आद्यंत साहित्यिक प्रवाहों की देन प्रवर्तमान परिदृश्य है। वर्तमान साहित्य में प्रवहमान चिन्तन प्रक्रिया में एक नवीन तथा भिन्न अवधारणा का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसकी चर्चा काफी जोरों पर चल रही है। साहित्य में इसी विचारधारा को 'उत्तर आधुनिक' विशेषण से अभिहित किया गया है। पूर्व से प्रचलित परिपाटी के साथ कुछ भिन्न विचारधारा की संकल्पना ने मुझे प्रभावित किया और मेरे भीतर जिज्ञासा की भावना प्रबल हो उठी। इसी सिलसिले में उदय प्रकाश की रचनाओं का अध्ययन मैंने प्रस्तुत किया है।
उत्तर आधुनिकता एक निश्चित विचार या दर्शन से अधिक एक प्रवृत्ति का नाम है, जिसका जन्म मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में हुआ है। साहित्य, समाज, विज्ञान एवं आम जीवन के अनेक क्षेत्रों में इस प्रवृत्ति के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। उत्तर आधुनिकतावाद, केन्द्रीय वर्चस्ववाद को अँगूठा दिखाकर स्थानीयता तथा उसकी भिन्नताओं पर बल देता है। उत्तर आधुनिकतावाद अब बहुसंस्कृतिवाद या बहुलतावाद पर आधारित नया विमर्श है। आधुनिकता ने एक उच्च वर्चस्व को समाप्त कर दिया है। अर्थात् केन्द्र के लोगों को परिधि में और परिधि के लोगों को केन्द्र में लाने का काम उत्तर आधुनिकता ने किया है। जहाँ उपेक्षितों, शोषितों, दलितों, स्त्रियों, समलैंगिकों को प्रमुखता दी जाती है। उत्तर आधुनिकता ने लेखकों की महत्ता को नकार दिया है, यहाँ लेखक का महत्त्व कम होकर पाठक का महत्त्व बढ़ गया है। आधुनिकता के चिर विकास के आयोजन में उत्तर आधुनिकता की आस्था नहीं है। वह यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि विज्ञान के पास मनुष्य के सभी प्रश्नों का हल है।
सुधीश पचौरी ने उत्तर आधुनिकता विमर्श को बड़े ही सहज ढंग से चित्रित किया है। जिसके अनुसार आज बचत गई है, बाजार आया है, संयम गया है। इच्छाओं-कामनाओं का साम्राज्य खुला है, दुःख गायन की जगह सुख संचय का भाव आया है। सुख दिखाने, इतराने का भाव आया है। पूँजी बढ़ी है। एक ही साथ स्थानीयता और भूमंडलीकरण जगे हैं। शीत युद्ध गया है। गर्म शांति आई है। देश काल गड़बड़ाया है। मृदु मंथर गति तेज हुई है। रीयलिटी से हाड़ पर रीयल में लुढ़क आए हैं। मीडिया और मार्केट की मित्रता गहरी हुई है। हर अनुभव सूचना बन रहा है और अर्थ की स्थिरता नहीं बची रही, महानता का वृत्तांत नहीं बन रहा, महान लेखक नहीं हो रहे। वर्ग जाति में बदल गया है। स्त्री, दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्तियों और अस्मिता को स्वीकृति मिल रही है। उपभोक्ता संस्कृति विकसित हो रही है। उपभोक्तावाद ने हमारी सत्ता के खिलाफ हिंसा बढ़ा दी है। चारों और उपभोग है। पिछला पूँजीवाद फुलाता था, सुलाता था, आज वह कष्ट देता है, लेकिन ऐसी मीठी साँध है कि सब अच्छा लगता है।
असल में उत्तर आधुनिकतावाद एक ऐसा ग्लोबल खेल है जिसमें हम सब शरीक हैं। वह हमारी भूमंडलीय अवस्था की रामायण है। इस भूमंडलीय व्यवस्था में हम सबका बोध बदल रहा है और हमारे सभी सांस्कृतिक ज्ञानात्मक प्रतीक बाजारवाद में बिकने को खड़े हैं। आज 'ग्लोबल विलेज' (विश्वग्राम) की संकल्पना सामने आ रही है। दूसरी ओर मानव और मानवता सिमट रही है। अंधानुकरण, बाजारीकरण, प्रदर्शनप्रियता, भौतिकता एवं भोगवादी प्रवृत्ति हावी हो गई है। मूल्य, नैतिकता, परंपरा, सांस्कृतिक संदर्भ, मानवीय संबंध काँच के बर्तन की तरह टूट रहे हैं। तकनीक ने मनुष्य के भौतिक और मानसिक दोनों संसारों को बदल दिया है। जनता को बाजार में बदलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपना कब्जा हमारी चेतना, भूख, प्यास और इन्द्रियों पर जमा लिया है। यह सब मोबाइल, टी.