अमेरिका की दुनिया भर में ऐसी महिमा है कि उस देश के बारे में हर व्यक्ति की अपनी निश्चित धारणा है जो वहां गया है उसकी भी और जो नहीं गया है उसकी शायद और भी। इस हास्य-विनोद से छलकते उपन्यास में एक युवा भारतीय छात्र द्वारा एक छोटे से अमेरिकी विश्वविद्यालय में बिताए एक वर्ष के अनुभवों का वर्णन है, जिसे संक्षेप में कहा जा सकता है- "अमेरिका-एक व्यक्तिगत खोज।"
गोपाल नामक यह नायक इस अवधि में अमेरिकी समाज व सभ्यता के अनेकानेक पहलुओं का न केवल आविष्कार व अनुभव करता है बल्कि उनसे भरपूर टकराता व जूझता भी है। बार-बार लगता है कि जैसे अमेरिका एक तरफ़ हो और उस पूरे देश को ललकारता और सबसे लोहा लेता हमारा अकेला गोपाल दूसरी तरफ़। यह बस एक आदमी के तजुर्बात का मामला नहीं है, लगता है कि जैसे दो विभिन्न सभ्यताओं का बराबरी का मुक़ाबला हो।
पर गोपाल को ऐसा अद्भुत, अदम्य (और भारतीय पाठक के लिए आडलादकारी) आत्मविश्वास मिलता कहां से है? इसका पहला विडंबनात्मक कारण है उसका अमेरिका के बारे में निपट अज्ञान। जब वह वहां पहुंचता है तो उसको बस इतना पता है कि सभी अमेरिकी सारे वक़्त सेक्स के पीछे पागल रहते हैं। यह बात गलत है पर उन अनेक बातों से ज़्यादा गलत या एकांगी नहीं है जो इस उपन्यास में कई अमेरिकी पात्र भारत के बारे में जगह-जगह सोचते-कहते रहते हैं।
दूसरे, गोपाल दिल्ली-बम्बई का रहने वाला नहीं है जहां के बहुत से लोग पहले से ही अमेरिका से कुछ अधिक ही अभिभूत व आक्रांत हैं। यह निकलकर आया है मध्य प्रदेश के एक नितांत धूल-धूसरित हिंदीभाषी 'जजउ' नाम के कस्बे से, जिसे वहां के निवासी स्वाभिमानपूर्वक 'मध्य प्रदेश का पेरिस' भले ही कहते हों, पर पेरिस क्या दिल्ली में भी लोगों ने जिसका नाम तक नहीं सुना है, और सुनें भी तो शायद हंसेंगे कि कितनी भदेस जगह है। पर इसलिए गोपाल भारत के अपार विस्तार में दूर-सुदूर रहने वाली बहुसंख्यक जनता का खरा प्रतिनिधि है और यही उसके सहज व अप्रतिम आत्मविश्वास का अचल आधार है। ठीक है कि वह भोला है, भोंदू है, 'देसी' है और उसकी अंग्रेज़ी भी बस माशाअल्ला है, पर तभी तो वह एक अकेला अपने को पूरे अमेरिका के बराबर समझता है और बराबर डटा रहता है।
यह उपन्यास 'द इंस्क्रूटेबुल अमेरिकंस' नाम से 1991 में अंग्रेज़ी में छपा था और तब से इसके 40 से भी अधिक संस्करण छप चुके हैं। अब हिंदी में इस बेहद लोकप्रिय पुस्तक का पुनर्जन्म हो रहा है तो मैं क़बूल ही दूं कि मेरा इस उपन्यास से जन्म-जन्मांतर का संबंध है। क़रीब बीस साल पहले जब लेखक अनुराग माथुर ने इसकी पांडुलिपि प्रकाशक रूपा एंड कंपनी को भेजी थी तो प्रकाशक ने मुझसे पूछा कि यह उपन्यास छापने लायक़ है किं नहीं। अपनी रिपोर्ट में मैंने तब लिखा था कि जब इस पुस्तक की पांच हज़ार प्रतियां बिक जाएं (जो तब किसी भारतीय-अंग्रेज़ी उपन्यास के लिए बड़ी भारी संख्या थी और शायद अब भी है) तो मुझे एक बार फिर याद कीजिएगा! अब यह उपन्यास हिंदी में छप रहा है, जोकि इसके सरल नायक की सहज मातृभाषा है, तो आशा है कि गोपाल जैसे ही अधिक से अधिक पाठक इसे पढ़ेंगे और इसके माध्यम से अमेरिका जैसे देश और गोपाल जैसे चरित्र, दोनों का ही साथ-साथ मज़ा ले पाएंगे।
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