प्राकथन
धाप को यदि ये लेख पसन्द न आयें तो दोष डा० वेदप्रकाश जी को दीजियेगा। त्रुटियां तो मेरे ही लेखन में हैं, किन्तु युग की मांग यही है कि अपनी भूल के लिये उत्तरदायी किसी और को ठहराया जाये ! फिर यहां तो कारण भी मौजूद है। अपराधी से भी अधिक दोषी उसे उकसाने वाले को माना जाता है. और तथ्य यही है कि वेदप्रकाश जी के स्नेहपूर्ण अाग्रह ने ही ये लेख लिखवाये हैं। मुनीर न्याजी की जिस गजल से इस लेखमाला का शीर्षक लिया गया है उस का मक्तः (अन्तिम शे'र) है:- एक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझ को मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैंने देखा । उन दिनों मेरी मनःस्थिति कुछ इस शे'र के हो अनुरूप थी। मेरी पिछली दो पुस्तकें ('परिवेश, मन और साहित्य'; तथा 'भारतेन्दु और आधुनिकता') लिखी जा चुकी थीं, प्रौर जिस बौद्धिक जिज्ञासा ने इन अध्ययनों को प्रेरित किया था वह शांत हो गई थी। बौद्धिक प्रश्नों के एक दरिया के पार उतर कर मैं देख रहा था कि अस्तित्वात्मक (existential) प्रश्नों का एक और दरिया अब मेरे सामने था। बाह्य जगत् की समस्याओं की अपेक्षा अब अन्तर्जगत् की गुत्थियां अधिक रुचिकर प्रतीत हो रही थीं। समाज में क्या हो रहा है, जो हो रहा है, वह क्यों और कैसे हो रहा है, इत्यादि प्रश्नों के उत्तर खोजता हुआ पहले मैं ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न प्रदेशों में घूमता रहता था । किन्तु अब 'अदम' का यह शे'र अधिक सार्थक प्रतीत होने लगा था: दूसरों से बहुत आसान है मिलना साक़ी अपनी हस्ती से मुलाक़ात बड़ी मुश्किल है। 'विश्वज्योति' के सम्पादक बन कर डा० वेदप्रकाश जी इन्हीं दिनों यहां धाये। उन्हें पता नहीं क्या सूझी कि अपनी पत्रिका के लिये लिखने को मुझे कह बैठे- उन्हें भी क्या पता था कि यह भला. मानुस गले ही पड़ जायेगा ! तो उन के आग्रह का परिणाम यह हुआ। कि 'अपनी हस्ती से मुलाक़ात' नामक लेख-श्रृंखला का सूत्रपात हो गया। प्रायः चार वर्षों तक यह मुलाकात होती रही और बड़े पैये के साथ वे इस मुलाकात का ब्योरा 'विश्वज्योति' में छापते रहे। और तब मुझे लगा कि श्रान्तरिक छानबीन का यह दौर भी समाप्त हो गया है। किन्तु यात्रा रुकी नहीं:- जुस्तजू हो तो सफ़र ख़त्म कहां होता है, यूं तो हर मोड़ पे मंजिल का गुमां होता है। - 'ताबां' को महत्त्व दे पहले 'जग-दर्शन' और फिर 'ग्रात्म-दर्शन' के प्रश्नों चुकने के बाद मैंने देखा कि नये प्रश्नों का एक और दरिया मेरे सामने लहरा रहा है। अब जो मुख्य समस्या मेरे सामने थी वह कुछ इस प्रकार की थी: मनुष्य सदा से दुःख और द्वन्द्व का शिकार रहा है, बाज भी है। दुःख और अशांति से मुक्ति पाने के लिये सन्त, महात्मा और आध्यात्मिक गुरु उपदेश देते रहे हैं, आत्म-रूपांतरण की बात करते रहे हैं। उनकी बातें सार्थक भी हैं। व्यक्ति उनके बताये रास्ते पर चले तो वह सुख और शांति पा लेता है, यह भी ठीक है। फिर लोग उनके बताये पथ पर चलते क्यों नहीं ? उन्हें पूजते तो हैं, उन्हें मानते क्यों नहीं ? क्यों लड़ते झगड़ते हैं ? क्यों मरते-मारते हैं?
पुस्तक परिचय
नज़र से दिल का गुबार उतरा ……..तो मैंने देखा हमारे पूर्वाग्रह और विश्वास, आदर्श और सिद्धान्त, द्वेष और आसक्तियां यही वे मानसिक धूलकण हैं जो हमारी दृष्टि को धुंधलाये रखते हैं। लेखक इन धूलिकरणों के प्रति सचेत होना चाहता है। यह आत्मान्वेषण की यात्रा है और लेखक अपने पाठकों को निमन्त्रण दे रहा है कि वे भी उसके सहयात्री बनें- स्वयं अपने धूलिकणों को देखें और समझेइन के प्रति सचेत होना इन से मुक्त होने की पूर्व-शर्त है। "लेखक आप से कुछ गम्भीर विषयों पर बात करना चाहता है, किन्तु हलके-फुलके अन्दाज में, त्योरी चढ़ा कर या दांत भींच कर नहीं।" "विद्वत्ता और साहित्यिकता, दोनों ही गुणों की संगम-स्थली है यह रचना ।" "तो लोजिये प्रस्तुत है पुस्तक-रूप यह उपहार - सारगभित भी, सरस भी !"
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