वी., इन्टरनेट, फिल्म और अन्य भौतिक चीजों के माध्यम से संभव हुआ है। विश्वभर के मनुष्य आज स्वयं को निर्णय की स्वतंत्रता के क्षेत्र में अनजाने अपूर्व शक्तिशाली बाजार की चपेट में पाते हैं। इस नये (बहुराष्ट्रीय निगमों के) साम्राज्यवाद ने धरती के स्रोतों, मनुष्य के शुभ एवं सौंदर्य पर विकृतिमूलक असर डाला है कि मनुष्य मात्र आज अस्तित्त्व के प्रश्नों से जूझता नजर आता है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावाद ने शिक्षा-साहित्य जगत को भी चपेट में ले लिया है। बाजारीकृत समाज में मानवीय संबंधों का आधार अर्थप्रधान और स्वार्थप्रधान हो गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण आजकल नगर-देश-विदेश में ब्यूटी कान्टेस्ट, मॉडलिंग, पार्टी, मसाज सेंटर, ब्यूटीपॉर्लर, फैशन शो आदि की आड़ में यौन-स्वेच्छाचार, वेश्यावृत्ति और कालगर्ल रैकट चल रहा है। यह सब भोगवादी संस्कृति का परिणाम है।
अरसे से (लगभग 1970 से) हिन्दी में उत्तर आधुनिकता की अनुगूँजें सुनाई पड़ रही हैं। मनोहर श्याम जोशी के 'कसप' और 'कुरु कुरु स्वाहा' को उत्तर आधुनिक कहकर विज्ञापित किया गया। 'डूब' (वीरेन्द्र जैन), 'मुझे चाँद चाहिए' (सुरेन्द्र वर्मा), उसके अन्य उदाहरण कहे जा सकते हैं। उत्तर औद्योगिक युग की विकेन्द्रित, मूल्यहीन, व्यवहारवादी, पॉप संस्कृति को आधार बनाकर लिखने वाले साहित्यकार हैं उदय प्रकाश। उदय प्रकाश ने उत्तर आधुनिक यथार्थ के नाभिक बिंदु को पकड़कर उसे अपने साहित्य में उतारा है। उदय प्रकाश की 'खुफिया आँखों' ने उत्तर आधुनिक मनुष्य की हासोन्मुखी दशा का चित्रण किया है। बाजारवाद और उपभोक्ता संस्कृति की विषमताओं से हमारा साक्षात्कार कराया है तथा उत्तर आधुनिक समस्याओं के माध्यम से नया जीवन-बोध देकर स्थितियों की भयावहता से हमें उन्होंने आगाह करके वास्तव में अपना दायित्त्व निभाया है। उन्होंने उपेक्षित तथा शोषित जनों के प्रश्नों को केन्द्र में लाने का प्रयास किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से उत्तर आधुनिक समाज में चतुर्दिक ध्वंस और बाजारवादी युग की अमानवीयता का अहसास कराया है। इसी परिप्रेक्ष्य में मैंने 'उत्तर आधुनिकता और उदय प्रकाश का साहित्य' विषय पर आलोचना ग्रंथ प्रस्तुत किया है।
उदय प्रकाश का जीवन संघर्षों के साथ जिस प्रकार अनूठा और विशिष्टताओं से युक्त है। उसी प्रकार उनका साहित्य भी वैविध्यपूर्ण तथा नवीन दृष्टि के साथ छाप छोड़ने वाला है। अपनी प्रत्येक रचना में वे मानवीय समस्याओं के साथ निरन्तर मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठाता के रूप में प्रतिष्ठित दिखाई देते हैं। एक संवेदनशील कवि, प्रयोगशील कथाकार, कलाओं के गहरे जानकार और गहन समाजशास्त्रीय चिन्तन करने वाले साहित्यकार हैं। हिन्दी ही नहीं भारतीय लेखकों की उस पंक्ति में रखे जाते हैं, जिनकी राष्ट्रीय प्रतिभा है। 'सुनो कारीगर', 'अबूतर कबूतर', 'रात में हारमोनियम' और 'एक भाषा हुआ करती है' से उन्होंने कवि रूप में पहचान बनाई, तो 'टेपचू', 'तिरिछ', 'पाल गोमरा का स्कूटर', 'दत्तात्रेय के दुःख', 'वारेन हेस्टिंग्स का साँड़', 'मोहनदास', 'पीली छतरीवाली लड़की और मैंगोसिल जैसी कहानियों की रचना कर वे कालजयी कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। 'ईश्वर की आँख' और 'नयी सदी का पंचतंत्र' उनके महत्त्वपूर्ण निबन्ध संग्रह हैं। उदय प्रकाश की कथा कृतियों के अंग्रेजी, जर्मन, जापानी एवं अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं के अनुवाद भी उपलब्ध हैं। लगभग समस्त भारतीय भाषाओं में उनकी रचनाएँ अनूदित हैं। इनकी कई कहानियों पर फीचर फिल्में भी बन चुकी हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है। 'मोहनदास' के लिए 2010 का साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मिल चुका है।
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