लिखा जाए जिसका प्रकाशन उक्त वर्ष के अवसर पर किया जाए ।
४. "नित्यानन्द विश्वग्रन्थ माला" के नाम से एक नई सांस्कृतिक ग्रन्थमाला चालू की जाए ।
५. "वैदिक कोष विभाग" के आदि में उनका नाम जोड़ दिया जाए ।
यह बड़ी सन्तोषनंद बात है कि संस्थान द्वारा किए गए उपर्युक्त सभी निश्चय विधिवत् क्रियान्वित किए जा चुके हैं। इन्हीं निश्चयों के अन्तर्गत, स्वामी नित्यानन्द जी की जन्म-शताब्दी के समारोह के अवसर पर, ४ सितम्बर, १६६० को नित्यानन्द विश्वग्रन्थमाला का संस्थान के तत्कालीन कमिष्ठ, श्री महेन्द्र कुलश्रेष्ठ की लिखी "स्वामी नित्यानन्द : जीवन और कार्य" इस पुस्तक के प्रकाशन द्वारा प्रारम्भ किया गया या । उक्त ग्रन्थमाला में अब तक पांच ग्रन्थ छप चुके हैं और प्रस्तुत ग्रन्थ उसके छठे पुष्प के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इस ग्रन्थ में वयानंव महाविद्यालय, अम्बाला के सेवा-निवृत्त आचायं तथा हमारे संस्थान के श्रादरी कर्मिष्ठ एवं अंग्रेजी में लिखी और हमारे यहां की "सर्वदानन्व विश्वग्रन्यमाला" में प्रकाशित कई एक सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक पुस्तकों के सिद्धहस्त लेखक, श्री बहादुरमल जी की "ए स्टोरी आफ इण्डियन कल्चर" नामक मूल पुस्तक का सरल हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है।
सुयोग्य लेखक ने अपने इस लघुकाय ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के शाश्वत एवं प्रगतिशील प्रवाह के भिन्न-भिन्न पड़ावों का तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों एवं प्रभावों का इने-गिने पर भाव भरे शब्दों में, एक दार्शनिक विचारक के दृष्टिकोण से, महत्वपूर्ण, समन्वयात्मक एवं क्रमबद्ध इतिहास उपस्थित किया है। धाशा है कि अब इस पम्य के हिन्दी में अनूदित हो जाने के कारण, पाठकों की अधिकाधिक संख्या इसके पाठ एवं रसास्वादन से लाभान्वित हो सकेगी। इस पत्य का हिन्दी अनुवाद, सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन संस्थान के कमिष्ठ वर्ग के पूर्ण सहयोग से हो सिद्ध हो सका है। अतः, में सन्तोषपूर्वक उन सभी का धाभार स्वीकार करता हूं।
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