'संस्कृतं नाम दैवी वागन्वख्याता महर्षिभिः'
संस्कृत भाषा भारत की अमूल्य एवं अनुपम निधि है। अनादि काल से हमारे देश के जातीय जीवन पर उसका अपरिमित प्रभाव पड़ा है। देववाणी पद से विभूषित होकर वह आज भी भारतवर्ष का अपूर्व गौरव है। संस्कृत भाषा भारतीयों की प्राणभूत भाषा है। संस्कृत भाषा में ही उनका चिन्तन, मनन, गवेषणा तथा अनुभूति समन्वित है। भारतवर्ष का समस्त ज्ञान भण्डार संस्कृत में ही सन्निहित है। वैदिक काल से आज तक इसकी अक्षुण्ण धारा प्रवाहित हो रही है।
राजशेखर के अनुसार 'पञ्चमी साहित्यविद्येतियायावरीयः। शब्दार्थयोर्यथा-वत्सहभावेन विद्या साहित्यविद्या'। साहित्य किसी देश की राष्ट्रीय, सांस्कृतिक तथा जातीय भावनाओं का प्रतीक होता है। संस्कृत साहित्य भारत का राष्ट्रीय गौरव है। प्रत्येक देश के साहित्य में उस देश के निजी गुणदोष प्रतिबिम्बित होते हैं। संस्कृत साहित्य सम्बन्धी उन आदशों, मान्यताओं एवं विशेषताओं का ज्ञान आवश्यक है, जिसके माध्यम से इस साहित्य ने भारत को आत्मबल प्रदान कर उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया। एम० विलियम ने संस्कृत साहित्य की समृद्धि की प्रशंसा करते हुए कहा है-
साहित्य मन्दिर के अगणित प्रदीपों को आलोकित कर, प्रत्येक की आभा को चित्रात्मक शैली से अलङ्कृत कर साहित्य-देव की नीराजना करने वाले उपासकों तथा आलोचकों का समन्वित उत्तरदायित्व लेकर चलने वाले इतिहासकार का पथ अनन्त है।
साहित्य शब्द का प्रयोग सञ्कुचित अर्थ में काव्य नाटक इत्यादि के लिए किया जाता है व्यापक रूप में साहित्य का अभिप्राय उन ग्रन्थों से है जो किसी भाषा विशेष में निबद्ध किए गए हों। इस अर्थ में वाड्मय शब्द अधिक उचित प्रतीत होता है। किन्तु प्रस्तुत स्थल पर संकुचित अर्थ में ही इसका प्रयोग किया गया है जो आग्ल भाषा के 'लिटरेचर' शब्द के अधिक निकट है। अधिक लोकप्रिय होने के कारण संस्कृत काव्यों के विविध रूपों का वर्णन विस्तार के साथ युग विशेष की प्रवृत्ति के आधार पर किया जाना है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार यदि संसार का सर्वाधिक आनन्द प्राप्त करना है तो उसे कवि आँखों से देखो, समझो और अपनाओ। कवि की आँख प्रतिभा सम्पन्न होती है। साधारण मानव संसार के भौतिक स्वरूप को देखता है, दार्शनिक तात्त्विक पक्ष का आलोडन करता है, तथा कवि संसार के रसात्मक पक्ष को देखता है। कवि अखिल विश्व के हृदयावर्जक पक्ष को समुन्मीलित करने के लिए काव्य रूपी साधन की सृष्टि करता है। काव्य मानव को वह दृष्टि प्रदान करता है, जिसके द्वारा वह प्रकृति नटी के चराचर रूप में प्रस्तुत विराट् स्वरूप के कण-कण में आत्म तृप्ति का रसास्वदन करता है। भर्तृहरि ने सत्काव्य के आनन्द के सामने राजकीय वैभव को तुच्छ मानते हुए कहा है- "सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्"।
इस सन्दर्भ में आचार्य शिव जी उपाध्याय का मत उल्लेखनीय है-
यत्र लोकस्य विश्रान्तिर्भावानां यत्र चारुता।
श्रुतीनां पूर्णता यत्र तत्साहित्यं सुखास्पदम् ।।
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